डॉ डी के गर्ग
विशेष
वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें अपने पूर्वजों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टि से समय समय पर ऋतू अनुसार पर्व निर्धारित किये ताकि स्वास्थ रक्षा के अतिरिक्त सामाजिक एकता और मनोरंजन भी उपलब्ध हो। होली के त्यौहार की तो मस्ती इतनी अधिक होती है कि लोग इसके वैज्ञानिक कारणों से अंजान रहते हैं। होली के त्यौहार से से पूर्व शिशिर ऋतु की समाप्ति होती है तथा बसंत ऋतु का आगमन होता है। प्राकृतिक दृष्टि से शिशिर ऋतु के मौसम की ठंडक का अंत होता है और बसंत ऋतु की सुहानी धूप पूरे जगत को सुकून पहुंचाती है।इसलिए अत्यंत प्रसन्नता का वातावरण चारो ओर होता है।
सच्चाई यह है की होली पर्व इस सृष्टि के प्रारम्भ होने के साथ ही शुरू हो चुका था क्यों की इसका मूल कारण कोई व्यक्ति विशेष या घटना विशेष नहीं है, जब की मूल कारण है नई फसल का आगमन है और उस फसल के स्वागत व खुशी को व्यक्त करने के लिए कृषक (किसान) जो मिलन का आयोजन करता है वह उत्सव कारण है | सबके साथ मिलकर ईश्वर का धन्यवाद करने के लिए विशेष यज्ञ का आयोजन होता है जिसमें नई फसल से आये अन्न को यज्ञ-अग्नि में डाला जाता है और फिर सब उसका अपने अपने घर पर उपभोग करते हैं | इस यज्ञ को वसन्त (वासन्ती) नवसस्येष्टि कहते हैं |
नवसस्येष्टि = (नव=नवीन+सस्य=फसल वा खेती + इष्टि=यज्ञ, अर्थात् नवीन फसल के अन्न का यज्ञ) करने का विधान है। वासन्ती का अर्थ है वसन्त ऋतू में किया जाने वाला यज्ञ |
यज्ञ का अर्थ ही होता है देवपूजा-संगतिकरण-दान | होली के दिन कृषक यज्ञ करता है अर्थात् उस परमात्मा को धन्यवाद देता है जिसने उसके परिश्रम में साथ दिया अर्थात् समय पर धूप दी जिससे अनावश्यक कीड़े मरे, दानों का पोषण हुआ उस परमात्मा का धन्यवाद कर देवपूजा होती है | सारे किसान परस्पर मिल कर यज्ञ करते हैं जो संगतिकरण है और समाज के गरीब वर्ग को अन्न का दान देकर यज्ञ की परिभाषा को आज के दिन सार्थक किया जाता है |
मूल रूप में हमारे यहाँ दो फसल होती हैं :-
(१) रवि
(२) खरीफ |
जैसे ये दो फसलें आज होती हैं वैसे ही श्री हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष, होलिका व प्रहलाद जी के युग में भी होती थीं और उनके पूर्वजों के युग में भी | हिरण्यकश्यप या हिरण्याक्ष के गुरुओं के पूर्व भी यह फसल आती थी और उत्सव मनाया जाता था |
ये सब ने भी नवसस्येष्टि किया था क्यों की उस काल में भी अन्न इसी ऋतू में होता था और आगे भी होता रहेगा |
इस पर्व का सम्बन्ध किसी प्रकार से किसी-व्यक्ति-विशेष से या घटना विशेष से नहीं है
यह पर्व हिन्दू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व बसंत का संदेश वाहक भी है। प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाएं जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम है।इस दिन लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजाकर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है।
इस दिन खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक सुगंध छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं।
पर्व का नाम होली :
इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है।
यथा–
तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष) अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह।(भाव प्रकाश)
अर्थात्―तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो-धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है।
(ब) होलिका―किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं-जैसे-चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते हैं कि वह चनादि का निर्माण करती (माता निर्माता भवति) यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पट पर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना-मटर) को बचा लिया।
(स) अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम होलिकोत्सव है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है। यथा―वासन्तो=वसन्त ऋतु। नव=नये। येष्टि=यज्ञ। इसका दूसरा नाम नव सम्वतसर है। मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है―(1) वैशाखी, (2) कार्तिकी। इसी को क्रमश: वासन्ती और शारदीय एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। अब तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं। अत: परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करें, कैसे सम्भव है। तो कहा गया है–
अग्निवै देवानाम मुखं अर्थात् अग्नि देवों–पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा।
हमारे यहाँ चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है। वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं―(1) आषाढ़ मास, (2) कार्तिक मास (दीपावली) (3) फाल्गुन मास (होली)
यथा फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी II
अर्थात् फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं आग्रहाण या नव संस्येष्टि।
*समीक्षा―आप प्रतिवर्ष होली जलाते हो। उसमें आखत डालते हो जो आखत हैं–वे अक्षत का अपभ्रंश रुप हैं, अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को आहुति कहते हैं। कुछ भी हो चाहे आहुति हो, चाहे चावल हों, यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है। आप जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है। क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है। आपकी इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष सामूहिक यज्ञ की परम्परा रही होगी इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे। आप जो गुलरियाँ बनाकर अपने-अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हो। यह प्रक्रिया छोटे-छोटे हवनों की है। सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने-अपने घरों में हवन करते थे। बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल सामूहिक यज्ञ होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थे दूसरा कारण यह भी था।
ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते―अर्थात् ऋतुओं के मिलने पर रोग उत्पन्न होते हैं, उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थे। यह होली शिशिर और बसन्त ऋतु का योग है। रोग निवारण के लिए यज्ञ ही सर्वोत्तम साधन है। अब होली प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझ गये होंगे कि होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है।
वैदिक काल में इस पर्व को बसंतीय नवसस्येष्टि पर्व कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।
पौराणिक कथा इस प्रकार है―होलिका हिरण्यकश्यपु नाम के राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का प्रह्लाद नाम का आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे। वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्यौहार मनाया जाता है जो नितान्त मिथ्या है।