विश्वगुरू के रूप में भारत-63
इतनी बड़ी संख्या में समाजसेवी संगठनों के होने के उपरान्त भी यदि परिणाम आशानुरूप नहीं आ रहे हैं तो यह मानना पड़ेगा कि कार्य उस मनोभाव से या मनोयोग से नहीं किया जा रहा है-जिसकी अपेक्षा की जाती है। हमें अपने सामाजिक स्वयंसेवी संगठनों की कार्यशैली को सुधारना होगा। जातिगत आधार पर बनने वाले सामाजिक संगठनों पर रोक लगानी होगी। साथ ही हर सामाजिक संगठन के लिए सरकारी स्तर पर एक कार्यक्रम निश्चित करना होगा, जिसमें यह अनिवार्य होगा कि ऐसा कोई भी संगठन देश की संस्कृति को उजागर करने वाले शोध प्रबंधों के आधार पर अपना कार्य करेगा और उसके लिए राष्ट्र सर्वप्रथम होगा। अधिकतर सामाजिक संगठनों की स्थापना कुछ लोग अपनी नेतागीरी चमकाने के लिए तथा अधिकारियों पर अपना रौब झाडऩे के लिए करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ सामाजिक संगठन केवल गली मोहल्ले तक ही अपने आपको सीमित रखते हैं, वे उनसे बाहर नहीं निकल पाते।
जबकि सामाजिक संगठनों का दायित्व किसी गली मोहल्ले तक सीमित होना नहीं होता। जैसे समाज की परिभाषा लोगों ने स्वर्णकार समाज, गुर्जर समाज, वैश्य समाज, ब्राह्मण समाज, दलित समाज आदि के आधार पर तोडफ़ोड़ कर संकीर्णता को प्रकट करते हुए कर डाली है-वैसे ही सामाजिक संगठनों की परिभाषाएं भी संकीर्ण हो गयीं हैं। उन्हें चाहिए कि समाज की व्यापक परिभाषा की भांति वे अपने कार्यक्षेत्र को भी व्यापकता दें। संकीर्णताओं की सीमाओं को यदि कानून भी अपनी ओर से मान्यता देता है या उन्हें संकीर्ण रहने देता है तो हमें चाहिए कि ऐसा कानून भी परिवर्तित कर दिया जाए।
अब आते हैं मजहब के ठेकेदारों या मठाधीशों पर। भारत को विश्वगुरू बनाने में इनका भी विशेष योगदान तभी हो सकता है, जब ये अपने-अपने मजहब की राजनीति करने से बाज आयें, और इनके चिंतन में जब व्यष्टि के स्थान पर समष्टि का भाव आ जाए।
इन लोगों को अपने मजहब के उस स्वरूप को सामने लाना चाहिए जिससे देश में मानवतावाद को प्रोत्साहित किया जा सके, और प्रत्येक संप्रदाय को संकीर्णताओं की सीमाओं से बाहर निकालने में सहायता मिल सके। अभी तक ये मठाधीश देश में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते रहे हैं। क्योंकि साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने से इनके साम्प्रदायिक हित सधते हैं और ये ऐश्वर्य एवं विलासिता का जीवन जीने की अपनी अभिलाषा को पूर्ण कर सकते हैं। यही कारण है कि साम्प्रदायिक मठाधीश लोग जनता के मध्य साम्प्रदायिक दीवारें खड़ी करके उनमें विभाजन और विखण्डन किये रखते हैं। जब ये अपने संप्रदाय के लोगों की धार्मिक भावनाओं का सहारा लेकर कार्य करते हैं तो उस समय ये साम्प्रदायिकता को ही बढ़ावा दे रहे होते हैं। देश में एक अच्छा परिवेश बनाने के लिए इन मठाधीशों को भी ‘राष्ट्र सर्वप्रथम’ वाली नीति पर ही कार्य करना होगा।
हमारे देश के विषय में एक यह भी तथ्य है कि यहां के नेताओं के लिए, अधिकारियों मठाधीशों, धर्माधीशों व सामाजिक संगठनों के मुखियाओं के लिए-चाहे देश दूसरे स्थान पर हो, पर यहां के श्रमिकों, किसानों, जांबाज जवानों, शिल्पकारों आदि के लिए राष्ट्र प्रथम है। यह उल्टी बात है कि जो सर्वाधिक जिम्मेदार दिखायी दे रहे हैं वे कत्र्तव्यबोध और दायित्वबोध से परे हैं और जिनसे अपेक्षा की जाती है कि वे इस प्रकार के बोध को संभवत: जानते भी न हों- वे इस पर सदा खरे उतरते हैं। इसका अभिप्राय यह हुआ कि धन, पद, प्रतिष्ठा के चक्कर में पागल हो रहे लोगों को ही इस देश में सुधारने की आवश्यकता है, शेष तो सभी अपनी ‘राष्ट्रीय आचार संहिता’ का स्वभावत: पालन कर रहे हैं। यदि ये लोग ठीक हो जाएं तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। महाभारत में आया है कि शक, यवन और काम्बोज आदि जातियां पहले क्षत्रिय ही थीं, किन्तु ब्राह्मणों द्वारा प्रचार के अभाव में उन्हें वृषल होना पड़ा। इसी प्रकार द्राविड़, कलिंग, पुलिंद, उशीनर, कोलि, सर्प (नाग) और महिषक आदि भी क्षत्रिय जातियां ही थीं, परंतु ब्राह्मणों द्वारा प्रचार के अभाव में ही वे शूद्र हो गयीं।
महाभारत की यह साक्षी बता रही है कि यदि समाज के जिम्मेदार लोग अपने दायित्व बोध से हीन हो जाएंगे तो वे समाज और राष्ट्र की जिम्मेदारियों का वहन न कर पाने के कारण उसका भारी अहित कर बैठेंगे। जैसे ब्राह्मण समाज ने अपने दायित्व बोध से दूर जाकर करके भी दिखा दिया। यदि ब्राह्मण समाज शक यवनादि उपरोक्त जातियों के प्रति अपने कत्र्तव्य को समझता तो अपनी क्षत्रिय जातियां ही हमारे ऊपर बाहर से हमला न करतीं।
कहने का अभिप्राय है कि हमें आज भी अपने हर वर्ग और हर सम्प्रदाय के प्रति अपने कत्र्तव्य को समझने की आवश्यकता है। यदि हमने इसमें किसी प्रकार का प्रमाद किया तो भारत जिस प्रकार ‘विश्वगुरू’ बनने की ओर तेजी अग्रसर हो रहा है-उससे वह दूर रह जाएगा। सारे मतभेद त्यागकर ही हम भारत को विश्वगुरू की महान जिम्मेदारी दिला सकते हैं।
इस समय भारत के योग का डंका संसार में बज रहा है तो इसके कई कारणों में से एक कारण यह भी है कि ईसाइयत इस समय पतनोन्मुख है। बैल्जियम के विद्वान कोनराड ऐल्स्ट का आंकलन है-”कोई भी चीज जो देखने की चिंता करता है, देख सकता है कि ईसाइयत गम्भीर पतन की ओर अग्रसर है। ऐसी अवस्था विशेषकर यूरोप में है जहां कि अनेक देशों में चर्च की उपस्थिति दस या पांच प्रतिशत से भी कम रह गयी हैं।…..ईसाइयत को अपने अस्तित्व के लिए और भी अधिक अशुभ बात है-पुरोहिती व्यवसायों में कमी। बहुत से ईसाई धार्मिक प्रदेश जो पहले दो तीन पादरी रखते थे अब वहां एक भी नहीं है। परिणामस्वरूप यहां तक कि अब रविवासरीय पादरी सेवाएं भी एक आमंत्रित पादरी द्वारा करायी जाती हैं। जिससे उस पादरी का कार्यक्रम अति व्यस्त रहता है, क्योंकि पादरियों की कमी उनके अवकाश ग्रहण, मृत्यु अथवा पादरीपन का व्यवसाय छोड़ देने और उसकी आपूर्ति न हो पाने के कारण होती जा रही है।…..”
(साइकॉलोजी ऑफ प्रोफेटिज्म)
जो महल हवाओं में बनते हैं, उनकी जड़ें नहीं होती हैं और उनका परिणाम यही होता है कि वे एक दिन के लिए भी अस्तित्व में नहीं आ पाते हैं। ईसाइयत का भवन फिर भी बहुत देर रह लिया है-अब इसके नष्ट होने का समय आ गया है। सुप्रसिद्घ खोजी पत्रकार डैविड मालूप (इंग्लैंड) का कहना है कि-”अभी अभी वैटिकन और इटालवी सरकार के मध्य नवीन समझौता हुआ है। वह वर्तमान पोप (जॉन पाल द्वितीय) के राज्य की स्थिति का सही मूल्यांकन प्रकट करता है। कैथोलिक लोग पिछले लगभग दो हजार वर्षों से इटली को अपने संप्रदाय का गढ़ मानते आये हैं। किंतु अब रोमन कैथोलिक मत ‘राज्य का पन्थ’ नहीं रह गया है। इटली में चर्च के विशेष अधिकार पूर्ण स्थिति लगभग समाप्त है।” (पृ. 323)
रोम को ईसाइयों की धार्मिक राजधानी मानी जाती है। आजकल उसकी अपनी स्थिति दयनीय हो गयी है या होती जा रही है। इसका अभिप्राय है कि ईसाइयत संसार को आत्मिक शान्ति और मनुष्य समाज की समस्याओं का कोई नीतिसंगत समाधान नहीं दे पायी है। लोगों को अब समाधान चाहिएं, उन्हें साम्प्रदायिक मान्यताओं में विश्वास हो सकता है पर इसके उपरान्त भी वे मजहबी मान्यताओं को व्यक्ति का निजी विषय मानते हैं। अत: सम्प्रदाय को वह राजनीति के लिए घातक मानते हैं। क्रमश: