बिखरे मोती-भाग 202
गतांक से आगे….
संसार में भोगेच्छा से नहीं, अपितु भगवद्इच्छा से जीओ, और ध्यान रखो, भक्ति मार्ग में प्रभाव का नहीं, स्वभाव का महत्व है। अत: अपने स्वभाव को ऐसा बनाइये, जिससे प्रभु प्रसन्न हो जायें। प्रभु का सामीप्य (प्रभु-कृपा) प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि भक्त का मन इतना सधा हुआ हो जिससे वह भगवान के मन वाला हो जाए अर्थात भगवान के गुणों वाला हो जाए। यजन-भजन और नमन की भक्तिधारा गहरी और वेगवान हो तो उन्हें भगवान की ‘शरणागति’ सहज रूप से अर्थात स्वत: ही प्राप्त हो जाती है। सारांश यह है कि प्रभु जाप में तन्मयता (चित्त की निर्मलता) और आचरण (मन, वचन और कर्म) की पवित्रता के योग से ही भक्ति परवान चढ़ती है। भगवान के प्रति गहरी श्रद्घा उर्वरक (खाद) का काम करती है, जो भक्ति की लता को पुष्पित और पल्लवित करती है।
शान्ति प्रेम प्रसन्नता,
आत्मा का है नीड़।
सब सूना इनके बिना,
बेशक हो चाहे भीड़ ।। 1136 ।।
व्याख्या :-शान्ति, प्रेम, प्रसन्नता, (आनंद) को आत्मा का घोंसला (नीड़) कहा गया है। इसलिए यहां पर शान्ति, प्रेम, प्रसन्नता की व्याख्या करना प्रासंगिक रहेगा।
शान्ति से अभिप्राय ‘शम’ से है, अर्थात मन, बुद्घि, चित्त और अहंकार को अधर्म से हटाकर धर्म में लगाना शम अथवा शान्ति कहलाता है। प्रेम अर्थात हृदय (चित्त) की वह वृत्ति जिसमें किसी के प्रति विशिष्ट अनुराग के साथ-साथ त्याग और समर्पण के भाव का समावेश हो-उसे प्रेम कहते हैं। आनंद अर्थात मन के पांच क्लेश (अस्मिता, अविद्या, राग, राग-द्वेष) तथा छह विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) के वेग से प्रभावशून्य होने पर जो खुशी की अनुभूति होती है-उसे आनंद कहते हैं।
ध्यान रहे संसार में सारे क्लेश विकार तन, मन और बुद्घि में हैं। मन का स्वभाव है-माया अर्थात प्रकृति में रमण करना। स्वयं माया में रमण करना और बुद्घि को भी माया (प्रकृति) में उलझाये रखना, किंतु माया (प्रकृति) से यदि आप आगे जाओगे अर्थात प्रकृति से परे जाओगे तो वहां सारे क्लेश और विकार समाप्त हो जाते हैं और सच्चिदानंद का साक्षात्कार होता है, जहां आनंद ही आनंद है।
संसार में भौतिक धन से अधिक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक धन है। जिस धन से हमारे शरीर की रक्षा होती है, तथा सांसारिक व्यवस्था चलती है उसे भौतिक धन कहते हैं, जैसे अन्न, वस्त्र, आवास, रूपया-पैसा, जमीन-जायदाद इत्यादि। किंतु जिस धन से हमारी आत्मा का पोषण होता है, रक्षण होता है, और प्रभु-प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है, उसे आध्यात्मिक धन कहते हैं, जैसे-शान्ति, प्रेम, प्रसन्नता (आनंद) उत्साह इत्यादि।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो गया कि शान्ति, प्रेम, प्रसन्नता (आनंद) आध्यात्मिक धन है। वैसे तो आत्मा का घर हमारा हृदय माना गया है। हृदय में भी चित्त का घेरा उसके चारों तरफ है। यहीं से आत्मा अपनी ऊर्जा की दिव्य किरणों से-मन, बुद्घि, चित्त और अहंकार को क्रियाशील करती है। तदोपरांत मन, बुद्घि, चित्त, अहंकार के संयोग से हमारी ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां गतिशील होती हैं। इन सब से भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि जहां आत्मा के चारों तरफ चित्त का घेरा उसका रक्षण करता है वहां चित्त से भी सूक्ष्म शान्ति, प्रेम, प्रसन्नता (आनंद) का घेरा उसे पोषण देता है, जीवन देता है।
क्रमश: