गीता के दूसरे अध्याय का सार और संसार
गीता और शहादत
अपनी मजहबी मान्यताओं को संसार पर बलात् थोपने वाले जिहादियों को लालच दिया गया है कि यदि ऐसा करते-करते तुम मृत्यु को प्राप्त हो जाते हो तो तुम शहीद कहे जाओगे। जबकि श्रीकृष्ण जी अर्जुन से इसके ठीक विपरीत बात कह रहे हैं। गीताकार हमें समझाने के लिए तथा विश्व व्यवस्था को उत्तम बनाये रखने के लिए श्रीकृष्ण जी के मुंह से कहलवा रहा है-
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्घाय कृतनिश्चयं।।
श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं कि-”हे कौन्तेय! यदि तू धर्मयुद्घ करता हुआ अर्थात भूलोक में आसुरी प्रवृत्तियों को बढ़ाने वाले दुर्योधनादि जैसे लोगों का संहार करते-करते मर गया तो दूर स्वर्ग को जाएगा और यदि युद्घ जीत गया तो उस स्थिति में तू पृथ्वी का राज भोगेगा। इसलिए हे पार्थ! युद्घ के लिए निश्चय करके उठ खड़ा हो।”
इससे पूर्व श्रीकृष्णजी अर्जुन को समझा चुके हैं कि जैसा युद्घ आज तेरे सन्मुख आ खड़ा है, यह संयोग से ही क्षत्रियों के जीवन में आया करता है। आज दुष्टों का संहार करने के लिए अर्थात निज धर्म का पालन करने के लिए अवसर स्वयं तेरे सामने आ खड़ा है। इसलिए हे पार्थ! यह युद्घ बिना प्रयत्न के अपने आप प्राप्त खुला हुआ स्वर्ग का द्वार है। इसे ऐसा मानकर स्वयं को परम सौभाग्यशाली माना कि तू इस वसुधा को ‘पापमुक्त’ करने का पुण्य अर्जित करने वाला है। जिन्हें इतना बड़ा पुण्य मिल जाता है वे क्षत्रिय जन स्वर्ग के अधिकारी बन जाया करते हैं। यदि तू इस धर्म युद्घ को नहीं करेगा तो तू स्वधर्म और कीर्ति से च्युत हो जाएगा और ऐसी परिस्थिति में तू पुण्य का भागी न बनकर पाप का भागी बनेगा। उस स्थिति में सब लोग तेरे अपयश की बातें करेंगे। वह ऐसा अपयश होगा जो मिटाये नहीं मिट सकेगा और याद रखना कि किसी भी प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए अपयश की प्राप्ति होना उसके लिए मृत्यु से भी अधिक कष्टकारी हुआ करता है। ऐसी स्थिति में लोग तेरे विषय में यही कहेंगे कि तू सही समय आने पर निजधर्म का निर्वाह करने से भाग गया था। इसलिए क्षत्रिय और महारथी लोग भी तुझ पर कायर होने का आरोप लगाएंगे। वे मानेंगे कि तू सही समय पर भय के कारण युद्घ से भाग गया था।
अर्जुन! जो लोग तेरा आज तक सम्मान करते रहे हैं उनकी नजरों में भी तू गिर जाएगा। ऐसी अपमानजनक स्थिति को लाने से पूर्व तेरे लिए यही उत्तम होगा कि तू निज धर्म का पालन करे। तू क्षत्रिय है और युद्घ करना तेरा स्वभाव है।
श्रीकृष्णजी ने अर्जुन को निहित स्वार्थ के लिए राज्य स्थापित कर किन्हीं अपनी मजहबी मान्यताओं को जनसाधारण पर बलात् थोपने का कोई ‘फतवा’ जारी नहीं किया है। इसके विपरीत वह अर्जुन को दुष्टाचारी और उन पापाचारी लोगों का विनाश करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं जो संसार की सुव्यवस्था को अव्यवस्था में परिवर्तित करने के लिए युद्घ जैसी घातक परिस्थिति को पैदा कर चुके हैं। ऐसे लोगों का यदि सामना कर संहार नहीं किया गया तो ये भविष्य में लोगों को और भी अधिक कष्ट पहुंचाएंगे। जिन लोगों ने मजहब के नाम पर लोगों का संहार किया उन्होंने स्वयं आक्रामक बनकर सज्जन लोगों को लूटा और उनकी पत्नियों, माताओं, बहनों और बेटियों का शीलभंग किया। ये लोग स्वयं आक्रामक और आतंकी बन गये। इसके विपरीत कृष्णजी अर्जुन को किन्हीं सज्जन लोगों पर आक्रमण करने के लिए नहीं उकसा रहे हैं-अपितु उन लोगों का विनाश करने के लिए उकसा रहे हैं जो बुराई का प्रतीक बनकर युद्घ के मैदान में आ खड़े हुए हैं।
यहां धर्म का पालन करने से श्रीकृष्णजी का अभिप्राय निज स्वभाव के अनुसार कार्य करने से है। अर्जुन ने बहुत से युद्घ अब तक किये थे और उनमें वह विजयी होकर ही लौटा था। इस प्रकार उसने युद्घ को निज स्वभाव बना लिया था। निज स्वभाव बन जाने से युद्घ अब अर्जुन का निज धर्म भी बन गया था। अत: आज यदि अर्जुन युद्घ से पलायन करता है तो समझो कि वह निज धर्म से ही पलायन कर रहा है और इसका अभिप्राय यह भी होगा कि वह संसार में आसुरी प्रवृत्ति वाले लोगों के सामने हथियार फेंक चुका है।
संसार के लोगों के अपने-अपने स्वभाव हैं। अपने-अपने धर्म हैं। कुछ लोग ज्ञान-विज्ञान की बातें करते हैं, और उन्हीं में रत रहते हैं। ऐसे लोग ब्राह्मण धर्म के होते हैं। इन्हें संसार में ब्राह्मण धर्म की स्थापना के लिए अर्थात ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार और विस्तार के लिए सदा प्रयासरत रहना चाहिए। यदि ये लोग अपने प्रमाद या असावधानी के कारण ज्ञान विज्ञान में घालमेल होने देंगे, या ज्ञान-विज्ञान का हृास होने देंगे तो इससे ये भी पाप के भागी बनेंगे। यह बात संसार में आजकल उन लोगों को सोचनी समझनी चाहिए जो धर्म के नाम पर अपनी दुकानदारी चला रहे हैं और ज्ञान-विज्ञान को भी साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से देखते हैं या उसकी ऐसी व्याख्या करते हैं? ऐसे लोग धर्म के शत्रु हैं और वे संसार में धर्म के मर्म को न जानने के कारण धर्महन्ता बन चुके हैं। उनके ऐसे कार्य के कारण संसार में धर्म की हानि हो रही है। जिस कारण तर्कवाद संसार से सिमट रहा है और यदि तर्क के आधार पर कुछ कहा जाता है तो साम्प्रदायिक तलवारें खिंच जाती हैं।
इस प्रकार भारतीय संस्कृति में तर्क जहां सत्य की खोज का उत्कृष्टतम माध्यम था-वहीं आज वह वाद-विवाद का कारण बन रहा है। संसार को चाहिए कि धर्म की वास्तविकता को समझे और लोगों को तर्क के माध्यम से धर्म की बातों का पालन करने के लिए प्रेरित करे। जिस प्रकार धर्म के ठेकेदारों ने धर्म की परिभाषा के विपरीत आचरण करके धर्म को पतित किया है-उसी प्रकार क्षत्रिय लोगों ने भी धर्म के विपरीत आचरण करने को अपना स्वभाव बना लिया है। लोग देशों की सीमाओं को लेकर लड़ रहे हैं। इसके लिए आतंक का सहारा लिया जा रहा है। निरीह और निरपराध लोगों को मरवाया जा रहा है। पाकिस्तान जैसे देशों की तो सेना भी आतंकवादी हो चुकी है। क्षत्रियों का धर्म निरपराध लोगों की रक्षा करना रहा है। पर आजकल तो रासायनिक युद्घ और उससे भी घातक युद्घ की ऐसी प्रणालियां खोजी जा रही हैं बड़ी संख्या में जो जनसाधारण को मारने वाली हो सकती हैं। सारा चिन्तन इस समय जनसाधारण के विनाश पर केन्द्रित हो गया है। मैदानी युद्घों का समय चला गया है, जब दुष्ट और देवता सामने आकर युद्घ करते थे। अब तो दुष्ट पर्दे के पीछे से देवताओं का संहार कर रहा है। यह दु:खद बात है कि आज का दुष्ट ही क्षत्रिय होने का दम भर रहा है। जिससे स्पष्ट है कि आज का क्षत्रिय भी निज धर्म से च्युत हो चुका है। ऐसे में गीता क्षत्रियों के लिए भी निजधर्म को समझाने वाली हो सकती है।
अब आते हैं वैश्य धर्म पर। वैश्य वर्ग के हाथ में प्राचीनकाल से हमारा आहार-विहार रहा है। कहने का अभिप्राय है कि हमारे लिए खाने पीने की वस्तुओं का उत्पादन और उनकी आपूर्ति वैश्य वर्ग द्वारा की जाती है। अब इस पर कोई अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है कि आजकल के विश्व में जितनी भी प्राणघातक बीमारियां फैल रही हैं, उन सबका कारण ये है कि हमारे लिए खाद्य वस्तुओं और पेय पदार्थों में मिलावट की जा रही है। इसका अर्थ है कि आजकल का वैश्य भी अपने धर्म से विमुख है।
क्रमश: