भारत के राष्ट्रनायकों और इतिहास पुरूषों के साथ जो अन्याय हमारे इतिहासकारों और आज तक के दुर्बल नेतृत्व ने किया है, संभवत: उसी के विषय किसी कवि ने कितना सुंदर कहा है-
”धरती की सुलगती छाती के
बेचैन शरारे पूछते हैं,
जो लोग तुम्हें दिखला न सके,
वो खून के धारे पूछते हैं
अंबर की जुबां सुबकती है
सागर के किनारे पूछते हैं,
ऐ रहबरे मुल्क, औ कौम बता
ये किसका लहू है, कौन मरा।”
चढ़ते सूर्य को सभी नमस्कार किया करते हैं। शिवाजी के ग्रह अनुकूल चल रहे थे। उनका उत्थान हो रहा था, इसलिए उत्थान के उत्सव के उत्साह के सामने हर किसी का साहस टिके रहने का नही हो रहा था। अत: बहुत से लोगों ने शिवाजी की शक्ति का लोहा मानना आरंभ कर दिया था। अफजल खां के अंत के पश्चात तो यह प्रक्रिया और भी तीव्र हो गयी थी। जाधव, पांढरे, खराटे सिददी, हिलाल आदि वीर योद्घा शिवाजी की पताका को शीश झुकाने लगे। 28 नवंबर 1659 तक शिवाजी ने और भी कई दुर्ग जीत लिये थे। शिवाजी का चढ़ता सूरज और चढ़ता यौवन दोनों ही उनके शत्रुओं को चिढ़ाने का काम कर रहे थे।
अली आदिलशाह को पड़ गया भागना
अली आदिलशाह ने शिवाजी की चुनौती का सामना करना चाहा। वह अब यह समझ गया था कि दक्षिण का बेताज बादशाह शिवाजी बनता जा रहा है और यदि इसे रोका नहीं गया तो उसका अपना ताज भी संकट में पड़ सकता है। उसने मुगलों से अपने शत्रु के विरूद्घ सहायता मांगी तो वहां से भी उसे तुरंत सहायता मिल गयी। 28 दिसंबर 1659 को शिवाजी और आदिलशाह की सेनाओं में घोर संग्राम हुआ। शिवाजी की ओर से जिन रणबांकुरों ने भारतमाता के ऋण से उऋण होने के लिए संग्राम में भाग लिया, उनमें प्रमुख थे नेताजी पालकर, भीमजी हिराजी, इंगले, महाडीक पवार, जगताप, पांडेर सिद्दी, हिलाल इत्यादि। जबकि आदिलशाह की ओर से रूस्तम जमां और फजल खां ने सेना की डोर संभाली। शिवाजी ने नेताजी पालकर को बता दिया था कि तुम्हें फजल खां पर आक्रमण करना है। भीमजी बाघ को मुल्ला याहिया पर हमला करना है, इसी प्रकार अन्य योद्घाओं को युद्घ में मोर्चा लेने का औचित्य और स्थान समझा दिया गया।
युद्घ प्रारंभ हो गया। रणनीति के अंतर्गत मराठों ने युद्घ को कुछ ही देर में अपना अनुचर बना दिया। युद्घ का परिणाम दिखाई देने लगा कि बीजापुर की सेनाएं अधिक समय तक युद्घभूमि में रूक नहीं पाएंगी। बीजापुर के सैनिकों को भारी क्षति उठानी पडऩी आरंभ हो गयी, जिससे कुछ ही समय में बीजापुर की सेना को रण छोडक़र भागना पड़ गया। अली आदिशाह को इस पराजय से भारी ठेस लगी। पर इसका स्पष्ट संकेत दिल्ली की मुगल बादशाहत के लिए भी चला गया कि उनके लिए अब समय अनुकूल नहीं है। अत: यदि अब शिवाजी को रोका नहीं गया तो भविष्य में वह कुछ भी कर सकता है।
कुडाल दुर्ग की जीत
अब शिवाजी की सेवाओं ने कुडाल दुर्ग को जीता, इस किले को उन्हें छोडऩा पड़ गया और इसे रूस्तम जमां ने जीत लिया। शिवाजी को घेरने के लिए पन्हाला के लिए करनूल के सिद्दी जौहर को भेजा गया जिसके साथ 20 हजार घुड़सवार सेना तथा 40 हजार पैदल सेना थी। 2 मार्च 1660 को शिवाजी पन्हाला पहुंच गये। सिद्दी जौहर ने उन्हें घेर लिया। शिवाजी की सेना को छह मील पीछे हटना पड़ गया। इस प्रकार बीजापुर बच तो गया पर उसे यह अनुभव अवश्य हो गया कि शिवाजी की शक्ति को कम करके आंकना मूर्खता होगी।
