इसके पश्चात सफेद घोड़ों से जुते हुए विशाल रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी अपने दिव्य शंख बजाये, जिससे कि सभी को यह सूचना मिल जाए कि यदि कौरव युद्घ का शंखनाद कर चुके हैं तो पाण्डव भी अब युद्घ के लिए तैयार हैं। संजय धृतराष्ट्र को बता रहे हैं कि कृष्ण ने अपना पांचजन्य, अर्जुन ने अपना देवदत्त भीम ने अपना पौण्ड्र, युधिष्ठिर ने अपना अनन्त विजय, नकुल व सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए। इसी प्रकार की शंखध्वनि अन्य महारथियों ने अपने-अपने रथों से करनी आरम्भ की।
जब यह सब कुछ हो रहा था-तभी अर्जुन ने अपने सारथी श्रीकृष्ण को आदेश दिया कि ”हे अच्युत! आप मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले जाकर खड़ा कीजिए। जिससे मैं युद्घ के लिए उपस्थित योद्घाओं को अपनी आंखों से देख सकूं। मैं यह भी देखना चाहता हूं कि कौन-कौन लोग हैं जिनसे मुझे युद्घ करना पड़ेगा?”
तब श्रीकृष्ण जी ने भीष्म, द्रोण व अन्य उपस्थित राजाओं के समक्ष अपना रथ खड़ा करके अर्जुन को कहा कि-
सम्मुख तेरे सब खड़े राजा, भूप, नरेश। रणचण्डी बलि मांगती सुनो वीर गुडाकेश।।
युद्घ के लिए सन्नद्घ खड़े योद्घा स्वेच्छा से अपनी-अपनी बलि देने या किसी की बलि चढ़ाने के लिए यहां आये थे। स्वाभाविक था कि दोनों पक्षों के योद्घाओं की बलि रणचण्डी की भेंट चढऩी थी। प्रत्येक योद्घा अपनी-अपनी जीत सुनिश्चित मानकर युद्घ के लिए यहां पर उपस्थित है। दोनों पक्ष के योद्घा यह मानकर युद्घक्षेत्र में आये हंम कि युद्घ के पश्चात अपने शत्रु पक्ष को हराकर वह ही इस भूमण्डल पर राज करेगा।
इसी समय एक दूसरी घटना घटित हो गयी कि अपने सगे सम्बन्धियों को इस कार्य के लिए उद्यत खड़े देखकर अर्जुन के शरीर में कंपकंपी सी आने लगी। उसने अपने सगे सम्बन्धियों को अपने आपसे ही लडऩे के लिए इस प्रकार खड़े देखकर आश्चर्य व्यक्त किया। उसे यह अपेक्षा नहीं थी कि तुझे यहां इतने सारे अपनों से युद्घ करना पड़ेगा?
ऐसी द्वन्द्वात्मक मानसिकता में फंसा अर्जुन श्रीकृष्णजी से कहने लगा कि-”मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं, मुंह सूखा जा रहा है। शरीर में कंपकंपी उठ रही है, रोम खड़े हो रहे हैं। मेरे हाथ से गांडीव फिसला जा रहा है, त्वचा में दाह हो रहा है, मुझसे खड़ा नहीं रहा जाता, और मुझे चक्कर से आ रहे हैं। हे केशव! मुझे सारे लक्ष्ण उल्टे ही दिखायी दे रहे हैं। युद्घ में अपने बन्धु-बान्धवों की हत्या करके कुछ भला होने वाला नहीं है। जिससे अब मुझे अपनों को मारकर ही मिलने वाली किसी विजय की अभिलाषा भी नहीं रही है। इतना ही नहीं, यदि मेरे अपनों से लडक़र ही मुझे राज्य मिलेगा तो मुझे ऐसे किसी राज्य की इच्छा नहीं रही है। मुझे सुखों की इच्छा भी नहीं है। सचमुच ऐसा राज्य लेकर क्या करना और सुखों का उपभोग करके भी क्या करना है? -जो अपनों को मारकर ही प्राप्त किये जाते हैं। हे केशव! जिनसे राज्य भोग तथा सुख की इच्छा की थी वे सब प्राण तथा धन का मोह त्यागकर युद्घ में आ खड़े हुए हैं। आचार्य, पिता, पुत्र, पितामह, मामा, श्वसुर, पौत्र, साले तथा अन्य सम्बन्धी युद्घभूमि में आ खड़े हैं। यदि इन लोगों के द्वारा मैं मार भी दिया जाऊं या तीनों लोकों के राज्य के हेतु भी मैं इनको मारने की इच्छा नहीं करता, फिर इस पृथ्वी के राज्य का तो कहना ही क्या है?”
अर्जुन को आज ‘अपनों’ का सामना करना पड़ रहा है। वह नहीं चाहता कि इन अपनों को मारकर किसी प्रकार का राज्य भोगा जाए या कोई किसी प्रकार का सुख प्राप्त किया जाए। यही कारण है कि वह अपने ताऊजात भाईयों अर्थात धृतराष्ट्र पुत्रों को भी मारने मैं स्वयं को असमर्थ और असहाय अनुभव कर रहा है। वह कहता है कि अपनों को ही मारकर हम किस प्रकार सुखी रह सकते हैं? अर्जुन कहता है कि अपनों को मारना कुल क्षय करने के समान है। कुल क्षय होने से, पुरूषों का नाश होने से कुल की परम्पराएं बिगड़ जाती हैं, मर्यादाएं नष्ट हो जाती हैं, जिससे सम्पूर्ण कुटुम्ब और सम्पूर्ण समाज में अधर्म का बोलबाला हो जाता है। कुटुम्ब की महिलाएं बिगड़ जाती हैं, भ्रष्ट हो जाती हैं, जिससे वर्ण संकर हो जाता है, विभिन्न जातियों का मिश्रण हो जाता है। अन्तत: जाति-धर्म और राष्ट्र सब दूषित हो जाते हैं। नष्ट हो जाते हैं। ऐसा विनाश मचाने वाले लोग अनन्त काल तक नरक में बसते हैं। इसलिए मैं ऐसा पाप नहीं करूंगा जिससे समाज कुल व राष्ट्र की मर्यादाएं बिगड़ें। ऐसा कहकर अर्जुन ने अपने हथियार रख दिये और वह अपने रथ के पिछले भाग में जाकर बैठ गया।
बस, यही वह स्थिति है जिसने ‘गीता’ का उपदेश देने के लिए कृष्ण जी को विवश कर दिया था। गीताकार ने इस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए जितने भी श्लोक रचे वे सब हमें कुछ न कुछ मौलिक सन्देश देते हैं। यह सन्देश जितना महाभारत के समय उपयोगी था-उतना ही आज भी है। गीताकार ने स्थिति को स्पष्ट करने के लिए विषय को विस्तार दिया है। इस बात को ध्यान में रखते हुए हमें स्थिति की समीक्षा करनी चाहिए। 70 श्लोकी गीता में यह विषय विस्तार नहीं है। वह सीधे इस श्लोक से आरम्भ हो जाती है-
दृष्टवेमं स्वजनं कृष्णयुयुत्सु समुपस्थितम्।
न च श्रेयो अनुपश्यामि हत्वा स्वजन माहवे। न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्य सुखानि च।।
अर्थात हे कृष्ण! अपने इष्ट मित्र, बन्धु बान्धवों को युद्घ की इच्छा से यहां पर एकत्र हुए देखकर मैं असीम दु:ख की अनुभूति कर रहा हूं। इन अपनों को मारकर मैं अपना कोई लाभ होता नहीं देख रहा। हे कृष्ण इस प्रकार की विजय राज्य और सुख की मुझे थोड़ी सी भी इच्छा नहीं है। अगले श्लोक में अर्जुन कहता है कि ऐसी स्थिति में यदि मुझको धृतराष्ट्र की सन्तानें मार भी दें तो भी मेरा कल्याण ही होगा।
इस पर कृष्ण जी ने अर्जुन को मानसिक अवसाद की इस स्थिति से उबारने के लिए गीतोपदेश देना आरम्भ किया।
गीताकार और विषय विस्तार
अब प्रश्न है कि गीताकार ने विषय विस्तार क्यों किया? आखिर इसके पीछे उसकी मान्यता या उद्देश्य क्या है कि वह सीधा विषय पर ना आकर हमें कुछ देर भूमिका में बांधे रखता है। इसके लिए हमें समझ लेना चाहिए कि जब तक गीता मूल ग्रन्थ ‘जय’ (महाभारत) का एक अध्याय रही तब तक उसे स्पष्ट करने के लिए अलग से किसी भूमिका की आवश्यकता नहीं थी। विषय का नैरन्तर्य वहां बना हुआ था, इसलिए वहां महाभारत का लेखक बिना किसी बड़ी भूमिका के सीधे विषय पर आ गया। पर जब ‘गीता’ को महाभारत से अलग कर लिया गया तो वहां भूमिका की आवश्यकता पड़ी। जिससे गीता का पहला अध्याय लगभग भूमिका ही बनकर रह गया है। इस अध्याय में हम अर्जुन को अपने रथ के पिछले भाग में जाकर छुपते हुए ऐसे देखते हैं कि जैसे कोई बच्चा शरारत कर रहा हो। अर्जुन जो कि महाभारत का बहुत ही गम्भीर पात्र है-आज बच्चों की सी हरकतें करने लगा है। तब उसे श्रीकृष्णजी ने समझाना आरम्भ किया कि तेरे लिए ऐसा करना उचित नहीं है।
क्रमश: