गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-11
गीता के दूसरे अध्याय का सार और संसार
आजकल पैसा कैसे कमाया जाए और कैसे बचाया जाए?-सारा ध्यान इसी पर केन्द्रित है। आय के सारे साधन चोरी के बना लिये गये हैं, जिससे व्यक्ति उन्हें किसी को बता नहीं सकता, इसलिए उनकी मार को चुप-चुप झेलता रहता है। जितना दिल साफ होता है और जितने आय के साथ पवित्र होते हैं-उतना ही व्यक्ति उन्हें किसी दूसरे के साथ सांझा कर सकता है। यदि ऐसी परिस्थितियों में व्यवसाय आदि में कोई परेशानी आती है तो व्यक्ति उसे भी दूसरों के साथ मिल जुलकर बांट लेता है और दूसरे लोग भी सहर्ष उसकी सहायता कर देते हैं।
आज व्यक्ति ने जिस तरीके से अपनी व्यवसाय आदि को चोरी के साधनों से युक्त किया है उससे व्यक्ति व्यक्ति के मध्य दूरियां बन गयी हैं-सारे शहर में व्यक्ति ही व्यक्ति आपको दिखायी देंगे, पर फिर भी हर व्यक्ति अकेलापन अनुभव करता है। उसे भीड़ भी परायी सी लगती है और काटने को आती है। जिस कारण थोड़ी सी विपरीत परिस्थिति आते ही मनुष्य आत्महत्या की ओर भाग लेता है, क्योंकि उसे भीड़ में कोई अपना नहीं दीखता। वह अपने दु:ख दर्द को किसे बताये? युवा वर्ग में आत्महत्या की यह प्रवृत्ति कुछ अधिक ही होती है।
गीता मनुष्य को इस स्थिति से उबारती है। वह आत्महत्या को धर्म विरूद्घ मानकर पाप घोषित करती है। कृष्णजी युद्घ को छोडक़र या उससे मुंह मोडक़र बैठे अर्जुन को बताने लगे हैं कि यह तेरा पलायनवादी दृष्टिकोण अर्जुन उचित नहीं है। यह धर्म विरूद्घ होने से आत्महत्या के जैसा है। जीवन संघर्ष का नाम है, कत्र्तव्य कर्म को पहचानने का नाम है, उपस्थित चुनौती से जूझने का नाम है, और निज धर्म का पालन करते जाने का नाम है। विपरीत परिस्थितियों को या उपस्थित चुनौतियों को छोडक़र भागना कायरता है।
जब श्रीकृष्णजी ‘कर्मण्मेवाधिकारस्ते…..’ की बात करते हैं तो वह आज के हताश व निराश युवा को बताते हुए जान पड़ते हैं कि तू फटाफट फल प्राप्ति की आशा कर रहा है और फल पर अपना निश्चित एकाधिकार मानकर परीक्षा में अच्छे मनोवांछित अंक न आने पर आत्महत्या कर रहा है-यह तेरा निरा अज्ञान है। तुझे इस प्रवृत्ति से मुक्त होने की आवश्यकता है। तेरा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं है वत्स-फल देने वाली शक्ति तो ईश्वर है। श्रीकृष्ण जी अर्जुन के माध्यम से संसार के प्रत्येक मानव के लिए कालजयी उपदेश कर गये। वह कह गये कि जब फल अनुकूल न मिले तो अपनी आत्मा में बैठे अपने सनातन मित्र और मार्गदर्शक परमात्मा से पूछना कि मेरी ओर से कमी कहां रह गयी? मैंने गलती क्या कर दी या मेरे प्रयास में दोष कहां रह गया?- जो मुझे यह फल मिल गया है। तब परमात्मा तुझे निश्चय ही सन्मार्ग दिखा देंगे और तेरा कल्याण कर देंगे।
श्रीकृष्णजी धर्म मार्ग को अपनाकर चलने में ही मनुष्य का कल्याण देखते हैं। धर्म की नैतिकता को त्यागना ही व्यक्ति की मृत्यु है। आज अर्जुन हथियार फेंककर शत्रुनाश के अपने संकल्प को त्यागकर अपने धर्म की नैतिकता का त्याग कर रहा है। उसकी यह स्थिति निश्चय ही उसके यशरूपी शरीर की मृत्यु कराने वाली है। जिसके लिए वह उसे समझाते हैं कि अर्जुन यदि तू युद्घ करता-करता मारा जाता है तो यह तेरे लिए शुभ होगा क्योंकि ऐसा करने से तुझे स्वर्ग की प्राप्ति होगी। अपनी मृत्यु पर तुझे स्वयं ही प्रसन्नता व गर्व होगा। इसके विपरीत यदि युद्घ से पीठ दिखाता है तो दुर्योधनादि तुझे व्यंग्य बाणों से जीवनभर भेदते रहेंगे। तब उस जीवन पर तुझे स्वयं ही ‘ग्लानि’ का अनुभव होगा। अत: तू उठ और युद्घ कर। प्रसन्नता और गर्व दिलाने वाली मृत्यु को अपना और आत्मग्लानि से भरे जीवन की राह को अपनाने की भूल मत कर। यह ध्यान कर कि तू जिस युद्घ को लडऩे जा रहा है, उससे संसार में दानवतावादी और पराये अधिकारों का हनन करने वाली मनोवृत्तियों पर रोक लग सकेगी और यह संसार स्वर्ग बना रह सकेगा। संसार के कल्याण के लिए और संसार से राक्षसी प्रवृत्तियों के समूल नाश के लिए तुझे उठ खड़ा होना होगा और इस युद्घ को धर्मयुद्घ बनाकर लडऩा होगा। जिससे कि संसार में धर्म का राज्य स्थापित करने में सहायता मिले।
गीता का धर्मयुद्घ और ‘जिहाद’
कुछ लोगों ने गीता के धर्म युद्घ को आजकल के आतंकी संगठनों के ‘जिहाद’ का समानार्थक माना है। वास्तव में जो लोग गीता के ‘धर्मयुद्घ’ और आतंकियों के ‘जिहाद’ को एक जैसा ही मानते हैं वे बहुत ही अज्ञानी हैं। गीता का धर्मयुद्घ और आतंकियों का ‘जिहाद’ दो विपरीत धाराएं हैं। ‘जिहाद’ कभी भी धर्मयुद्घ नहीं हो सकता और धर्मयुद्घ कभी भी ‘जिहाद’ नहीं हो सकता। ‘धर्मयुद्घ’ मानवता के विकास के लिए लड़ी जाने वाली भारत की एक ऐसी परम्परा है जो दुष्टों का और राक्षसों का संहार करना चाहती है, उसमें उन आतंकियों के लिए ये कोई स्थान नहीं है जो संसार में अमन चैन स्थापित नहीं होने देते हैं या जो संसार के अमन चैन को किसी भी प्रकार से बाधित करते हैं। गीता इनका विनाश चाहती है, जिससे कि जनसाधारण को कोई कष्ट ना हो। जबकि ‘जिहाद’ में निरपराध मानवता का रक्त बहाया जाता है। उसमें सर्वत्र हिंसा ही हिंसा है। अकल्याण ही अकल्याण है। विनाश ही विनाश है। जबकि धर्म युद्घ अहिंसा की रक्षार्थ की जाने वाली हिंसा है, ऐसे लोगों के सर्वनाश के लिए किया जाता है जो मानवता के अकल्याण की और विनाश की योजनाएं बना रहे हों, या उन्हें क्रियान्वित कर रहे हों।
बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर जी ने कहा था-”स्वाधीन भारत के बारे में सोचते समय हमें मुस्लिम शासन के आतंक के विषय में भी विचार करना होगा।” (बाबा साहेब डा. अंबेडकर,: संपूर्ण वांग्मय, खण्ड 15, पृष्ठ 272, 275) जब बाबा साहेब ऐसा कहते हैं तो वे भी ‘जिहाद’ के आतंक को मानवतावाद का शत्रु मानकर उसके विरूद्घ गम्भीर उपाय (धर्मयुद्घ) करने की बात कह जाते हैं। उनका मन्तव्य है कि देश का जनसाधारण सदा ही निष्कंटक और भयमुक्त परिवेश में जी सके, शासन को ऐसे उपाय सदा ही करते रहना चाहिए।
धर्मयुद्घ में संसार के प्रत्येक नागरिक को अपना मत स्वेच्छा से पालन करने की पूरी छूट होती है और कहें तो धर्मयुद्घ किया ही इसलिए जाता है कि हर व्यक्ति को अपनी धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त हो और वह अपना संपूर्ण विकास करने में किसी प्रकार की बाधा या प्रतिबन्ध का अनुभव ना करे। जबकि ‘जिहाद’ किसी अपने मत को दूसरे मतों से सर्वोपरि मानने और उसे दूसरों पर बलात् लादने की एक अमानवीय मानसिक प्रवृत्ति का नाम है। गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था-”विश्व भर में दो ऐसे रिलीजन हैं जो कि अन्य सभी रिलीजनों के विरूद्घ विशेष शत्रुता रखते हैं। ये दो हैं- ईसाइयत और इस्लाम। वे केवल अपने मतानुसार अपना जीवन व्यतीत करने में ही सन्तुष्ट नही होते हैं, बल्कि अन्य सभी रिलीजनों को नष्ट करने को कटिबद्घ रहते हैं। इसीलिए उनके साथ शान्ति से रहने का एकमात्र सही उपाय यही है कि उनके रिलीजन में धर्मांतरित हो जाओ।”
(7 आषाढ़ 1329 बंगाब्द को कालीदास नाग के लिखे पत्र से रवीन्द्रनाथ वांग्मय 24 वां खण्ड पृष्ठ 275 विश्व भारती 1982) श्रीकृष्णजी की गीता इस प्रकार के साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों को और साम्प्रदायिक आतंक को मानवता की शत्रु मानती है और उसके लिए प्रत्येक अर्जुन को ललकारती है कि तू पीठ फेरकर रथ के पिछले भाग में मत बैठ, अपितु शत्रु संहार के लिए गाण्डीव संभाल और युद्घ कर।
क्रमश: