गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-9
गीता के दूसरे अध्याय का सार और संसार
अर्जुन समझता था कि दुर्योधन और उसके भाई, उसका मित्र कर्ण और उसका मामा शकुनि युद्घ क्षेत्र में उसके हाथों मारे जा सकते हैं, इसके लिए तो वह मानसिक रूप से पहले से ही तैयार था। वह यह भी जानता था कि युद्घ क्षेत्र में भीष्म, द्रोण, कृपाचार्यादि भी मिलेंगे, पर जानना अलग चीज है और सदा न्याय का पक्ष लेने वाले या न्याय के लिए संघर्ष करते रहे भीष्म, द्रोण, कृपाचार्यादि को साक्षात सामने देखना अलग बात है।
अर्जुन समझ नहीं पा रहा कि जिन महापुरूषों ने न्याय का सदा समर्थन किया, आज वे अन्याय के समर्थन में उसके हाथों मरने के लिए आकर क्यों खड़े हो गये हैं?-और यदि युद्घ में उनको उसने मार दिया तो उसका परिणाम क्या होगा? हमारा अर्जुन न्याय के पैरोकारों का वध करने से पूर्व सौ बार सोचता है और वह एक अपराधी दुर्योधन के लिए अनेकों लोगों की जान लेना नहीं चाहता। अर्जुन के भीतर चल रहे द्वन्द्व का यह बहुत ही सार्थक पक्ष है। इस पक्ष की लोग अक्सर उपेक्षा कर देते हैं। जबकि आज के संसार में लोग एक दुष्ट को बचाने के लिए हजारों लोगों का खून बहाते देखे जा सकते हैं। उन्हें न्याय के पैरोकारों का वध करने में कोई संकोच नहीं होता। यही अर्जुन का धर्म संकट है, जिसमें वह फंसकर रह गया है।
आज का विश्व एक अपराधी के लिए अनेकों निरपराधी लोगों की जान ले रहा है। इसका अभिप्राय है कि ‘आज का अर्जुन’ न्यायप्रिय और धर्मप्रिय नहीं है। वह निहित स्वार्थ पूत्र्ति के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार है। विश्व के भटकते मानस का गीता यहां मार्गदर्शन कर रही है। गीता कह रही है कि विश्व से ‘शकुनिवाद’ को मिटाओ ‘दुर्योधन निर्माण योजना’ पर पूर्ण विराम लगाओ, और ‘महाभारत’ से बचो। विश्व मंचों पर बड़े-बड़े शानदार भाषण झाडक़र भी लेना ‘शकुनिवाद’ पर कार्य करते रहते हैं और इसे अपनी राजनीति और कूटनीति का एक अंग मानकर स्वीकार करते रहते हैं-भाषण तो विकास के देते हैं और कार्य विनाश के करते हैं। जिससे संसार में ‘युधिष्ठिर’ का निर्माण न होकर ‘दुर्योधन’ का निर्माण होता रहता है। गीता कह रही है कि स्वयं सुधरो औरों को सुधारो और विश्वशान्ति के लिए पूर्ण मनोयोग से कार्य करो। यदि ‘शकुनिवाद’ और ‘दुर्योधन निर्माण योजना’ को जारी रखोगे तो फिर से मानवता विनाश की भट्टी में झोंक दी जाएगी। आज के विश्व को गीता का यही सन्देश है, जिसे समझकर उसका कल्याण हो सकता है।
पाठ गीता का करो जो चाहो कल्याण।
राक्षस का संहार हो सज्जन का परित्राण।।
गीता के दूसरे अध्याय का सार और संसार
सत्तर श्लोकी गीता के अनुसार श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन के मुंह से आज युद्घ छोडक़र भागने की बातों को कायरतापूर्ण माना। इसलिए वह उससे कहने लगे कि आज तू ये नामर्दों वाली बात क्यों करने लगा है। यह तुझे शोभा नहीं देता वह कहते हैं कि-”हे शत्रुसन्तापक अर्जुन! तू अपने हृदय की इस क्षुद्र दुर्बलता का त्याग कर और युद्घ करने के लिए उठ खड़ा हो जा। जिनके विषय में तुझे शोक नहीं करना चाहिए, तू उनके विषय में भी शोक कर रहा है। आज तू ज्ञानियों की सी बात कर रहा है अर्थात ऐसे तपस्वी वैरागी साधुजनों की सी बात कर रहा है-जिन्हें इस संसार से कोई लेना देना नहीं है और जो किसी की मृत्यु पर शोक नहीं करते हैं। तू उनके लिए शोक करने लगा है-जिनके लिए शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ये जो देह धारी बने खड़े लोग तुझे दिखायी दे रहे हैं-इनके विषय में ध्यान रख कि जिस तरह दूसरी देह से इस देह में लडक़पन, जवानी, बुढ़ापा हुआ करते हैं और जिनके आने जाने से देह की अवस्था में परिवर्तन होता रहता है, इसी प्रकार इस देह वाला जीवात्मा इससे निकलने पर आगे के जन्म में पुन: दूसरा देह पा लेता है। ऐसा जानकर धीर लोग किसी के मरने-जीने का शोक नहीं किया करते। जिसका (देह का) कोई अस्तित्व ही नहीं है, तू उसे सत् मानकर उस पर शोक कर रहा है, यह तेरा अज्ञान है। ये देह असत होने से नाश्वान है और इस देह के भीतर विराजमान जीवात्मा इस देह का स्वामी होने से अर्थात सत् होने से सदा नित्य है, अमर है।
