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वैदिक संपत्ति : इतिहास, पशु हिंसा और अश्लीलता

पशुयज्ञों के संहिताकालीक न होने का बहुत बड़ा प्रमाण तैत्तिरीयसाहित्य में लिखा हुआ है। लिखा है कि-

यद्दचोsध्यगीषत ताः पय आहुतयो देवानामभवन् ।
यद्यजूषि घृताहुतयो यत्सामानि सोमाहुतयो पदथर्वाङ्गिरसो मध्वाहुतयो यद्ब्राह्मणानि इतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथा नाराशंसीमँदाहुतयो देवानामभवन् । (तैत्तिरीय प्र 3 अ० 6 मं० 3)

अर्थात् ऋग्वेद का पाठ देवताओं के लिए दूध की बाहुतियाँ, यजुर्वेद का घृत की ग्राहुतियाँ, सामवेद का सॉस की ग्राहुतियाँ, अथर्ववेद का मधु की बाहुतियाँ और ब्राहाण, इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा, नाराशंसी यादि का पाठ मेद की ग्राहृतियाँ हैं । यहाँ चारों वेदों का सम्बन्ध दूध, घृत, सोमरस और मधु की आहुतियों के साथ बतलाया गया है, किन्तु वेदों के अतिरिक्त ब्राह्मण और पुराण बादि जितने उत्तरयुगीय शास्त्र हैं, सबका सम्बन्ध मेद अर्थात् चर्बी की आहुतियों के साथ बतलाया गया है। इस प्रमाण से बहुत ही अच्छी तरह प्रमाणित हो जाता है कि पशुयज्ञ संहिता- कालिक नहीं, प्रत्युत तैत्तिरीय अर्थात् रावणादिकालिक है और रावणादि से राजा बसु से पास पहुँचा है तथा (जैसा कि ऊपर कहा गया है) राजा बसु ने आर्यो में प्रचलित कर दिया है।

पशुहिंसा के उत्तरकालीन होने में बुद्ध भगवान् की सर्वोत्कृष्ट साक्षी है। सुत्तनिपात ग्रंथ में लिखा है कि एक बार ब्राह्मणों ने बुद्ध से पूछा कि क्या इस समय ब्राह्मण लोग सनातन धर्म का पालन करते हैं? इस पर बुद्ध ने कहा कि-

अन्नदाता चेता वष्णदासुखदा तथा । एतमत्यवसं अत्वा नारगावो हनिसुते ।।
न पादा न विसारणेन नासु हिंसन्ति केनचि ।
गावो एलक समाना सोरता कुम्भ दूहना ||
ता विसाणे गहेत्वान राजा सत्थेन घातथि ।

अर्थात् पूर्वसमय के ब्राह्मण लोग अन्न, बल, कान्ति और सुख की देनेवाली मानकर गौ की कभी हिसा नहीं करते थे, परन्तु ब्राज घड़ों दूध देनेवाली, पैर और सींग से न मारनेवाली, बकरी के समान सीधी गाय को गोमेव में मारते हैं। इससे स्पष्ट पाया जाता है कि बुद्ध के समय में यह बात अच्छी तरह प्रकट थी कि पूर्वसमय में गो का यज्ञ में वध नहीं होता था। चारवाक स्पष्ट ही कहता है कि ‘मांसानां खादनं तदनिशाचरसमीरितम्’ अर्थात वेदों में मांसमक्षण निशाचरों का मिलाया हुआ है। इससे यह बात और भी दृढ़ हो जाती है कि पशुवध वेदों में नहीं है, यह कृत्य पीछे से राक्षसों के संसर्ग से आया है।

यशों में मांसाहुति और मांसाहार का प्रचार करनेवालों की हिंदूशास्त्रों में बहुत ही अधिक निंदा की गई। है। निन्दा करते हुए कहा है कि पशुयज्ञ नवीन है। महाभारत में लिखा है कि-

श्रूयते हि पुराकल्पे नॄणां व्रीहिमयो पशुः ।

येनायजन्त यज्वनाः पुण्यलोकपरायणाः । (महा० अनु० 115/56)
सुरां मत्सयान्ममसमासवं कृसरोदनम् ।

धूर्तें:प्रवर्तित ह्मेतन्नत्तद् वेदेषु कल्पितम् ।

मानाम्मोहाच्च लोभाच्च लौत्यमेतत्प्रकल्पितम् ॥ (महा० शां० मो० 265/9– 10)

अर्थात् पूर्वकाल में अन्नपशु से ही याज्ञिक लोग यज्ञ करते थे। मद्य, मांस आदि का प्रचार तो लोभी, लोलुप और धूर्तों ने कर दिया है, अतः इसका वेद में कुछ भी जिक्र नहीं है। इसी तरह महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 115 में लिखा है कि ‘नाभाग, अम्बरीष, गय, आयुर्नाथ, अरण्य, दिलीप, रघु, पुरु, नहुष, ययाति, नृग, शशबिन्दु, युवान, शिवि, औशीनर, मुकुन्द, हरिचन्द्र सेनचित्र, सोमक, चूक, रेवत, रन्तिदेव, वसु, सञ्जय, कृपभरत, राम, अलक, विशपाय, निमि, जनक, ऐल, पृथु, वीरसेन, इण्याकु, शम्भु, श्वेत, सगर, अज, धुंधु, सुबाहु, क्षुप मरुत्, एतंश्चान्यैश्य राजेन्द्र पुरा मांसं न भक्षितम् ग्रर्थात् उपयुक्त, समस्त राजाओं तथा धन्य राजाओंने कभी मांस नहीं खाया, इन समस्त प्रमाणों, पुरातन ग्राचारों और ऐतिहासिक साक्षियों से स्पष्ट है कि मांसयज्ञ वेदकालीक नहीं, प्रत्युत मध्यमकालिक है और रावणादि असुर धूतों के प्रचलित किए हुए हैं। किन्तु प्रश्न यह है कि असुरों ने इन्हें कैसे प्रचलित किया ?

यह तो मानी हुई बात है कि असुर और राक्षस मांसाहारी थे। उपयुक्त राजा वसु के इतिहास से प्रकट हो रहा है कि असुरों की सोहबत से ही प्रेरित होकर राजा वसु ने मांसयज्ञ के पक्ष में अपना मत दिया था और अज शब्द के अर्थों के ही कारण मांसयज्ञ का प्रारम्भ हुआ था क्योंकि अज शब्द के दो अर्थ हैं—पुराना धान्य और बकरा । जिस प्रकार राज के दो अर्थ हैं, उसी तरह गो, अश्व, मांस, रुबिर, त्वचा यादि शब्दों के भी दो -दो ,तीन -तीन अर्थ हैं। इन्हीं दूव्यर्थक शब्दों को लेकर ही मांसाहारी असुरों ने पशु यज्ञ का प्रचार कर दिया है। यहाँ हम दुव्यर्थक शब्दों के कुछ नमूने उद्धृत करते हैं-
क्रमशः

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