गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-10
गीता के दूसरे अध्याय का सार और संसार
हमारे देश में लोगों की मान्यता रही है कि शत्रु वह है जो समाज की और राष्ट्र की व्यवस्था को बाधित करता है। ऐसा व्यक्ति ही अधर्मी माना गया है। धर्म विरूद्घ आचरण करने वाला व्यक्ति समाज, राष्ट्र और जन-जन का शत्रु होता है। ऐसे व्यक्ति का विनाश करना मानो समाज के किसी गले सड़े अंग की शल्य चिकित्सा करने केे समान है। जिसे बिना विचार किये कर ही देना चाहिए। जैसे रोग को शान्त करने के लिए दवाई लेने के लिए किसी से पूछना नहीं पड़ता, अपितु रोगी स्वयं ही चिकित्सक के पास जाकर दवाई ले लेता है, वैसे ही दुष्ट लोगों के संहार के लिए अर्थात समाज के रोग को शानत करने के लिए भी किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
दुष्ट आत्मा होत हैं रोग फैलावनहार।
वीर लोग करते सदा इनका यहां संहार।।
इस देश में कभी देवताओं और राक्षसों का संघर्ष हुआ था, जिसे कुछ विद्वानों ने सृष्टि का पहला विश्व युद्घ माना है। उसमें देवताओं की जय हुई। उस युद्घ के पश्चात दीर्घकाल तक संसार में शान्ति रही। पर अब एक ‘शकुनिवाद’ और ‘दुर्योधन की हठ’ ने वह स्थिति पुन: उत्पन्न कर दी थी जिससे यह संसार एक बार फिर विश्वयुद्घ की आग की ओर बढ़ आया था। श्रीकृष्ण जी की मान्यता थी कि धरती पर बढ़े हुए पाप की समाप्ति के लिए अधर्मी और पापी लोगों का विनाश अब कर ही देना चाहिए। जिससे कि यह संसार सुख की नींद सो सके और आने वाली पीढिय़ों को अपने वास्तविक धर्म का ज्ञान हो जाए। इस प्रकार वह युद्घ को धर्म की स्थापना का एक विकल्प मानकर उसे पूर्ण मनोयोग से लडऩे के लिए तैयार हैं।
ऐसा नहीं है कि श्रीकृष्णजी युद्घ के लिए पहले से ही उतावले थे? यदि वह उतावले होते तो वह पाण्डवों की ओर से शान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर ही राज्यसभा में कदापि नहीं जाते। श्रीकृष्णजी हर स्थिति में शान्ति और न्याय के समर्थक थे। यही कारण था कि उन्होंने शान्ति की स्थापना के लिए हस्तिनापुर जाकर न्याय की गुहार लगायी। वह शान्ति और न्याय की प्राप्ति के लिए कोई अवसर चूकना नहीं चाहते थे, और ना ही उसके लिए समाज के शरीफ लोगों के जीवन को दाव पर लगाना चाहते थे। पर दुर्भाग्य रहा इस देश का और मानवता का कि उस महापुरूष की वह न्याय की गुहार हस्तिनापुर की राज्यसभा में न केवल अनसुनी कर दी गयी अपितु श्रीकृष्णजी को दुर्योधन ने भरी राज्यसभा में अपमानित भी किया। तब श्रीकृष्ण जी ने यह अनुमान लगा लिया था कि अब युद्घ अवश्यम्भावी हो गया है, और बढ़े हुए पाप की जड़ को केवल युद्घ के माध्यम से ही उखाड़ा जा सकता है। यह सर्वमान्य सत्य है कि जिस राज्य सभा में न्यायप्रिय और शान्तिप्रिय लोगों की आवाज दबायी जाने लगती है उसी से महायुद्घ की भूमिका तैयारी होती है।
श्रीकृष्ण जी की यह परिपक्वता थी और उनकी कुशल नीति भी थी कि उन्होंने शान्ति के सभी द्वार खटखटाने का भरसक प्रयास किया, जिससे कि मानवता को भारी विनाश से बचाया जा सके। पर जब उन्होंने देखा कि शान्ति का हर दरवाजा ही बंद है तो उन्हेांने युद्घ का निर्णय ले लिया। इधर अर्जुन है कि जो पापियों के पापों के विनाश की घड़ी आने पर हथियार फेंककर अपने रथ के पृष्ठ भाग में जाकर बैठ गया है। कृष्णजी यह देखकर दंग हैं कि अर्जुन आज यह क्या कर रहा है? जब दुष्टों के संहार का सही समय आया है तो अर्जुन आज यह कैसा व्यवहार करने लगा है? यह राजा विराट के दरबार में बृहन्नला बने अर्जुन पर बृहन्नला की भूमिका करते-करते यह हीजड़ापन क्यों छा गया है?-जो यह सही समय पर युद्घ से पलायन करने की बात करने लगा है।
हमारी राजनीति का मूल उद्देश्य और हमारे हर देशवासी का मौलिक चिन्तन मानवतावाद की स्थापना करना रहा है। उसी के लिए हमने राज्य की स्थापना की और राजा को अपने लिए चुनकर उसे यह जिम्मेदारी दी कि समाज में हर स्थिति में मानवतावाद की रक्षा होती रहनी चाहिए। सारे देश के इस स्वार्थ को या उद्देश्य को आज अर्जुन ने पूरा करना है-जब वह युद्घ के मैदान में खड़े मानवता के शत्रु हर शकुनि को और हर दुर्योधन को अपने गाण्डीव की टंकार से कंपा देता है। इसीलिए श्रीकृष्णजी उसे ‘शत्रु सन्तापक’ की संज्ञा दे रहे हैं। पर अर्जुन शत्रुओं के ताप से स्वयं ही मुंह फेरकर खड़ा हो गया। यह उल्टी बात थी। श्रीकृष्णजी उसे ‘शत्रुसन्तापक’ कह रहे हैं, और वह स्वयं शत्रु के प्राप्त से अपने आपको बचाने की युक्ति खोज रहा है।
अर्जुन का यह आचरण मानवता विरोधी था, भारत के राजधर्म के मूल उद्देश्य की भावना के विपरीत था। इस देश के निवासियों के मूल विचार के विपरीत था और भारत के धर्म के भी विरूद्घ था। सारे देश की उस समय एक ही मांग थी कि पापियों का संहार करो, अन्याय और अधर्म को मिटाकर न्याय और धर्म की स्थापना करो। जो राजा देश की प्रजा की मूल भावना या सामान्य इच्छा को समझने में असफल हो जाता है-वह राजा होकर भी राजा के योग्य नहीं होता। वह अनजाने में धर्म के विपरीत आचरण कर रहा होता है और अर्जुन इस समय यही तो कर रहा था। जिसे कृष्ण जी सही रास्ते पर लाना चाह रहे थे।
गीताकार ने गीता के दूसरे अध्याय से विश्व और विश्व की राजनीति को यह सन्देश देने का प्रयास किया है कि उनका एक ही उद्देश्य होना चाहिए-मानवता की स्थापना। साथ ही यदि कोई व्यक्ति या आतंकी संगठन इस मानवतावाद को बाधित करे तो उसके विरूद्घ सारे विश्व को उठ खड़ा होना चाहिए। क्योंकि राजनीति का धर्म अधर्म और अन्याय का विनाश करना है। विश्व राजनीति को अधर्मी और अन्यायी व्यक्ति या संगठन का पूर्ण मनोयोग से विनाश करने के लिए उठ खड़ा होना चाहिए। आज के विश्व को अपनी राजनीति का धर्म मानवता की स्थापना करना घोषित करना चाहिए, साथ ही मानवता की रक्षा करना अपना कर्म घोषित करना चाहिए। राजनीति में यदि पक्षपात घुस गया या अन्याय और अत्याचार घुस गया तो विश्व का विनाश अवश्यम्भावी है। यही अधर्म की स्थिति होती है। गीताकार का आशय है कि राजनीति को निज धर्म को अंगीकार करना चाहिए। राजनीति धर्म की स्थापना के लिए बनी है। राजनीति के इस धर्म में सम्पूर्ण सृष्टि का कल्याण समाया है और इस प्रकार समाया है कि उसे आप अलग-अलग कर ही नहीं सकते।
जब कुरूक्षेत्र के धर्मक्षेत्र में दोनों सेनाएं युद्घ के लिए सन्नद्घ खड़ीं थीं-तब राजनीति अपने धर्म के निर्धारण की बाट जोह रही थी। वह चाहती थी कि मेरे धर्म की रक्षा होनी चाहिए। श्री कृष्ण जी अर्जुन को इस महान कार्य के लिए एक निमित्त बना देना चाहते थे और अर्जुन था कि आये हुए अवसर को ही खो रहा था। इसलिए कृष्णजी को उसके बचपने पर आश्चर्य हो रहा था। सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण को गति देने के लिए नियति ने अर्जुन को चुना और अर्जुन नियति को पहचानने में चूक कर रहा था तो यह बात श्री कृष्णजी को जँच नहीं रही थी और ना ही उन्हें स्वीकार्य थी।
गीता का यह अध्याय व्यक्ति को प्रत्येक प्रकार की हताशा व निराशा से मुक्ति दिलाता है। आजकल भौतिकवाद में जी रहा मनुष्य और विशेषत: युवा वर्ग तनावपूर्ण जीवन यापन कर रहा है। हर व्यक्ति अपने आपके चोरी के साधन ढूंढऩे व खोजने में लगा है।
क्रमश: