देशद्रोही राजा चंद्रराव और शिवाजी
शिवाजी राजा चंद्रराव की दूषित और राष्ट्रद्रोही मानसिकता से क्षुब्ध रहने लगे। षडय़ंत्रों और छल कपट से भरी उस समय की राजनीति में कुछ भी संभव था, इसलिए शिवाजी राजा चंद्रराव की राष्ट्रद्रोही मानसिकता के प्रति मौन तो थे पर असावधान किंचित भी नही थे। वह जानते थे कि राष्ट्रद्रोही व्यक्ति किसी भी सीमा तक गिर सकता है। अत: उन्होंने राजा चंद्रराव को दंडित करने का मन बनाना आरंभ कर दिया। शिवाजी के विश्वसनीय देशभक्त साथी भी राजा की राष्ट्रद्रोही भावना से क्षुब्ध थे, इसलिए वह अपने स्तर पर इस देशद्रोही की मानसिकता का उपचार करने के लिए सक्रिय हो उठे।
अपने नेता शिवाजी के लक्ष्य और राजा के प्रति दृष्टिकोण को समझकर इन लोगों ने कूटनीतिक रणनीति बनायी। राधोबल्लाल अत्रे तथा संभाजी कावजी ने राजा के साथ मित्रता के प्रदर्शन का नाटक रचा और वे उसके राज्य में प्रवेश करने में सफल हो गये। इसके पश्चात ये दोनों देशभक्त योद्घा राजा चंद्रराव के दरबार तक पहुंच बनाने में भी सफल हो गये।
तब उन्होंने एक दिन उचित अवसर पाकर राजा का वध कर दिया। इसी समय उन लोगों के कुछ विश्वसनीय साथियों ने जावली को बाहर से घेर लिया। एक देशद्रोही को दंडित करने के लिए इन लोगों की कूटनीतिक रणनीति पूर्णत: सफल रही। जावली के साथ हुए संघर्ष में चंद्रराव के लडक़ों को राधोबल्लाल ने कैद कर लिया। इस प्रकार एक शत्रु का अंत तो हो ही गया साथ ही जावली पर राधोबल्लाल का अधिकार भी स्थापित हो गया। यद्यपि राजा चंद्रराव के साथ राधोबल्लाल ने जो कुछ किया उसकी जानकारी शिवाजी को नही थी, परंतु राजा चंद्रराव के अंत हो जाने से शिवाजी की शक्ति में तो वृद्घि हुई ही।
शत्रुओं का हो रहा था विस्तार
शिवाजी की शक्ति का विस्तार जिस गति से हो रहा था, उसी गति से उनके शत्रुओं का भी विस्तार हो रहा था। उन्होंने राजा बंदल के दुर्ग को जीत लिया जिसमें राजा बंदल तो मारा गया, परंतु जब उसका पुत्र युद्घ में पराजित होने के पश्चात शिवाजी से मिला तो शिवाजी ने उदारता का प्रदर्शन करते हुए उसका जीता हुआ दुर्ग उसे वापिस लौटा दिया।
शिवाजी की इस उदारता से प्रभावित होकर बंदल के पुत्र ने भी शिवाजी की अधीनता स्वीकार कर ली। तब शिवाजी ने कृष्णा नदी के तट पर प्रतापगढ़ नामक दुर्ग की स्थापना कराकर निर्माण कार्य प्रारंभ किया। जिससे उनके विजित क्षेत्रों की सुरक्षा और संरक्षा की जा सके।
औरंगजेब ने ढहाया कहर
औरंगजेब किन्हीं राजनीतिक बाध्यताओं के चलते या किसी भी अन्य कारण से प्रारंभ में (शाहजहां के काल में) शिवाजी से मित्रता करने का पक्षधर था, परंतु जब उसने देखा कि शिवाजी की बढ़ती शक्ति के परिणाम मुगल साम्राज्य के लिए अत्यंत घातक आने वाले हैं तो वह शिवाजी से अत्यंत सावधान हो गया। उसने मुगल अधिकारियों के लिए स्पष्ट निर्देश जारी कर दिये थे-”शिवाजी के प्रदेश पर हमला करो, गांव उजाड़ दो लोगों को बेरहमी से मारो और लूट लो। शिवाजी के सूबे पूना और चाकण को पूरा विनाश कर दो। लोगों को कत्ल कर दो या गुलाम बना लो। कोई दया न दिखाओ। गांव के मुखिया और किसान जिन्होंने सल्तनत के खिलाफ दुश्मन की मदद की है, उन गद्दारों को मार डालो।”
(सरकार, ‘शिवाजी’ पृष्ठ 51)
औरंगजेब के ऐसे फरमानों से 31 जुलाई 1657 को बीदर के निकट का कल्याणी नामक प्रमुख दुर्ग मुगलों के हाथ आ गया। औरंगजेब अब बीजापुर की ओर चला। पर शाहजहां ने दिल्ली से अपने पुत्र दारा द्वारा संदेश भिजवाया कि युद्घ बंद कर बीजापुर से संधि कर ली जाए। औरंगजेब को यह अच्छा तो नही लगा पर अगस्त 1657 में उसने बीजापुर से संधि कर ली।
शिवाजी के उच्च चरित्र का उदाहरण
इसी समय शिवाजी ने कोंकण पर हमला कर उसे अपने लिए जीत लिया दिसंबर 1657 ई. में माहुली का दुर्ग भी ले लिया। कल्याण का सूबेदार उस समय मुल्ला अहमद था। डी.एम. कराका ने यहां के विषय में लिखा है कि कल्याण के सूबेदार की पुत्रवधु को एक बार शिवाजी के कुछ सैनिक पकडक़र ले आये थे, जिसे देखकर शिवाजी ने कहा-”हमारी मां भी ऐसी सुंदरी होती तो हम भी सुंदर होते।”
औरंगजेब चलता रहा चाल
इसके पश्चात उस रूपसी को शिवाजी ने ससम्मान लौटा दिया था। अब औरंगजेब ने शिवाजी की बढ़ती शक्ति पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से अली आदिलशाह को लिखा-
” यह मुल्क बचाओ। इस जमीन में कुछ किले शिवा ने चुरा लिये हैं उनसे उसे भगाओ। अगर उसकी चाकरी तुम चाहते हो, तो उसे कर्नाटक में जागीर दो और शाही सल्तनत से उसे दूर भेज दो।”
इस पत्र से पता चलता है कि शिवाजी की शक्ति वृद्घि से औरंगजेब कितना चिंतित रहने लगा था? वह शिवाजी से भी पत्राचार करता रहा और उन्हें कड़ी चेतावनी उनके दुस्साहसिक कार्यों के लिए देता रहा। 24 फरवरी 1657 को उन्होंने शिवाजी के लिए लिखा था-”तुम्हारे गुनाह बहुत ज्यादा औैर संगीन हैं, फिर भी मैं माफी देने को तैयार हूं, बशर्ते कि तुम पछतावा जाहिर करो और आगे हमसे वफादार रहने का वायदा करो। जहां तक तुम्हारी और बातों का तआल्लुक है, सेनानी को मेरे पास भेज दो, मैं सब बातें मंजूर करूंगा।”
शिवाजी ने इस चेतावनी के उपरांत भी भय नही किया और उनका विजय अभियान पूर्ववत जारी रहा। 1659 ई. में उन्होंने कोंकण के आजकल के थाना और कोलावा जिले के पूर्वी भाग को जीतकर अपने अधिकार में ले लिया। इससे पुर्तगालियों की भी चिंतायें बढ़ गयीं और उन्होंने पुर्तगाली राजा को इसकी शिकायत लिखकर भेजी।
शिवाजी की दूरदर्शिता
शिवाजी एक दूरदर्शी नेता थे, उन्होंने समय के अनुसार ऐसे कई महत्वपूर्ण निर्णय लिये जो उनके लिए ही नही हिंदू समाज के लिए भी उस समय आवश्यक थे। ऐसा ही एक निर्णय था उनके द्वारा युद्घपोत बनाने का। महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थिति कुछ इस प्रकार की थी, जिसने शिवाजी को इस निर्णय को लेने और क्रियान्वित करने में सहायता प्रदान की। फलस्वरूप बड़ी संख्या में जहाज बनाये जाने लगे। इससे तत्कालीन मुगल सत्ता के ही नही अपितु विदेशी सत्ताओं के भी कान खड़े हो गये थे। शिवाजी शस्त्रनीति में विश्वास रखते थे, इसलिए उन्होंने अपनी सेना के आधुनिकीकरण के लिए यह कदम उठाया। वह समझ गये थे कि परंपरागत युद्घशैली से देश का और हिन्दू जाति का कोई भला नही होने वाला, इसलिए शस्त्र निर्माण से राष्ट्रनिर्माण के कांटों भरे रास्ते पर चलने का इस महानायक ने सहर्ष निर्णय ले लिया। पुर्तगाली कारीगरों ने भी शिवाजी को इस कार्य में अपनी सेवायें दीं।
अफजल खां और शिवाजी
शिवाजी अब पुर्तगाली प्रदेशों (कर्नाटक के भीतर स्थित) की ओर बढ़े। जिससे अफजल खां की चिंतायें बढऩे लगीं। अफजल खां शिवाजी की शक्ति को कुचलना तो चाहता था पर सीधे उनसे भिडऩे की सामथ्र्य उसमें नही थी, वह जानता था कि शिवाजी से सीधे भिडऩे का अर्थ क्या है? अत: वह छल-कपट का सहारा लेकर शिवाजी को कैद करना चाहता था।
इधर शिवाजी ने 1659 ई. में नेताजी पालकर को अपनी सेना का सेनापति नियुक्त किया। उनके अन्य साथियों में तानाजी सालुसरे, सेसाजी कंक कमलोजी सोलंखे, कोंडाजी वटखल इत्यादि सम्मिलित थे।
समर्थ गुरू रामदास और शिवाजी
समर्थ गुरू रामदास का शिवाजी के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। लगभग 1672 ई. के आसपास शिवाजी गुरू रामदास के संपर्क में आये। वैसे कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि शिवाजी और गुरू रामदास एक दूसरे का सम्मान अवश्य करते थे परंतु कभी रामदास उस स्थिति में नही आये थे जिनसे वह शिवाजी का राजनीतिक मार्गदर्शन कर पाते। यही मान्यता इन लोगों की संत तुकाराम और शिवाजी के संबंधों को लेकर भी है। परंतु इस सबके उपरांत भी समर्थ गुरू रामदास की शिक्षाओं का प्रभाव शिवाजी के जीवन पर पड़ा अवश्य था। इसका प्रमाण यह है कि जहां शिवाजी का उल्लेख होता है वहीं समर्थ गुरू रामदास का उल्लेख करना कोई भी इतिहासकार कभी भूलता नही है।
अफजल खां और प्रतापराव मोरे के षडय़ंत्र
अफजल खां को बीजापुर के आदिलशाह ने शिवाजी को गिरफ्तार करने के लिए नियुक्त किया था। उसका पुराना इतिहास भी छल कपट से युक्त रहा था। 1639 ई. में उसने सेरा के राजा कस्तूरी रंगा के साथ ऐसा ही छल किया था और उसे अपने शिविर में भेंट करने के लिए बुलाकर उसकी हत्या कर दी थी। अब अफजल उसी प्रयोग को शिवाजी के साथ करना चाहता था जबकि शिवाजी अपने आप में बहुत ही बुद्घि संपन्न थे, वह जानते थे कि कौन व्यक्ति किस इच्छा या उद्देश्य से उनसे मिलने आ रहा है या वह क्यों मिलना चाहता है?
अफजल खां के साथ हिंदूहित हत्यारा जावली से भागा हुआ प्रतापराव मोरे भी हो लिया था। ‘तारीखे अली’ में स्पष्ट लिखा है-”शिवाजी एक बागी कांटा है और उस दुष्ट शिवा का पूरी तरह नाश करने के लिए (मूलरूप में लिखा गया है-उसकी जीवनरूपी फसल पर मौत की आग बरसाने के लिए) दस हजार घुड़सवार देकर अफजल खां को भेजा गया।”
इसका अभिप्राय है कि अफजल पूरी तैयारी और एक षडय़ंत्र के अनुसार शिवाजी को कैद करने के लिए चला था। उसकी योजना में शिवाजी का वध कर देना भी सम्मिलित था। वह कांटे को सदा-सदा के लिए मिटा देना चाहता था। अत: वह अपने शिकार की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगा और इस आशा में रहने लगा कि यथाशीघ्र शिवाजी से भेंट हो और वह उसका वध कर दे।
शिवाजी भी अफजल के प्रति पूर्णत: सजग थे
1659 ई. में वर्षाकाल में अफजल खां वाई में पहुंचा, उससे पूर्व शिवाजी जावली में 11 जुलाई को पहुंच चुके थे। शिवाजी बड़ी सावधानी से आगे बढऩा चाहते थे। उन्हें हर पग पर षडय़ंत्र की गंध आती थी। इसलिए अफजल खां के विषय में सही जानकारी प्राप्त करना चाहते थे, और सौभाग्य से उन्हें एक गुप्तचर (दूत) ने यह संदेश दे दिया कि शिवाजी के प्रति अफजल की भावनाएं पूर्णत: विषपूर्ण हैं। अफजल खां किसी भी कीमत पर शिवाजी का विनाश कर देना चाहता है। अफजल खां के दूत को भी शिवाजी ने सौगंध देकर सच पूछने का प्रयास किया तो उसने भी स्पष्ट कर दिया कि अफजल की भावनाएं नेक नही हैं।
अब शिवाजी के सामने या तो लौट जाना एक विकल्प था, या ‘युद्घभूमि’ में रूककर शत्रु को शत्रु की भाषा में उसके किये की सजा देना एक विकल्प था। लौट जाना शिवाजी के लिए उपहासास्पद होता, अत: युद्घभूमि में डटे रहकर शत्रु को उसी की भाषा में प्रति उत्तर देना ही उन्होंने श्रेयस्कर समझा।
शिवाजी ने एकांत में मिलने का प्रस्ताव अफजल के पास भेजा
शिवाजी ने बड़ी सावधानी से अफजल खां को एकांत में अकेले मिलने के लिए तैयार कर लिया, अफजल खां को अपने बुद्घिबल और दलबल पर बड़ा अहंकार था, इसलिए उसने अकेले मिलने का शिवाजी का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। उसे यह ज्ञात नही था कि इस बार शिवाजी जैसे हिंदकेसरी से पाला पड़ा है, जिसे नियंत्रित करना या जिसकी हत्या करना उतना सरल नही है, जितनी सरलता से वह अब से पूर्व में छलबल से लोगों की हत्याएं करता रहा है। अफजल ने गोपीनाथ ब्राह्मण को शिवाजी के पास भेजा और उनसे कहलवाया कि यदि शिवाजी अफजल खां की अधीनता स्वीकार कर ले तो वह बादशाह से आपको क्षमा दिला सकता है। शिवाजी ने उस ब्राह्मण को ही भ्रम में डालकर उससे अफजल खां की वास्तविकता का भेद ले लिया।
शिवाजी मां भारती का आशीर्वाद लेकर अफजल खां से मिलने के लिए आगे बढ़े। वह भीतर से शस्त्रादि से युक्त होकर चले, पर ऊपर ‘अंगरखा’ (यह संस्कृत का अंगरक्षक शब्द है, जो बिगडक़र अंगरखा हो गया है) पहन लिया था। जिससे कि शत्रु को भ्रम में डाला जा सके।
अफजल खां को शिवाजी अपने सामने चूहा लग रहे थे, पर उसे यह ज्ञात नही था कि चूहे कि तार्किक शक्ति = बौद्घिक शक्ति या क्षमताएं कितनी तीव्र होती हैं? और वह किस प्रकार अपनी उसी तार्किक शक्ति से असाध्य कार्यों को भी पूर्ण कर लेता है। ‘चूहा’ शब्द मुस्लिम लेखकों ने घृणावश शिवाजी के लिए अधिकांश रूप में प्रयोग किया है।
भेंट के वे क्रूर क्षण और अफजल खां का अंत
शिवाजी जब अफजल खां से मिलने के लिए आगे बढ़े तो अफजल खां ने उन्हें अपनी भुजाओं में लेना चाहा। उसने शिवाजी का माथा पकडक़र उसे जोर से दबाना आरंभ कर दिया। इतना ही नही उसने म्यान से तलवार निकालकर चलानी चाही। पर शिवाजी तो पहले से ही तैयार होकर गये थे, इसलिए अफजल खान की तलवार उन पर कोई अपना प्रभाव नही कर पायी। तब शिवाजी ने यह समझ लिया कि अफजल खां की दुष्टता कितनी घातक हो सकती है और इससे पूर्व कि शत्रु अपना अगला प्रहार कर पाता, उस ‘हिंदकेसरी’ ने अपने बांये हाथ में लगा हुआ बिछुआ जिसे बघनखा भी कहते थे, अफजल खां की अंतडिय़ों में घुसेड़ दिया। अंतडिय़ों में प्रविष्ट हुए बघनखा के कारण अफजल खां की वहीं तुरंत मृत्यु हो गयी। मरने से पूर्व वह चिल्लाते हुए-‘धोखा, धोखा’ कहते हुए धरती पर गिरा था। पर उसने अब से पूर्व जितने धोखे किये थे, भारत के शेर ने उन सब धोखों का प्रतिकार अपनी वीरता और साहस के प्रदर्शन से आज ले लिया था।
इस प्रकार शिवाजी ने मां भारती के एक महान शत्रु का अंत कर दिया। उन्होंने शत्रु को बता दिया कि-”भारतवासी तुम्हारी हर चाल को भली प्रकार समझते हैं और उसका उत्तर देना भी जानते हैं। अत: हमारे विषय में किसी प्रकार की भ्रांति को पालने की आवश्यकता नही है। यह भारतभूमि हमारी है और इसे छल या षडय़ंत्रों से हमसे छीना नही जा सकता। इसके हम ही स्वामी हैं और हम ही उत्तराधिकारी भी हैं। इसे किसी ने अपना बताने या बलात अपना बनाने का प्रयास किया तो संपूर्ण भारत क्षेत्र, भाषा, प्रांत आदि की संकीर्णताओं से बाहर निकलकर एक स्वर से ऐसे प्रयासों का तीव्र विरोध करेगा।”
शत्रु सैनिकों को भी कर दिया गया साफ
अफजल खां की मृत्यु से शत्रु पक्ष में सन्नाटा छा गया। उसकी सेना में खलबली मच गयी। जब वह धरती पर गिरा तो उसके कुछ सैनिक जो इधर-उधर छिपे बैठे थे वह भी कूदकर बाहर आ गये, जिनसे शिवाजी का संघर्ष हुआ, पर वह या तो संघर्ष में मारे गये या इधर-उधर भाग गये।
क्या कहते हैं शिवाजी और अफजल की भेंट पर इतिहासकार
प्रभाकर माचने ने शिवाजी अफजल भेंट की इस घटना का वर्णन करते हुए ‘छत्रपति शिवाजी’ के पृष्ठ 33 पर लिखा है-”10 नवंबर 1659 को अफजल खां (जावली में) पालकी में तम्बू के पास आये। उनके साथ दस अंगरक्षक, एक राजदूत और दो सेवक थे। शिवाजी भी बाद में दस अंगरक्षकों को साथ और पताजी गोपीनाथ के साथ आ पहुंचे। अफजल खां के अंगरक्षक थोड़ी दूरी पर थे। सय्यद बंदा एक कुशल तलवार वाला अफजल खां के निकट देखकर शिवाजी ने अफजल खां से कहा कि उसे दूरी पर रखा जाए। शिवाजी की बात मान ली गयी।”
अब शामियाने के भीतर अफजल खां का एक दूत तथा एक सेवक रह गया। शिवाजी के साथ उनके दूत और दो सेवक रहे होंगे। शिवाजी को पास आते देखकर अफजल खां ने और भी विश्वास दिखाने के लिए अपनी तलवार ब्राह्मण दूत को दे दी। शिवाजी ने भी अपनी तलवार अपने सेवक जिवा महाला को उतारकर दे दी। अब अफजल खां के पास एक कटार रह गयी। शिवाजी के पास एक कटार और बाघनख मुट्टी में छिपे हुए थे। जिस ऊंचे चबूतरे पर दोनों के संधि मिलन की बात थी, उससे कुछ दूरी पर अन्य अंगरक्षक तथा सेवक खड़े थे। शिवाजी अफजल खां से मिलने आगे बढ़े। अफजल खां ऊंचे, तगड़े हट्टे कट्टे, पठान जैसा था उसने शिवाजी को बांहों में भरकर बगलगीर होकर मिलने का यत्न किया। शिवाजी की गर्दन बांय हाथ से थामकर दाहिने से कटार शिवाजी के पाश्र्व में भोंकने का प्रयत्न किया। पर चूंकि शिवाजी लोहे का कवच पहने थे लोहे से लोहा टकराया और आवाज हुई। शिवाजी चौकन्ने हो गये। यदि वे थोड़ा सा हिचकिचाते तो शायद उनकी जान नही बच पाती। शिवाजी ने तुरंत निश्चय किया और बाघनख वाला बांया हाथ कमर तक ले जाकर अफजल खां के पेट में से आंतें निकाल लीं। खून का फब्बारा छूटा होगा और अफजल खां दर्द से चीखा होगा इसी में शिवाजी ने अपना बिछ़वा उसके सीने में भोंक दिया। जान पड़ता है कि अधिक आत्मविश्वास के कारण अफजल खां जिरह बख्तर नही पहने होंगे। अफजल खां जख्मी होकर चीख पड़ा-”धोखा दुश्मन को मारो।”
अफजल खां के मरने पर उसके साथी उसका शव उठाना चाहते थे, परंतु सम्भाजी कावजी ने शिवाजी के उन सेवकों के पैर काट डाले और खान का सिर काटकर शिवाजी के पास ले आया।
सर जदुनाथ सरकार ने ‘शिवाजी और उनका काल’ नामक पुस्तक में लिखा है कि-”अफजल खां के मन में कपट अवश्य था इसीलिए उसने इतनी बड़ी सेना तैयार कर रखी थी, वह अति आत्मविश्वास में यह मान बैठा कि उस पहाड़ी चूहे को पकड़ लेने पर मराठे क्या लड़ेंगे? उनका नेता ही मारा जाएगा तो सारा मराठा संगठन ताश के महल की तरह भर भराकर गिर पड़ेगा।”
अधिकांश इतिहासकारों की यह भी मान्यता है कि अफजल खां ने ही पहला आक्रमण किया था। यदुनाथ सरकार निष्कर्ष रूप में लिखते हैं :-”सारे साक्ष्य देखकर मेरा मत है कि अफजल खां ने पहला वार किया और शिवाजी ने सिर्फ वह किया जिसे एडमण्ड वर्क जैसे अंग्रेज इतिहासकार आत्मरक्षा के लिए हत्या कहते हैं। मैंने माडर्न रिव्यू में 1907 में लिखा था कि यह हीरे को हीरे से काटने जैसा है।”
निजामुलमुल्क तृतीय सिकंदर जहां के वजीर मीर आलम ने भी लिखा है कि -”शिवाजी ने अफजल खां को शिविर में जाते ही सलाम कहा था। अफजल खां ने दीवान कृष्ण से पूछा क्या यही आदमी शिवाजी है? ‘हां’ का जवाब मिलने पर अफजल खां ने शिवाजी से अपनी जीती हुई जमीन लौटाने को कहा। शिवाजी ने कहा मैंने ऐसा करके मुगल शासन की सेवा ही की है। जिसके लिए मेरी प्रशंसा होनी चाहिए। खान ने कहा-अच्छा अब ये सारे किले मुझे दे दो और बादशाह से मिलने चलो। शिवाजी ने कहा-ऐसा फरमान देवे तो सिर आंखों पर लूंगा। इस समय दीवान कृष्ण बीच में ही बोल पड़ा-अब तुम खान साहब के मातहत आ गये हो, तुम्हें पहले अपने गुनाहों की माफी मांगनी चाहिए। तभी फरमान दिया जाएगा, शिवाजी ने कहा-अब हम दोनों मुगल सल्तनत के बंदे हैं। खान मेरे गुनाहों की माफी देने का हकदार कैसे है? पर तुम सलाह देते हो तो मैं अपना सिर उसकी गोदी में रखूंगा। यह कहकर शिवाजी खान से गले मिलने आगे बढ़े। अफजल खां को वीरता का नशा हो गया था और उसने शिवाजी को बगलगीर करके मजबूती से पकड़ा और अपनी कटार से वार किया।”
इससे भी स्पष्ट है कि शिवाजी ने आत्म रक्षा में ही अफजल खां की हत्या की थी। शिवाजी ने जीत के पश्चात अपने लोगों को विशेष पुरस्कार प्रदान किये, मृतकों के पुत्रों को अपनी सेना में स्थान दिया।
शिवाजी का लोगों ने किया भव्य स्वागत
शिवाजी अपने दुर्ग की ओर बढ़े। जहां उनके स्वागत की भव्य तैयारियां हो चुकी थीं। लोगों की देशभक्ति की भावना का समुद्र ठाठें मार रहा था। चारों ओर प्रसन्नता, उत्साह और उत्सव का परिवेश बन चुका था। अत: लोग बड़ी उत्सुकता से अपने महानायक के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। जिसके पास पुष्प थे वह पुष्पों से और जिसके पास केवल भावनायें थीं वह या तो नृत्य कर रहा था या अपने नायक की जयजयकार कर अपनी भावनाओं का प्रकटन कर रहा था। ऐसे लग रहा था मानो मर्यादा पुरूषोत्तम राम चौदह वर्ष का वनवास काटकर अयोध्या लौट रहे हों। ऐसे उत्साहपूर्ण उत्सव की अपेक्षा संभवत: स्वयं शिवाजी भी नही करते होंगे।
शिवाजी अपने दुर्ग की ओर बढ़े तो लोगों के विशाल जनसमूह को देखकर स्वयं भी आश्चर्यचकित रह गये। उन्हें भी ज्ञात हो गया कि हिंदू समाज किसी शत्रु के मारे जाने से कितना उत्साहित हो सकता है? इसका कारण यही था कि मुगलों के अत्याचारों से लोग दुखी थे। शिवाजी को उनके दुर्ग के पास आते ही तोपों की सलामी दी गयी। बिगुल बज उठा। मराठों ने अफजल खां की सेना के साथ भीषण युद्घ किया। अफजल खां की सेना के तीन हजार लोगों को हिंदू वीरों ने अपनी स्वंतत्रता की बलिवेदी पर चढ़ा दिया। अफजल खां का पुत्र फजल खां भी जैसे-तैसे अपने प्राण बचकर वहां से भागा। जिन लोगों को हिंदू सेना के लोगों ने कैदकर लिया उनमें अफजल खां के दो पुत्र भी सम्मिलित थे। जिनका नाम अंबर तथा रूस्तम जमां था। कुछ ऐसे हिंदू द्रोही और धर्मद्रोही भी पकड़े गये जो भारतीय नामक शिवाजी के विरूद्घ अफजल खां के साथ जा मिले थे। इनमें संण्डोजी खापड़े का और देशमुख का नाम सर्वोपरि है।
यहां से शिवाजी को जो लूट मिली उसके लिए इतिहासकार सभासद लिखता है :-
”65 हाथी, चार हजार घोड़े 12000 ऊंट तीन लाख रूपये के जेवरात, 2000 कपड़े की गांठें तथा सात लाख रूपया नकदी। सब तोपें, बंदूकें तथा अन्य शस्त्र तम्बू आदि भी मिले।”
क्रमश:
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है। -साहित्य संपादक)