गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-6
वैदिक गीता-सार सत्य
गीता ज्ञान व्यक्ति को भी परिमार्जित करता है और समाज को भी परिमार्जित करता है। उसका परिमार्जनवाद उसे हर व्यक्ति के लिए उपयोगी और संग्रहणीय बनाता है। अपने इस प्रकार के गुणों के कारण ही गीता सम्पूर्ण संसार का मार्गदर्शन हजारों वर्षों से करती आ रही है। विश्व के अन्य ग्रन्थों में क्षेत्रवाद या सम्प्रदायवाद की गंध आ सकती है-परन्तु गीता ज्ञान में ऐसा कहीं भी नहीं है।
गीता का ‘अतिमानसवाद’
गीता मनुष्य को सारी संकीर्णताओं से ऊपर उठकर ‘अतिमानसवाद’ की ओर ले जाती है। मनुष्य परिवार से निकलकर प्रान्त, देशादि की सारी सीमाओं को लांघकर विश्व की ओर अन्त में प्राणिमात्र की हितसाधना करने लगे-यह गीता का ‘अतिमानसवाद’ है। इसमें सारा भौतिकवाद नीरस हो जाता है और व्यक्ति के मानस में अध्यात्मवाद की मन्द-सुगन्ध समीर के मनमोहक झोंके चलने लगते हैं। उन झोंकों का जिस जिससे स्पर्श होता है वही अपने आप में धन्य होता जाता है।
गीता इस ‘स्पर्शवाद’ को एक वैश्विक आन्दोलन बना देना चाहती है। वह हर व्यक्ति को ‘अतिमानसवाद’ का पाठ पढ़ाकर उसकी प्रतिभा का अधिकतम लाभ विश्व हित में उठा लेना चाहती है। वह चाहती है कि हर व्यक्ति के विचारों से और कार्यों से ऐसी ऊर्जा संसार में प्रवाहित हो कि हर व्यक्ति उसके स्पर्श से ऐसी ही सकारात्मक ऊर्जा से स्वयं को भरा हुआ अनुभव करने लगे और सकारात्मक ऊर्जा के इस नृत्य में झूमते हुए सारे संसार के साथ स्वयं भी झूमने लगे। इस प्रकार एक विश्व रास रच जाए, सारा विश्व इस विश्वरास के आनंद में सराबोर हो जाए-यह गीता का मर्म है।
गीता प्राणिमात्र के कल्याणार्थ हर मनुष्य को यज्ञोमयी बना देना चाहती है। इस प्रकार अतिमानसवाद को सृष्टि की चेतना कहा जा सकता है। इस चेतना से चेतनित सारा विश्व शान्ति का आगार होगा, शान्ति उसके कण-कण में समाविष्ट होगी और सर्वत्र शान्ति का ही संगीत चल रहा होगा। सृष्टि में सर्वत्र सर्वतोभावेन याज्ञिक क्रिया चल रही है। अतिमानस उस याज्ञिक क्रिया को और भी बलवती करने की युक्तियां खोजता है, उसे बलवती करता है और उस याज्ञिक क्रिया से भटकी हुई विश्व व्यवस्था को पुन: गतिशील करता है, स्फूत्र्तिमान करता है। जिससे कि विश्व में कहीं कलह न रह जाए, कहीं कटुता और क्लेश का भाव न रह जाए।
श्री अरविन्द कहते हैं-”(जब विश्व में अति मानस चेतना प्रकट होगी) तब हमारा यह शरीर, यह मन सर्वथा बदल जाएगा, रूपान्तरित हो जाएगा। जैसे प्राण तत्व के आविर्भाव से प्राणी का शरीर कुछ का कुछ बन गया, जैसे मनस्तत्व के आविर्भाव से मनुष्य का शरीर पशु-पक्षी से भिन्न होकर रूपान्तरित हो गया, वैसे अतिमानस के आविर्भाव से यह शरीर ऐसा नहीं रहेगा, यह शरीर दिव्य हो जाएगा। मन भी ‘दिव्य’ हो जाएगा। आज हम जैसे हाथ-पांव से काम लेते हैं शरीर को आधिव्याधि सताती है, शरीर की आयु सीमित है-वैसे ये सीमाएं जाती रहेंगी। हम जैसे सुख-दुख से घिरे रहते हैं-कभी हंसते हैं, कभी रोते हैं, राग, द्वेष, राग, भय से विक्षिप्त रहते हैं, अतिमानस द्वारा हमारे रूपान्तरण के बाद यह सब कुछ नहीं रहेगा। मनुष्य आनन्दमय हो जाएगा। जैसे इस पृथ्वी पर चेतना ने अपने आपको जड़ से ऊपर उठाकर वनस्पति वृक्षों में प्रकट किया, जैसे इस पृथ्वी पर चेतना ने अपने को पशुपक्षियों में प्राण रूप में प्रकट किया, जैसे इस पृथ्वी पर ही चेतना ने अपने आपको पशु पक्षियों में प्राण रूप में प्रकट किया और उस योग्य उपकरणों का, साधनों का निर्माण किया, जैसे इस पृथ्वी पर ही चेतना ने अपने को मनुष्यों में मानस रूप में प्रकट किया और मन के योग्य साधनों का निर्माण किया, वैसे इसी पृथ्वी पर अतिमानस अपने को प्रकट करेगा और अतिमानस के प्रकट होते ही मानव समाज के उपकरण भी उसी के अनुरूप हो जाएंगे। यह मनुष्य का इस पृथ्वी पर दिव्य जन्म होगा और उसके कर्म ‘दिव्य कर्म’ होंगे।”
सर्वत्र दिव्यता भासने लगे और दिव्यता में आधि-व्याधियां अपने विकास को प्राप्त होने लगें, हर मानव अपने जीवन का अधिकतम उपयोग अपनी आत्मिक उन्नति के मार्ग खोजने में करने में लग जाए-यह गीता का परम उद्देश्य है। ऐसी स्थिति आते ही संसार के लोगों में प्रेम का संचार स्वाभाविक रूप से होने लगेगा। यह प्रेम ही है जिसके लिए आज का विश्व तरस रहा है, तडफ़ रहा है। यह दु:ख का विषय है कि जिसे हम प्रेम कहते हैं-वह वास्तव में प्रेम न होकर वासना है, और इस वासना ने मानव समाज को पागल बनाकर रख दिया है। ‘गीता’ इस वासना को मिटाकर अतिमानस के माध्यम से प्रेम की सृष्टि करना चाहती है। वह जब राक्षसी वृत्तियों के विनाश की बात करती है तो उसका अभिप्राय यही होता है कि संसार में प्रेम की वृष्टि हो और प्रेम की ही सृष्टि हो। गीता का प्रेम सृजन का प्रेम है, प्रेम का प्रेम है और हर व्यक्ति के मन को भाने वाला प्रेम है।
दिव्यता का प्रसार गीता का प्रतिपाद्य विषय है, ऐसी दिव्यता जो मनुष्य को मनुष्यत्व से ऊपर उठाकर देवत्व की साधना में ला दे और इस विश्व को ऐसी सद्बुद्घि दे कि ये ‘बारूद निर्माण’ को छोडक़र ‘बुद्घि निर्माण’ के पथ का अनुयायी बन जाए। ‘बारूद निर्माण’ करके विश्व में अपना भयंकर अहित किया है, इस बारूद ने मनुष्य की बुद्घि को भंग कर दिया और हमने देखा कि पिछले शताब्दी में बहुत कम अंतराल पर विश्व को दो-दो महायुद्घों को झेलना पड़ा, जिनमें करोड़ों लोगों की जान चली गयी।
बारूद गीता के लिए हेय है और बुद्घि उसके लिए सर्वप्रथम पूजनीया है। आश्चर्य की बात है कि ‘बारूद’ के साथ अर्थात युद्ध क्षेत्र में खड़े होकर श्रीकृष्ण जी अर्जुन को बुद्घिवाद की बात समझा रहे हैं। ऐसा बुद्घिवाद समझा रहे हैं- जिसमें बारूद के लिए स्थान तो है, पर वह कब कैसी परिस्थितियों में और किनके विरूद्घ प्रयोग किया जा सकता है?-यह भी स्पष्ट कर रहे हैं। इसका अभिप्राय है कि युद्ध के क्षेत्र में भी बुद्घिवाद की बात करने वाली गीता विश्व का एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जो युद्ध क्षेत्र में बोला गया और युद्ध के लिए बोला गया पर फिर भी वह बारूद को मनुष्य के लिए हेय मानकर अतिमानस की बात करती है। सचमुच ऐसा ग्रन्थ विश्व में अन्यत्र खोजा जाना सर्वथा दुर्लभ है। कदाचित यही कारण है कि गीता विश्व का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। हम ऐसी पवित्र विरासत के उत्तराधिकारी हैं, यह हमारे लिए गर्व और गौरव का विषय है-
गीता के इस गीत को
गावें जो नर नार।
आधि-व्याधि ना रहें
होवें भव से पार।।
अर्जुन का धर्म संकट
कुरूक्षेत्र के धर्मक्षेत्र में युद्ध के लिए कौरव और पाण्डवों की सेनाएं आकर खड़ी हैं। सभी को पता है कि युद्ध अब अवश्यम्भावी हो गया है। युद्ध के लिए बड़े बड़े योद्घा आ चुके हैं। सारा भारतवर्ष ही नहीं अपितु विश्व के विभिन्न देशों के योद्घा भी युद्ध में किसी न किसी पक्ष की ओर से लडऩे के लिए उपस्थित हो चुके हैं। पाण्डवों की ओर से युयुधान, विराट, और महारथी दु्रपद जैसे अनेकों योद्घा युद्ध के लिए उपस्थित हैं जिनमें धृष्टकेतु, चेकितान, वीर काशिराज, पुरूजित, कुन्तिभोज व शिविदेश के राजा शैव्य, पराक्रमी युधामन्यु, वीर उत्तमौजा, सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु द्रोपदी के पांचों पुत्र आदि भी सम्मिलित हैं। इसी प्रकार कौरवों की ओर से भीष्म पितामह, दानवीर कर्ण, दुर्योधन, दु:शासन, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण, वाहीकों के राजा सोमदत्त के पुत्र सौमदत्ति, भूरिश्र्रवा चीन से पहुंचे शल्य आदि भी उपस्थित हैं। धृतराष्ट्र को संजय युद्ध के लिए सन्नद्घ दोनों सेनाओं के विषय में ऐसी जानकारी देते हुए बताते हैं कि जब युद्ध प्रारम्भ करने के लिए भीष्म पितामह ने सिंह की गर्जना करके अपना शंख फूंका तो इस पर दुर्योधन को अतीव प्रसन्नता होती है। उसके पश्चात युद्ध के लिए शंख, भेरियां, ढोल, नगाड़े और लड़ाई के बाजे बज उठे। जिनसे चारों दिशाएं गंूज उठीं। इससे संधि समझौते की अब कोई सम्भावना नहीं रह गयी थी। क्रमश: