मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 10 (ख) गुजरात और नागौर के बीच युद्ध
गुजरात और नागौर के बीच युद्ध
गुजरात और नागौर के बीच भी कई युद्ध हुए। 1456 ई0 में सुल्तान कुतुबुद्दीन ने नागौर पर चढ़ाई की परंतु उसको हार का सामना करना पड़ा था। 1457 ई0 में गुजरात और मालवा के सुल्तान चंपानेर नामक स्थान पर मिले और समझौता किया कि मिलकर मेवाड़ पर आक्रमण किया जाए। इस संधि के अंतर्गत गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन ने आबू को अपने अधीन करने में सफलता प्राप्त की। दूसरी ओर मालवा का शासक भी अपनी सेना के साथ चढ़ाई करके आगे बढ़ा । महाराणा कुंभा इन दोनों की संयुक्त सेना की मानो प्रतीक्षा ही कर रहे थे। उन्होंने युद्ध के मैदान में इन दोनों की सम्मिलित शक्ति का कचूमर निकाल दिया।
आबू को महाराणा कुंभा ने देवड़ा के राजा से जीत कर अपने राज्य में मिला लिया था। यही कारण था कि देवड़ा का राजा भी राणा कुंभा से शत्रुता मानता था। यही कारण था कि देवड़ा का राजा महाराणा कुंभा को नीचा दिखाने की युक्तियां खोज रहा था। उसने गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन से संधि कर ली और संधि में कुतुबुद्दीन के समक्ष यह शर्त रखी कि महाराणा कुंभा से मिलकर लड़ा जाए। हमारे देश के किसी भी शासक की विदेशी हमलावरों के साथ मिलकर बनाई जाने वाली ऐसी योजना राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के दृष्टिकोण से उचित हो सकती है, पर इसे राष्ट्रीय दृष्टिकोण से कभी भी उचित नहीं कहा जा सकता। वास्तव में राजनीतिक क्षेत्र में भी वही बात न्यायोचित कहीं जानी चाहिए जो राष्ट्र हित में उचित हो। यदि राष्ट्रहित में अनुचित बात को राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया जाता है तो उसे राष्ट्र के हितों के साथ की गई गद्दारी ही माना जाना चाहिए।
देवड़ा के राजा ने मुस्लिम शासक के साथ योजना बनाई कि यदि लड़ाई में जीत हो जाती है तो आबू राजा देवड़ा को मिल जाएगा। सुल्तान ने इस बात पर अपनी सहमति दे दी। इन दोनों ने अपनी इस संधि की शर्तों के आधार पर महाराणा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, परंतु 3 दिन तक चले उस भयंकर युद्ध में अंत में महाराणा की सेना को ही सफलता प्राप्त हुई। राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए बने इस गठबंधन को महाराणा की वीरता ने छिन्न भिन्न कर दिया। यह युद्ध कुंभलगढ़ में लड़ा गया था।
सुल्तान का अंत
महाराणा कुंभा की व्यस्तताओं को देखते हुए और उनका लाभ उठाकर शम्स खान गायों की हत्या करवाता जा रहा था और नागौर किले की मरम्मत का काम भी उसने आरंभ कर दिया था।
शम्स खान की इस प्रकार की गतिविधियों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर महाराणा कुंभा ने इस बार उसे कड़ा पाठ पढ़ाने का निर्णय ले लिया । 1458 ई0 में महाराणा ने एक बार फिर नागौर पर आक्रमण किया और इस किले को इस बार पूर्णतया अपने अधिकार में कर लिया। 1458 ई0 में ही गुजरात के सुल्तान ने कुंभलगढ़ पर एक बार फिर हमला बोल दिया था, परंतु महाराणा कुंभा ने उसे एक बार फिर पराजय का स्वाद चखा दिया। इस प्रकार महाराणा कुंभा ने अपनी वीरता, शौर्य और साहस का परचम फहराकर इस मुस्लिम शासक को स्पष्ट कर दिया कि यदि वह उनसे भिड़ेगा तो उसका परिणाम हर बार ही उसके लिए उल्टा और विनाशकारी आएगा।
इसी वर्ष 25 मई को सुल्तान का देहांत हो गया। सुल्तान की मृत्यु के बाद महमूद बेगड़ा ने गुजरात का सत्ता भार संभाला। सत्ता संभालने के पश्चात महमूद बेगड़ा ने भी अपने पिता के पदचिह्नों पर चलने का निर्णय लिया। यही कारण था कि उसने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर 1459 ई0 में जूनागढ़ पर आक्रमण कर दिया। जूनागढ़ का सरदार महाराणा कुंभा का दामाद था। उसने महाराणा से सहायता की अपील की । महाराणा ने अपने दामाद के साथ मिलकर महमूद बेगड़ा का सूपड़ा साफ कर दिया अर्थात उसे युद्ध में परास्त किया।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि महाराणा कुंभा को पराजित करने के लिए उनके शत्रुओं ने एक नहीं अनेक बार प्रयास किए। यह उनका शौर्य और पराक्रम ही था जिसके कारण उनके किसी भी शत्रु को उन पर विजय प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध नहीं हुआ। वह उस समय भारत की वीर परंपरा के प्रतीक बन चुके थे। उनकी वीरता और साहस उस समय देश भर में चर्चा का विषय बन गया था। अपने कुल की परंपरा का निर्वाह करते हुए महाराणा कुंभा ने एक से बढ़कर एक वीरता का अनुपम कार्य किया। जिसके कारण उनके शत्रु उनसे भयभीत रहते थे। वास्तव में किसी भी देश की संस्कृति और उसकी सांस्कृतिक परंपराओं की रक्षा तभी संभव है जब उसके शासक पराक्रमी हों, जिनके भय से संस्कृतिनाशक शक्तियां भयभीत रहती हों।
महाराणा का सम्मान आज भी कायम है
चाहे विदेशी शक्तियों ने और भारत के विदेशी इतिहास लेखकों ने उन्हें इतिहास में उचित सम्मान दिया चाहे न दिया पर महाराणा कुंभा आज भी भारत के प्रत्येक देशभक्त और इतिहास बोध रखने वाले व्यक्ति के हृदय में समाए हुए हैं और एक सम्मानजनक स्थान रखते हैं। सरकारी प्रतिष्ठानों से किसी सम्मान को लेकर ही कोई व्यक्ति महान नहीं बनता है अपितु उसके कार्य उसे महान बनाते हैं। यदि भारत रत्न पाकर ही कोई व्यक्ति महान बनता तो सरदार पटेल, पंडित मदन मोहन मालवीय, लाल बहादुर शास्त्री, वीर सावरकर और नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे लोग कभी देश में सम्मान प्राप्ति नहीं कर पाते। कहने का अभिप्राय है कि किसी भी व्यक्ति को महान उसके देश के लोग बनाते हैं । यदि इस कसौटी पर महाराणा कुंभा को कसकर देखा जाए तो निश्चय ही वह देश के सबसे बड़े सम्मान के पात्र हैं।
महाराणा कुंभा ने मालवा के सुल्तान को एक बार नहीं 5 बार युद्ध के मैदान में परास्त किया और उसे कभी सफल नहीं होने दिया। मालवा का सुल्तान प्रतिशोध की आग में जलता रहा पर उसे महाराणा कुंभा पर कभी विजय प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। यही स्थिति नागौर के स्वामी शम्स खाँ की भी रही थी। आबू के देवड़ों को महाराणा कुंभा ने कभी अपने विरुद्ध सफल नहीं होने दिया। मालवा और गुजरात के सुलतानों ने एक साथ मिलकर महाराणा के विरुद्ध कार्यवाही की, पर अंत में उन्हें भी सफलता नहीं मिली। महाराणा कुंभा ने समस्त देशवासियों अर्थात आर्य / हिंदू धर्म में विश्वास रखने वाले लोगों के भीतर से इस निराशा को निकालने में सफलता प्राप्त की कि मुस्लिम क्रूरता अंतहीन है और इस पर सफलता प्राप्त करना बड़ा कठिन है। बलबन और अलाउद्दीन खिलजी के क्रूरतापूर्ण अत्याचारों की स्याही जिस प्रकार हिंदुस्तान के लोगों के हृदय में कहीं दिखाई देने लगी थी, उसको साफ करने में महाराणा कुंभा के पराक्रम ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। लोगों को फिर अपने आप पर विश्वास हुआ और उन्हें लगने लगा कि चाहे रात्रि कितनी ही काली क्यों न हो, उसके परली पार आशा का नया सवेरा निश्चय ही होगा। उन्हें लगा कि जब अलाउद्दीन खिलजी जैसे क्रूर मुस्लिम शासक के शासन का अंत हो सकता है और मुस्लिम साम्राज्य को फिर से बहुत अधिक सीमित किया जा सकता है तो एक दिन भारत का भगवा ध्वज फिर फहराएगा और 'अच्छे दिन' फिर आएंगे।
महाराणा कुंभा के विषय में इतिहासकारों और विशेषज्ञों की स्पष्ट मान्यता है कि "उनकी महत्ता विजय से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग, मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया। कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला उनकी कृति है। बसंतपुर को उन्होंने पुनः बसाया और श्री एकलिंग के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तम्भ तो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। अपनी पुत्री रमाबाई ( वागीश्वरी ) के विवाह स्थल के लिए चित्तौड़ दुर्ग मेंं श्रृंगार चंवरी का निर्माण कराया तथा चित्तौड़ दुर्ग में ही विष्णु को समर्पित कुम्भश्याम जी मन्दिर का निर्माण कराया।"
महाराणा कुंभा की मृत्यु
भारत वर्ष के इतिहास के ऐसे महानायक महाराणा कुंभा के बारे
में चित्तौड़गढ़ का विजयस्तम्भ ,गौरीशंकर हीराचंद ओझा , वीरविनोद, उदयपुर का इतिहास; नेणसी की ख्यात, और महाराणा के शिलालेखों से हमें विशेष जानकारी मिलती है। महाराणा कुंभा के उदय सिंह, रायमल, नागराज, गोपाल सिंह, आसकरण, गोविंद दास, जैतसिंह, महरावण, क्षेत्र सिंह और अचल सिंह नाम के 10 बेटे थे।
महाराणा कुंभा की मृत्यु के बारे में विवरण मिलता है कि 1468 ई0 में कुंभलमेर के एकलिंग नाथ जी के मंदिर में महाराणा कुंभा एक बार दर्शन करने के लिए गए। जब वह उस मंदिर में पहुंचे तो वहां पर एक गाय जोर से रम्भाई। महाराणा कुंभा ने गाय के इस प्रकार रम्भाने को अपने लिए अपशकुन माना। क्योंकि उनके भीतर एक अंधविश्वास किसी ढोंगी पाखंडी बाबा ने बैठा रखा था कि उनकी हत्या किसी चारण के द्वारा होगी। महाराणा ने अपनी इस अवस्था में गाय के इस प्रकार रंभाने को अपने इसी अंधविश्वास के साथ जोड़ लिया। उस दिन महाराणा कुंभा ने अपने दरबार में जाकर एक हाथ में तलवार ली और जोर से बोलने लगे कि “कामधेनु तांडव करिय।”
उन्होंने अपने इस वाक्य को हर व्यक्ति से बोलना आरंभ कर दिया। लोग इस वाक्य का अभिप्राय नहीं समझ पा रहे थे ।दरबारी भी उनके इस वाक्य के बार – बार बोलने से तंग आ चुके थे। तब उनके छोटे बेटे रायमल ने कुछ साहस करके उनसे पूछ लिया कि पिताजी ! आप बार-बार इस वाक्य को क्यों बोल रहे हैं? अपने पुत्र के इस प्रकार पूछने से महाराणा कुंभा अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने दरबारियों से कह दिया कि रायमल को मेवाड़ से तुरंत बाहर निकाल दिया जाए। महाराणा के द्वारा दिए गए इस आदेश को सुनकर रायमल ईडर की ओर प्रस्थान कर गया।
महाराणा मेवाड़ के चारण लोगों से भयभीत था। यही कारण था कि उसने सभी चारणों को मेवाड़ से निकाल देने का आदेश जारी कर दिया। कहते हैं कि महाराणा के इस आदेश के उपरांत भी एक चारण राजपूत बनकर वहीं रह गया। उस चारण ने महाराणा कुंभा के सामने आकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि चारण लोग किसी भी दृष्टिकोण से गलत नहीं हैं। उन्हें मेवाड़ से बाहर निकालने का आपका आदेश भी उचित नहीं कहा जा सकता।
कई इतिहासकारों का मानना है कि महाराणा कुंभा अपने द्वारा ही पाले गए इस भीतरी भय के कारण बहुत दुखी और एकाकी रहने लगे थे। धीरे-धीरे उनके मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया। मस्तिष्क की उस सुन्नता की अवस्था में वह पागलों का सा आचरण करने लगे थे। ऐसी अवस्था में बहुत संभव है कि उनके परिवार के लोग भी दु:खी रहने लगे होंगे।
कहा जाता है कि एक दिन कुंभलमेर के किले में कटारगढ़ के उत्तर की ओर मामादेव नामक स्थान के पास महाराणा कुंभा अकेले बैठे हुए थे । तभी उनका बड़ा पुत्र उदय सिंह वहां पर पहुंचा और उसने अपनी तलवार निकालकर राणा कुंभा की हत्या कर दी।
महाराणा कुंभा के पुत्र का यह कृत्य सचमुच निंदनीय था। जिस महापुरुष ने अपने समय में भारत की संस्कृति के लिए समर्पित होकर काम किया, उसके घर में एक ऐसी अपसंस्कृति विकसित हो गई थी ,जिसका प्रमाण उसके बेटे उदय सिंह ने दे दिया था। यह घटना 1468 ई0 की है, जब महाराणा कुंभा इस असार संसार से विदा हो गए थे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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मुख्य संपादक, उगता भारत