1947 से पहले की घटना है। अंग्रेजों ने अपने राज को स्थाई बनाने के लिए ईसाई पादरियों को खुले आम सहायता देना आरम्भ किया था। ईसाइयों के इस दुष्चक्र का आर्यसमाज के प्रचारकों ने प्रति उत्तर देना आरम्भ कर दिया। ईसाई मिशनरियों को ऐसे प्रतिरोध की कोई अपेक्षा नहीं थी। इसलिए वे आर्य प्रचारकों से सदा आशंकित रहते थे। ऐसी ही एक घटना पेशावर में घटी। आर्य प्रचारक कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर पेशावर में आर्यसमाज का प्रचार करने गए। उन्होंने ईसाई मिशनरियों के छल-कपट द्वारा धर्मान्तरण की पोल खोल कर ईसाइयों का षड़यंत्र निष्फल कर दिया। जल-भून कर ईसाइयों ने उनकी शिकायत पुलिस में कर दी। उन्होंने गिरफ्तार कर कोर्ट में ले जाया गया। जज ने पूछा तुम कहां के रहने वाले हो। कुंवर सुखलाल ने उत्तर दिया मैं उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूँ। जज ने पूछा कि तो तुम उत्तर प्रदेश से यहां क्या करने आये हो? कुंवर जी ने उत्तर दिया- मैं यहाँ पर वैदिक धर्म का प्रचार करने आया हूँ। जज ने व्यंग करते हुए पूछा। -धर्म प्रचार के लिए तुम इतनी दूर क्यों आये? क्या उत्तर प्रदेश में धर्म प्रचार नहीं हो सकता था? सुखलाल जी ने टपक से उत्तर दिया। व्यापार करने के लिए जब अंग्रेज लोग सात समुन्दर पार से यहाँ हमारे देश में आ सकते हो। इंग्लैंड में व्यापार नहीं सकते। तो मैं उत्तर प्रदेश से पेशावर क्यों नहीं वेद प्रचार करने आ सकता। जज को ऐसे उत्तर की अपेक्षा नहीं थी। अंग्रेजों के काल में ऐसे उत्तर देने वाले को कठोर से कठोर सजा मिलती थी। मगर अंग्रेज जज कुंवर जी के निर्भय उत्तर सुनकर प्रभावित हो गया। उन्हें केवल पेशावर छोड़ने का आदेश देकर जज चुप हो गया।
स्वामी दयानंद के आदर्श शिष्य कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर की वैदिक धर्म में दृढ़ आस्था उनकी निर्भयता का प्रमुख कारण था।