हे पार्थ! वह जीवात्मा तो सदा अविनाशी है, इसलिए तू उसकी मरने-मारने की चिन्ता छोडक़र इस समय अपने कत्र्तव्यकर्म को पहचान और युद्घ के लिए खड़ा हो जा। संसार के ऐसे लोग अज्ञानी ही होते हैं जो इस जीवात्मा को मारने वाला या मारा जाने वाला मानते हैं, ऐसे लोग सत्य को नहीं जानते। उन नादान लोगों में से तू नहीं है, अत: अपने आपको इन नादानी भरी बातों से ऊपर उठा। वैसे तुझे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि तू क्षत्रिय है और क्षत्रिय का युद्घ रूपी धर्म से बढक़र कल्याणकारी कोई दूसरा कर्म नहीं है। तू यदि शत्रु नाश करते-करते अर्थात धर्म विरूद्घ आचरण करने वाले लोगों का विनाश करते-करते या उन्हें मिटाते-मिटाते, मारा भी गया तो स्वर्ग की प्राप्ति का अधिकारी होगा और यदि तू जीत जाएगा तो इस धरा पर धर्म की स्थापना करके राज्य भोगने का सौभाग्य तुझे प्राप्त होगा। अत: तेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्।
मा कर्मफल हेतुभूर्मा ते सं गो अस्त्वकर्मणि।।
अर्थात तुझे केवल कर्म करने का ही अधिकार है। (अभिप्राय है कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने पर ही है) कर्म करना तेरे हाथ में है, कर्मों के फलों पर तेरा अधिकार नहीं है, अर्थात फल मिलना या न मिलना कभी भी तेरे हाथ में नहीं है, इसलिए अमुक कर्म का अमुक फल अवश्य मिले-यह हेतु, यह इच्छा मन में रखकर काम करने वाला तू न बन, अकर्म अर्थात कर्म के त्याग के प्रति तेरा अनुराग नहीं होना चाहिए।
कर्म तेरे अधिकार में फल पर नहीं अधिकार।
दुविधा सारी छोडक़र कर जीवन का उद्घार।।
श्रीकृष्णजी कहते हैं कि अर्जुन! सुन, और बड़े ध्यान से सुन!! देख, सफलता-असफलता में समान रहने का नाम ही योग है। नाना प्रकार के वेद वाक्यों से दुविधा में पड़ी तेरी बुद्घि जब समाधिवृत्ति में स्थिर और निश्चल हो जाएगी, तब तू योग को प्राप्त कर लेगा।
हे पार्थ! जब योगी अपने मन में आने वाली सारी कामनाओं का त्याग कर देता है और आत्मा से आत्मा में संतुष्ट रहता है तब वह स्थितप्रज्ञ अर्थात अचल बुद्घिवाला कहलाता है। जिसके मन को दु:ख में खेद नहीं होता और न सुख में आसक्ति होती है, जिसने प्रीति, भय और क्रोध को छोड़ दिया है, वह मुनि स्थिति, धी अर्थात अचल बुद्घिवाला कहलाता है।
परब्रह्म परमात्मा को देख लेने पर वासनाएं भी निवृत्त हो जाती हैं। ऐसे योगी जन सर्वसाधारण लोगों की जो रात होती है, उसमें जागते हैं और जिस अवस्था में संसार के साधारण लोग जागते हैं उसमें वे योगीजन सोते हैं, अर्थात वह उनकी रात्रि होती है।
ऐसे लोगों को संसार के माया मोह से कोई लगाव नहीं रहता, उनसे वे ऊपर उठ जाते हैं, राग द्वेष, और ईष्र्या जैसी बीमारियां उनसे दूर हो जाती हैं। उनकी दृष्टि में समता आ जाती है, सोच में समता आ जाती है। उनकी नजर और नजरिया दोनों पवित्र हो जाते हैं। उनके लिए सब अपने होते हैं और सबके लिए वह अपने होते हैं। ऐसे लोगों के चिंतन से सामाजिक और वैश्विक परिवेश सुन्दर बनता है, लोगों के जीने के अनुकूल बनता है और सामाजिक विसंगतियां और विषमताएं समाप्त होती हैं। क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत