महाराणा क्षेत्र सिंह से महाराणा मोकल सिंह तक
महाराणा हमीर सिंह के देहांत के पश्चात उनके पुत्र महाराणा क्षेत्र सिंह ने सत्ता भार संभाला। महाराणा हमीर सिंह ने बहुत अधिक सीमा तक मेवाड़ को एक सुव्यवस्थित राज्य में परिवर्तित करने में सफलता प्राप्त की थी। इस प्रकार महाराणा क्षेत्र सिंह को एक सुव्यवस्थित विरासत उत्तराधिकार में प्राप्त हुई। महाराणा क्षेत्र सिंह को इतिहास में राणा खेता सिंह के नाम से भी जाना जाता है। महाराणा क्षेत्र सिंह ने मेवाड़ पर 1364 ई0 से 1382 ई0 तक अर्थात कुल मिलाकर 18 वर्ष तक शासन किया। अपने पिता के पदचिह्नों का अनुकरण करते हुए महाराणा क्षेत्र सिंह ने अपने राज्य विस्तार की ओर भी ध्यान दिया। अपने इसी विचार से प्रेरित होकर महाराणा ने राजा बनते ही अजमेर पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया। इस प्रकार अजयमेरु नाम की यह रियासत उस समय मेवाड़ का एक हिस्सा बन गई। इस जीत से महाराणा क्षेत्र सिंह को विशेष ख्याति प्राप्त हुई।
राणा की ख्याति बढ़ी , बढ़ा खूब प्रताप।
प्रजा भी प्रसन्न थी, हरे सभी संताप।।
इतिहास में राणा क्षेत्र सिंह की अजमेर विजय को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। अपने विजय अभियान को जारी रखते हुए महाराणा क्षेत्र सिंह ने मेवाड़ के विस्तार को बढ़ाकर बिजोलिया और भीलवाड़ा को भी अपने अधीन कर लिया। इससे राणा की शक्ति में और भी अधिक वृद्धि हो गई।
जब अजमेर मेवाड़ का हिस्सा बना तब मेवाड़ का एक युवराज पृथ्वीराज सिंह सिसोदिया अजमेर पहुंचा और अजय मेरु दुर्ग के चारों तरफ उसने एक परकोटा बनाया। इस दुर्ग का नाम उस समय तारागढ़ रख दिया गया। एकलिंग नाथ प्रशस्ति से पता चलता है कि महाराणा क्षेत्र सिंह ने हाडा राजवंश के राजा को भी पराजित करने में सफलता प्राप्त की थी। इस राजवंश के किसी राजा को पराजित करने वाले वह मेवाड़ के प्रथम शासक थे। धीरे-धीरे पूरा हाड़ौती क्षेत्र राणा क्षेत्र सिंह ने विजय कर लिया था। जिससे उनके प्रभाव में द्विगुणित वृद्धि हो गई।
हमें इतिहास में हमारे राजाओं की इस प्रकार की विजय यात्राओं को इस प्रकार दिखाया जाता है कि जैसे वे परस्पर शत्रु भाव से लड़ते झगड़ते थे। उनमें ईर्ष्या भाव इतना अधिक बढ़ गया था कि वह किसी भी समय एक दूसरे को मित्र मानने को तैयार नहीं होते थे। जबकि दिल्ली सल्तनत काल से लेकर मुगल काल और अंग्रेजों के शासन काल में जब मुस्लिम या अंग्रेज अपने राज्य विस्तार के लिए निकलते थे तो इस पर चाटुकार इतिहासकार मौन हो जाते हैं। उन विदेशी शासकों के इस प्रकार के अभियानों को उनकी महत्वाकांक्षा के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। इतने से भाव से ही भारत के इतिहास में बहुत भारी मिलावट हो जाती है। जहां पाठक विजयाभिलाषी अपने हिंदू शासकों को घृणा की दृष्टि से देखने लगता है, वहीं वह मुस्लिम और अंग्रेज शासकों को एक महत्वकांक्षी शासक के रूप में देखने लगता है। इस प्रकार की मिलावट से पाठक के मन मस्तिष्क में अपनों के प्रति उपेक्षा भाव और विदेशी शासकों के प्रति सम्मान के भाव में वृद्धि होती है।
महाराणा क्षेत्र सिंह ने मालवा का क्षेत्र जीत कर भी अपने अधीन कर लिया था। महाराणा क्षेत्र सिंह का समकालीन मुस्लिम शासक दिलावर खान उस समय मालवा का शासक था। महाराणा ने मालवा को अपने अधीन करने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया। महाराणा क्षेत्र सिंह के रण कौशल और युद्ध कौशल के सामने दिलावर खान अधिक देर तक रुक नहीं पाया और उसे मैदान छोड़कर भागना पड़ा। यद्यपि मेवाड़ और मालवा की शत्रुता के भाव का भी श्रीगणेश यहां से हो गया था जो आगे भी हमें दिखाई देता रहा। दिलावर खान को महाराणा क्षेत्र सिंह के सामने विजय तो मिली ही नहीं , पर इस युद्ध में उसे मृत्यु अवश्य प्राप्त हो गई। महाराणा क्षेत्र सिंह की खातीन नाम की एक दासी थी। उस दासी से दो पुत्र हुए थे । जिनमें से एक का नाम चाचा और दूसरे का मेरा था। उनकी अपनी रानी से पैदा हुए राणा के पुत्र का नाम लाखा था।
सन 1382 में हाडोती के हाडा शासकों को पराजित करने के पश्चात बूंदी के शासक लाल सिंह के साथ महाराणा का एक भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध इतना भयंकर था कि यह समझ नहीं आ रहा था कि युद्ध में जय पराजय किसकी होगी ? दोनों पक्ष के योद्धा एक दूसरे पर भूखे शेर की भांति टूट पड़े थे। बड़े दुर्भाग्य की बात थी कि दोनों ही शासक अपनी ही शक्ति का नाश कर रहे थे, आप अपने ही सजातीय भाइयों का संहार कर रहे थे। इस युद्ध का बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह निकला कि इसने बूंदी के शासक लाल सिंह और मेवाड़ के शासक महाराणा क्षेत्र सिंह दोनों के ही प्राण ले लिए। महाराणा क्षेत्र सिंह युद्ध के मैदान में लड़ते लड़ते बलिदान हो गए। उनके बलिदान के साथ मेवाड़ के सूर्यास्त हो गया। महाराणा क्षेत्र सिंह का अवसान उस समय भारत के लिए बहुत ही अधिक दुख का विषय था। यह 1382 ई0 की घटना है।
क्षेत्र सिंह के पश्चात उनके पुत्र महाराणा क्षेत्र सिंह के पश्चात उनके पुत्र लाखन सिंह ने मेवाड़ पर शासन किया। उनके पुत्र लाखन सिंह का शासनकाल 1382 ईस्वी से 1421 ईस्वी तक रहा। महाराणा लाखा सिंह ने भी अपने पिता की भांति राज्य विस्तार पर ध्यान दिया था। इनके जेष्ठ पुत्र चूड़ा ने उस समय विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा की थी। इस प्रतिज्ञा पर वह खरा भी उतरा। महाराणा के पुत्र मोकल को राज्य का उत्तराधिकारी मानकर जीवन भर उसकी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा।
महाराणा मोकल सिंह ( 1421-1433 ई०)
महाराणा मोकल सिंह का मेवाड़ के इतिहास में विशेष स्थान है। इन्होंने चित्तौड़गढ़ में एक राजा के रूप में रहकर मेवाड़ राज्य के गौरव में अभिवृद्धि की। इतिहासकारों ने इनका जन्म 1397 ई0 में होना माना है। इनका राज्यारोहण 1421 ई0 में हुआ था। उनके पिता का नाम राणा लाखा सिंह और माता का नाम हंसाबाई था। आबू की परमार राजकुमारी सौभाग्य देवी से इनका विवाह हुआ था। इनका शासनकाल 1421 ईस्वी से 1433 ईस्वी तक रहा। उस समय दिल्ली पर सैयद वंश का शासन था। सैयद वंश के शासकों के नेतृत्व में मुस्लिम साम्राज्य शेष भारत में जितने पैर फैलाना चाहता था उसको रोकने में महाराणा मोकल सिंह का विशेष योगदान रहा। उनका यह परम प्रतापी कार्य भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य है।
कुंभलगढ़ के अभिलेख से हमको पता चलता है कि “मोकल ने सयादलक्ष को नष्ट कर दिया तथा जालंदर वालों को कंपायमान कर दिया। शाकंभरी को छीनकर दिल्ली को संशययुक्त कर दिया।”
इस अभिलेख में उल्लिखित इस तथ्य का अनुमान इतिहासकारों ने यह लगाया है कि उसने शाकंभरी (अजमेर के निकटवर्ती भू-भाग) को दिल्ली के शासक के आधिपत्य से छीन लिया। महाराणा के इस कार्य से निश्चय ही मुस्लिम शक्ति को उस समय ठेस पहुंची होगी और उसकी शक्ति भी क्षीण हुई होगी।
महाराणा ने नरेना, सांभर तथा डीडवाना को भी अपने अधिकार में ले लिया था। महाराणा की शक्ति में निरंतर वृद्धि हो रही थी जिससे मुस्लिम शासकों को कष्ट होना स्वाभाविक था। उस समय गुजरात पर सुल्तान अहमद शाह का शासन था। वह महाराणा की बढ़ती हुई शक्ति को पसंद नहीं कर रहा था। उसे पता था कि महाराणा की शक्ति एक दिन उसका भी विनाश कर देगी। इसका कारण केवल एक था कि महाराणा स्वसंस्कृति, स्वदेश, स्वराष्ट्र, स्वधर्म, स्वराज के प्रति समर्पित था और उनके सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली किसी भी शक्ति को वह पसंद नहीं करता था। यही कारण था कि अपने भविष्य को असुरक्षित अनुभव करते हुए गुजरात के सुल्तान अहमदशाह ने महाराणा मोकल सिंह को समय रहते कुचल देना उचित माना। अपनी इसी प्रकार की मनोभावना और ईर्ष्या भाव से प्रेरित होकर सुल्तान अहमद शाह ने 1433 ईस्वी में चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी।
महाराणा मोकल सिंह भी चुनौतियों से भागने वाले नहीं थे। जब उन्हें इस बात की सूचना मिली कि गुजरात का सुल्तान अहमद शाह चित्तौड़ पर चढ़ाई करने के लिए आ रहा है तो उन्होंने भी अपनी सैन्य तैयारी आरंभ कर दी। जैसे ही सुल्तान अहमद शाह की सेना मेवाड़ की सीमाओं में प्रविष्ट हुई तो महाराणा ने अपना सैन्यदल सजाकर रणभूमि की ओर प्रस्थान किया। यह एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि महाराणा मोकल सिंह के साथ उसी के लोगों ने विश्वासघात किया ।
इन लोगों में महाराणा भूपल सिंह की दासी से उत्पन्न पुत्र चाचा व मेरा के साथ साथ महपा परमार की मुख्य भूमिका थी।
सुल्तान अहमद शाह उस समय मेवाड़ के कुछ क्षेत्र में अपना आतंक और अत्याचार मचा कर लौट गया था। उसने अपने निजी क्षेत्र में अमीर सुल्तानी को अपना राज्यपाल नियुक्त कर दिया था। इस प्रकार अपने ही विश्वासघाती लोगों के कारण महाराणा मोकल सिंह के द्वारा जिस विजय अभियान को आरंभ किया गया था उस पर पूर्ण विराम लग गया । इससे चित्तौड़गढ़ के सम्मान को ठेस पहुंची।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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मुख्य संपादक, उगता भारत