उपरोक्त लेखक आगे लिखते हैं कि-”रोम में कैथोलिकों की जनसंख्या लगभग पच्चीस लाख (1978 में) है। यहां प्रतिवर्ष सत्तर नये पादरी निर्माण किये जाते थे।
जब 1978 में लुसियानी (जॉन पॉल प्रथम) पोप बने तब मात्र छह पादरी ही निर्माण होते थे। वस्तुत: शहर के अधिकांश क्षेत्रों में पैगन (अर्थात मूत्र्तिपूजक हिन्दू लोग) भरे थे और चर्च में ईसाइयों की उपस्थिति जनसंख्या के तीन प्रतिशत से भी कम रहती थी।”
(पृ. 194)
इसका अभिप्राय है कि ईसाई प्रधान देशों में भी पेगन=मूत्र्तिपूजकों का वर्चस्व स्थापित होता जा रहा है। एक कैथोलिक पादरी का कहना है-”इससे पता चलता है कि 1963 से 1969 तक चर्च के आठ हजार पादरियों ने अपनी प्रतिज्ञाओं से मुक्ति के लिए प्रार्थना की थी और लगभग तीन हजार पादरियों ने आज्ञा मिलने की प्रतीक्षा किये बिना ही चर्च को छोड़ दिया था। इस अध्ययन ने अनुमान लगाया था कि अगले पांच वर्षों में बीस हजार पादरी और चर्च छोड़ देंगे। किन्तु यह अनुमान भी कम आशावादी सिद्घ हुआ।
उन देशों की स्थिति और भी दयनीय है जिन्हें धर्माधिकारियों को बाहर से मिशनरी मिल जाने की आशा होती थी। उदाहरण के लिए हॉलैण्ड प्रतिवर्ष तीन सौ पादरी निर्माण करता था, किंतु अब वहां से पादरियों की नियुक्ति उतनी ही दुर्लभ है जितनी मैदानी क्षेत्र होने के कारण हॉलैण्ड में पहाड़ों की उपलब्धि। जो पादरी कार्यरत हैं उनकी औसत आयु बहुत अधिक 54 वर्ष (अब यह बढक़र पैंसठ वर्ष के लगभग हो गयी है) भविष्य भी निराशाजनक ही दिखायी दे रहा है। पिछले बीस वर्षों से संयुक्त राज्य अमेरिका में धर्म शिक्षाकर्मियों (मिशनरियों) की संख्या भी पचास हजार से घटकर बारह हजार रह गयी है।”
जहां ईसाइयत से अमेरिका जैसे देशों का मन भर रहा है, वहीं वे वैदिक हिन्दू धर्म की ओर आकर्षित हो रहे हैं। उनका यह आकर्षण इतनी प्रबलता से बढ़ रहा है कि अमेरिका में इस समय हर तीसरा या चौथा व्यक्ति हिन्दुत्व से प्रभावित है। भारत के लिए यह शुभ संकेत है। इस समय यदि हम अपने आपको सुदृढ़ कर लें और भारत की सामासिक संस्कृति की समृद्घि व प्रचार-प्रसार के लिए कमर कस लें तो परिणाम बड़े ही उत्साहजनक आने वाले हैं।
महाभारत में व्यासजी कहते हैं :-
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवाव धार्यताम्।
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
अर्थात ”धर्म का सार सुनो और सुनकर उस पर आचरण करो। वह तत्व की बात ये है कि जिस आचरण को तुम अपने लिए प्रिय नहीं मानते, उसे दूसरों के साथ कभी मत करो।”
इसी बात को किसी कवि ने इस प्रकार कहा है –
चार वेद छह शास्त्र में बात मिली हंै दोय।
सुख दीने सुख होत है दु:खदीने दु:ख होय।।
बात स्पष्ट है कि यदि आप दूसरों को सुखी रखने के लिए अपनी ओर से उन्हें सुख प्रदान करने का हरसंभव प्रयास करेंगे, तो वह भी आपको सुखी रखने में अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करेंगे। इसके विपरीत यदि आप दूसरों को दुख पहुंचाने वाले कार्यों में ही लगे रहेंगे तो दूसरे लोग भी आपको ऐसे ही कार्यों से परेशान करते रहेंगे। ऐसे में विश्व को महाभारत के इस श्लोक के अनुसार आचरण करने के लिए लोगों को शिक्षा देनी होगी। आज भारत को अपने गौरवपूर्ण अतीत और अपने महान ऋषियों के महान विचारों को संसार में फैलाकर उनकी कीत्र्ति को अमरता प्रदान करने के लिए आगे आने की आवश्यकता है। भारत अपने ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक परम्पराओं और रीति-रिवाजों पर यदि कहीं रूढि़वाद की जंग लग गयी है-तो उसे भी सुधारने के लिए आगे आने का कदम उठाये। हमें यह मानना होगा कि दूसरों को सुधारने से पहले स्वयं सुधरने का प्रयास करना चाहिए। भारत को अपनी सामाजिक विसंगतियों यथा छुआछूत, ऊंचनीच, आदि की बुराईयों से स्वयं को मुक्त करना होगा। जितना हमारा अतीत शानदार रहा है, उतना ही हमें अपना वर्तमान ही शानदार बनाना होगा। अतीत की गौरवपूर्ण विरासत को गौरवपूर्ण वर्तमान ही उठाकर चलने में समर्थ हुआ करता है।
हमारे लिए अर्थात संसार के सभी लोगों के लिए यही उचित है कि हम किसी को दु:ख न दें, अन्यथा यह दु:ख लौटकर हमारा ही नाश कर देगा। भारत अपनी संस्कृति की इसी गुणवत्ता को संसार के समक्ष प्रस्तुत करे। समय का तकाजा यही है। सारा संसार भारत के इस सांस्कृतिक मूल्य को अपनाने की प्रतीक्षा कर रहा है।
पं. शिवकुमार शास्त्री ने अपनी पुस्तक ‘श्रुतिसौरभ’ के पृष्ठ 347 पर एकरोचक प्रसंग का उल्लेख किया है। वह लिखते हैं-”स्व. श्री महावीर त्यागी ने जो संसद सदस्यता के समय 1968 और 1969 में मीनाबाग में मेरे पड़ोसी थे, एक दिन बातचीत के प्रसंग में सुनाया कि वे किसी काम से सरदार पटेल को मिलने गये। उनके सत्कार के लिए मणिबेन कुछ खाने-पीने को लायीं। मणिबेन की धोती सिर पर से फटी थी। यह देखकर त्यागी जी ने जैसा कि उनका विनोदी स्वभाव था, मणिबेन को कहा कि-”तुझे देखकर कौन भारत के गृहमंत्री की लडक़ी कहेगा? सडक़ के किनारे पर बैठ जावे तो लोग भिखारिन समझकर पैसे फेंकने शुरू कर देंगे।”
यह सुनकर सरदार पटेल भी बोल पड़े-‘त्यागी कह तो ठीक ही रहा है। लगती तो मणिबेन ऐसी ही है।’
मणिबेन ने कहा-”सब ठीक है। पिताजी की आवश्यकता निवृत्ति के बाद जो सूत बचता है, मुझे निर्वाह तो उसी में करना है।”
एक दूसरा उदाहरण वह देते हैं। भारत की स्वाधीनता के प्रारम्भिक काल में जो अंतरिम सरकार बनी थी, उसमें डा. राजेन्द्र प्रसाद देश के खाद्यमंत्री थे। अन्न की कमी उस समय थी। डा. प्रसाद ने उन दिनों गेंहूं की रोटी नहीं खाई। वे कहते थे-”जैसा अन्न मेरे देशवासियों को उपलब्ध है मेरा कत्र्तव्य है कि मैं भी वैसे में ही निर्वाह करूं।” राष्ट्रपति रहकर भी वह बिहारी (सादा) भोजन, चबैना और सत्तू लेते रहे और नंगे पांवों घूमते रहते थे।”
ये दोनों संस्मरण बताते हैं कि देश की स्वतंत्रता के पश्चात बना यह शुभ संकेत देश के भविष्य की ओर संकेत करता था। निस्संदेह यह प्रक्रिया भारत में देर तक नहीं चली, पर यह इतना तो बता ही गयी कि भारत की उन्नति का मार्ग सादगी में है। आज भारत इसी सादगी की ओर लौट रहा है और भारतीयता को अपना रहा है। निश्चय ही भारत का विश्वगुरू बनने का मार्ग प्रशस्त हो चुका है।
हमें भारत को विश्वगुरू बनाने के लिए परस्पर के मतभेदों को त्यागने के लिए भी तत्पर रहना होगा। भारत एक शान्तिपूर्ण देश है, शान्ति का उपासक देश है, यह अहिंसाप्रिय देश है, अत: हमें अपने देश के इन गुणों को संसार में फैलाना होगा। इस कार्य को करने में हमें किसी प्रकार की राजनीतिक संकीर्णता या मजहबी मान्यताओं को आड़े नहीं आने देना चाहिए। समाप्त
मुख्य संपादक, उगता भारत