अपने लोग देते रहे धोखा
शिवाजी के लिए परिस्थितियां जटिल थीं, अपने लोग भी शत्रु का साथ दे रहे थे। सिद्दी जौहर के साथ पाली के राजा जसवंतराव, श्रंगारपुर के राजा सूर्याजीवराव जैसे कई राजा उनके विरोध में खड़े थे। तब उन्होंने अपनी नीतियों में परिवर्तन करने पर विचार आरंभ किया। शिवाजी ने पन्हाला किला आदिलशाह को दे दिया। उधर शाइस्ताखां धीरे-धीरे शिवाजी के किलों को निगलने लगा। वह तेजी से शिवाजी के सूबों पर अपना अधिपत्य स्थापित करता जा रहा था। इससे शिवाजी के भी कुछ लोग टूटकर मुगलों के साथ जाकर मिलने लगे। आदिलशाह के कहने से श्रंगारपुर के राजा सूर्यराव ने संगमेश्वर में आकर शिवाजी से जमकर युद्घ किया।
तानाजी मालुसरे ने देशद्रोही और जातिद्रोही सूर्यराव की सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। सूर्यराव का यह कृत्य शिवाजी को अच्छा नहीं लगा था। अत: वह देशद्रोही और जातिद्रोही हिंदू शासक सूर्यराव को उसके कृत्य का फल चखा देना चाहते थे। उन्होंने 19 अप्रैल 1661 को भारी सैन्य बल के साथ श्रंगारपुर पर आक्रमण कर दिया।
सूर्यराव के लिए यह अप्रत्याशित घटना थी, उसके देशद्रोही आचरण के कारण अब उसे बचाने के लिए भी कोई नहीं आया। शिवाजी ने सूर्य को श्रंगार का शृगाल बनाकर पीटना आरंभ कर दिया। किसी भी प्रकार की कोई संभावना न देखकर सूर्यराव भाग खड़ा हुआ। शिवाजी ने श्रंगारपुर के निकट के दुर्ग का नाम प्रतापगढ़ रखा।
शाहस्ता खां भी भाग गया
शाइस्ताखां शिवाजी के प्रति कुछ प्रारंभिक सफलताएं पाकर बड़ा उत्साहित था। इसलिए शिवाजी के लिए स्वाभाविक रूप से उसे पाठ पढ़ाना अनिवार्य होता जा रहा था। यह वीरता की प्रतिद्घंद्घिता का युग था, पर यह भी सच है कि न्यायपूर्ण वीरता का सामना क्रूरतापूर्ण वीरता से था। क्रूरतापूर्ण वीरता न्यायपूर्ण वीरता को मिटाकर अन्याय का साम्राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, जिसे न्यायपूर्ण वीरता उखाड़ फेंकना अपना राष्ट्रीय कत्र्तव्य और दायित्व समझ रही थी, निस्संदेह शिवाजी इसी न्यायपूर्ण वीरता के प्रतिनिधि नायक बन चुके थे। अत: उनके लिए भला यह कैसे संभव था कि वह शाइस्ता खां जैसे व्यक्ति को अपने लक्ष्य में बाधक बना देखकर भी सहन कर पाते।
5 अप्रैल 1663 को शिवाजी ने शाइस्ता खां के विरूद्घ युद्घ की घोषणा कर दी। बड़ा भारी आक्रमण उनकी ओर से शाइस्ताखां पर किया गया। शाइस्तांखा उन दिनों पूना पर तीन वर्ष से घेरा डाले पड़ा था। शिवाजी ने 5 अप्रैल की रात्रि में अचानक अपने कुछ विश्वसनीय साथियों के साथ शाइस्ताखां की छावनी में आक्रमण किया। जिसमें शाइस्ता खां का युद्घ फतेह भी मार डाला गया। कहा जाता है कि स्वयं शाइस्तांखा की अंगुलियां भी कट गयी थीं, इस युद्घ में उसके दर्जनों अंगरक्षक छह पत्नियां और कई सेनापति मारे गये।
शिवाजी की आक्रमण करने की योजना इतनी गोपनीय और विवेकपूर्ण चतुराई से पूर्ण की गयी थी कि शत्रु को तनिक भी भनक नहीं लगी और वे ऐसी आपत्ति में फंस गये कि उसे युद्घभूमि से भागकर औरंगाबाद में जाकर शरण लेनी पड़ी थी। उसे शीघ्र ही ज्ञात हो गया था कि शिवाजी के रूप में संभवत: अब साक्षात शंकर जी अपना ‘तांडव नृत्य’ प्रस्तुत कर रहे हैं।
खफी खां ने इस युद्घ में शिवाजी के सैनिकों की संख्या केवल 400 मानी है। पर वह कहता है कि मुगल जासूसों से ही शिवाजी ने मुगलों की दुर्बलताओं का पता लगा लिया था। इस प्रकार शिवाजी ने पूरी योजना बनाकर शाइस्ताखां को परास्ता किया। मुगल सेना में भगदड़ मच गयी।
शाइस्ताखां अपने घावों को अभी सहला ही रहा था कि मई 1663 ई. में ही शिवाजी ने कुडाल पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। जिस पर गोआ के वायसराय ने भी शिवाजी को बधाई दी थी।
देशभक्ति का आदर्श नमूना
शिवाजी की देशभक्ति की उत्कृष्टता को प्रकट करने वाला उनका एक पत्र है जो उन्होंने मुगल अधिकारियों के लिए लिखा था।
वह लिखते हैं-”मुगलों के खबर देने वाले गलत खबरें भेज रहे हैं कि मेरे सूबे उन्होंने जीत लिये हैं। यह जमीन इतनी मुश्किल है और यहां के किलों पर घोड़ों से चढ़ पाना भी असंभव है, ऐसी स्थिति में ये आपके खबरनवीस अपने खयाली घोड़े दौड़ा रहे हैं। यहां साठ किले हैं, कई समुद्र किनारे हैं। यहां अफजल खां और शाइस्ताखां मार खा चुके हैं। शाइस्ताखां तो तीन साल तक कोशिश कर रहे थे, पर कुछ न हुआ। अपनी मातृभूमि की रक्षा करना मेरा कत्र्तव्य है। मुझ पर ईश्वरीय कृपा है। यहां हमला करने वाला कभी सफल नहीं हो पाया।”
स्वयं आलमगीरनामा में लिखा है कि बावजूद सारी कोशिशों के मुगलों को एक भी किला नही मिल सका और मराठों के खिलाफ उनका अभियान छीजता ही गया।
1664 की जनवरी में शिवाजी ने सूरत पर अचानक आक्रमण कर दिया। वहां का मुगल अधिकारी इनायत खान था। वह शिवाजी के आने की सूचना से ही इतना भयभीत हुआ कि भागकर किले में छुप गया। शिवाजी के साथ दस हजार की सेना थी। यहां से शिवाजी को बड़ी मात्रा में लूट का सामान मिला। मुगल फौज ने अपनी तोपों से शत्रु का सामना किया, किंतु उसे सफलता नहीं मिल सकी। सूरत शहर को व्यापक विनाश का सामना करना पड़ा। पर शिवाजी यहां से सफल होकर ही लौटे। जब सूरत का सूबेदार किले से बाहर आया तो स्थानीय लोगों ने भी उस पर कीचड़ फेंककर अपना आक्रोश व्यक्त किया था।
शिवाजी की बौद्घिक चतुरता
शिवाजी ने अपने जीवन में हर पग पर बौद्घिक चातुर्य का प्रदर्शन किया और उन्हें अपनी इस कला से आशातीत लाभ भी प्राप्त हुआ। उन्होंने डच और अंग्रेजों से इस समय कोई शत्रुता मोल नहीं ली। इसलिए कि एक ही समय में चारों ओर शत्रु उत्पन्न करना बुद्घिमत्ता नहीं होती है। डच और अंगरेज भी समझ रहे थे कि दक्षिण में शिवाजी का पलड़ा भारी है इसलिए उन्होंने भी शिवाजी को चुनौती देकर या उनके स्वाभिमान को आहत करके कोई ऐसा कोई अभी तक नहीं किया, जिससे व्यर्थ में ही शत्रुता बढऩे की संभावना हो।
पिता का हो गया देहांत
शिवाजी के पिताजी शाहजी 23 जनवरी 1664 को शिकार पर गये हुए थे, वहीं घोड़े से गिरकर उनका देहांत हो गया। जब शिवाजी सूरत से लौटे तो वहां की विजय को वह पिता के वियोग के शोक में भूल गये। पिता शाहजी के विषय में शिवाजी के विचारों को लेकर लोगों की अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। पर यह सच है कि शाहजी अपने पुत्र के स्वराज्य प्रयासों से न केवल सहमत थे, अपितु उसके लिए प्रेरणा स्रोत भी थे। अफजलखां की नीचता को समझकर शाहजी भी उससे लडऩे के लिए एक सेना लेकर चल दिये थे। बस, शिवाजी के लिए केवल एक बात ही असहनीय थी कि उनके पिता बीजापुर के आधीन रहना पसंद करते थे। उनकी पराधीनता की यह स्वाभिमान बेचने वाली भावना ने शिवाजी के भीतर स्वराज्य के विद्रोही भाव उत्पन्न किये। पर उन्हें पिता के प्रति कभी भी हिंसक या अमर्यादित नही होने दिया। यही कारण था कि पिता से असहमत होकर भी उनके प्रति विनम्र और श्रद्घालु रहने वाले शिवाजी को पिता के वियोग का असीम दुख हुआ।
राष्ट्रवाद झलकता था हर निर्णय में
शिवाजी भारतीय राष्ट्रवाद के उन्नायक थे। उनके हर निर्णय और हर कार्य में राष्ट्रवाद झलकता था। अक्टूबर 1664 ई. में उन्होंने बीजापुर से खवासखान की सहायता के लिए आये बाजी घोरपड़े की सेना को परास्त कर भगा दिया था। बाजी घोरपड़े को अपने भी प्राण गंवाने पड़ गये।
भारत का राष्ट्र निर्माता शिवाजी इस जीत से अपने साम्राज्य का और भी अधिक विस्तार करने में सफल रहा। पुर्तगाली इतिहासकारों का कहना है कि शिवाजी ने डिचोली रामबाग लिए और दक्षिण कोंकण में फोंडा को छोडक़र शेष सारा भाग प्राप्त कर लिया। इसके अतिरिक्त आठ लाख सोने के सिक्के और खवासखान से तथा 20 लाख सोने के रूपये लूट से प्राप्त हुए।
दिसंबर 1664 ई. में शिवाजी ने सिंधुदुर्ग नामक मालवण के पास के समुद्री किनारे पर एक किले की स्थापना की। इसके नाम से ही पता चल जाता है कि यह समुद्री किनारे पर था, पर यह शिवाजी के राष्ट्र और संस्कृति प्रेम को झलकाने वाला तथा उनकी दूरदृष्टि को स्पष्ट करने वाला निर्णय भी था। इससे उनकी नौसेना को एक सुरक्षा कवच उपलब्ध हो गया।
इधर के क्षेत्र में विस्तार लेते शिवाजी ने कर्नाटक के बसरूर क्षेत्र पर हमला कर उसे लूटकर लगभग 8 करोड़ रूपया प्राप्त किये। यद्यपि डच इतिहासकार इस लूट में केवल 30,000 रूपया प्राप्त होना ही लिखते हैं।
जयसिंह ने बिछाया जाल
शिवाजी के लिए अपनों से मिलने वाली चुनौतियां समाप्त होने का नाम नही ले रही थीं। उन्हें हर कदम पर छल और षडय़ंत्रों का जाल बिछा हुआ दिखायी देता था। ऐसी परिस्थितियों में जयपुर का राजा जयसिंह शिवाजी के विरूद्घ रण क्षेत्र में उतर आया। वह औरंगजेब का कृपापात्र था और इसीलिए अपने आपको बादशाह की दृष्टि में और भी अधिक ऊंचा स्थापित करने के लिए शिवाजी को परास्त करने के उद्देश्य से दक्षिण की ओर बढ़ा। उसने शिवाजी के अधिकारियों को बड़ी राशि रिश्वत में देकर उन्हें अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया। ‘हफत अंजुमन’ में रखे पत्रों में जयसिंह और औरंगजेब के मध्य हुए तत्कालीन पत्राचार से इस तथ्य का पता हमें चलता है।
शिवाजी और जयसिंह का युद्घ
जयसिंह ने बड़ी भारी-भारी तोपों और विशाल सैन्य-दल के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। पूना से पासवड़ पहुंचने में जयसिंह को 15 दिन का समय लगा। 29 मार्च 1665 को युद्घ हुआ। मराठों ने पुरंदर की ओर बढ़ जाने का निर्णय लिया। जयसिंह के साथ दिलेर खां भी युद्घ में उपस्थित था, उसने किले के ऊपर स्थित कुछ झोंपडिय़ों में आग लगा दी। दिलेरखान की सहायता के लिए जयसिंह का पुत्र कीरतसिंह भी अपने 3000 सैनिकों के साथ युद्घ में विद्यमान था।
14 अप्रैल 1665 को जयसिंह ने रूद्रामल को अपने आधीन कर लिया। शिवाजी की ओर से नेताजी पालकर ने परेण्डा पर आक्रमण किया परंतु वह असफल रहा। मराठों ने 14 अप्रैल को पुरंदर के युद्घ में मुगल सेना से हार मान ली। जयसिंह ने भारी विनाश किया। पचास गांव जला डाले गये। अचलकसिंह कछवाहा ने भी कई गांव नष्ट कर दिये। मुगलों की सेना जिधर भी जैसे भी बन पड़ा वैसे ही विनाश मचाने लगी।
मराठों का छापामार युद्घ
ऐसी परिस्थितियों में मराठा अपने परंपरागत छापामार युद्घ पर उतर आये। यह नीति संगत ही था, क्योंकि नीति कहती है कि यदि आपका शत्रु आपसे प्रबल है तो उसे छापामार युद्घ के द्वारा या परिस्थिति के अनुसार पीछे हटने का निर्णय लेकर पुन: पूर्ण वेग से उस पर हमला करके अपने आधीन करना चाहिए। नीति यह भी कहती है कि शत्रु से युद्घ जीतने के लिए ही युद्घ किया जाना चाहिए, केवल अपना बलिदान देने के लिए किये जाने वाले युद्घ प्रशंसनीय होकर भी राष्ट्रहित में उचित नही होते।
इस युद्घ में भाग ले रहे मराठे युद्घ क्षेत्र से भागे नही और अपने पूर्ण पराक्रम और साहस के साथ रात्रि में मुगल सेना पर आक्रमण करने लगे। मुगल सेना का रास्ता अवरूद्घ करने के लिए उन्होंने जंगलों में भी आग लगा दी, पर मुगल सेना का उत्साह भी देखने योग्य था, वह अभी उत्साहित थी और हर प्रकार से शत्रु को समाप्त कर देना चाहती थी। इस युद्घ में मराठा योद्घा मुरारबाजी ने विशेष पराक्रम का प्रदर्शन किया था।
शिवाजी ने चेताया जयसिंह को
जयसिंह के अपने विरूद्घ अभियान पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए शिवाजी ने जयसिंह के लिए पत्र लिखा। जिसमें उसके भीतर देशभक्ति और धर्मभक्ति को जगाने का प्रयास किया गया था। प्रभाकर माचवे अपनी पुस्तक ‘छत्रपति शिवाजी’ में उस पत्र का अनुवाद करते हुए लिखते हैं :-
”हे राजाधिराज जयसिंह! आपके कारण राजपूतों की गर्दन ऊंची रही है। ….जगज्ज्नक परमात्मा आपको धर्म और न्याय का मार्ग दिखायें। मैंने ऐसा सुना है कि आप मुझ पर हमला करके दखन जीतने में लाल मुंह के मुगलों को सफलता दिलाने की इच्छा कर रहे हो। पर आपके इस कार्य से आपके मुंह पर कालिख पुती है और देश और धर्म पर आपत्ति आ गयी है। यदि आप अपने बल पर दक्षिण दिग्विजय करने आ रहे हो तो यह सिर मैं आपके रास्ते में बिछाने के लिए तैयार हूं। बड़ी सेना लेकर मैं आपके साथ होकर सारा हिन्दुस्तान जीतने में आपकी सहर्ष सहायता करूंगा। लेकिन सज्जनों को धोखा देने वाले औरंगजेब की मीठी बातों में आकर आप उनकी ओर से आये हैं। अब आपसे किस प्रकार का खेल खोला जाए मैं नही जानता। आपसे मिल जाऊं तो मर्द जैसा व्यवहार नहीं। क्योंकि व्यक्ति को समय का मुख देखकर सेवा नहीं करनी चाहिए। तलवार लेकर लड़ाई के लिए आऊं तो दोनों ओर हिंदुओं (शिवाजी का राष्ट्रवाद देखिये हिन्दू शब्द प्रयोग कर रहे हैं, मराठा या राजपूत नहीं हिंदुस्तान शब्द प्रयोग कर रहे हैं महाराष्ट्र या किसी क्षेत्र विशेष का नामोल्लेख नहीं) का ही नाश और क्षति होगी।
बड़े दुख की बात है कि विधर्मी शत्रुओं का रक्त पीने के अतिरिक्त और किसी भी काम के लिए (किसी हिंदू का रक्त पीने के लिए) मेरी तलवार म्यान से बाहर नहीं निकली। यदि इस लड़ाई के लिए कोई तुर्क आया होता तो हमें घर बैठे शिकार मिल जाता। अफजल खां और शाइस्ताखां से काम नहीं चला, अत: अब (बादशाह औरंगजेब द्वारा हमारे विरूद्घ युद्घ के लिए) आपको भेजा गया है। क्योंकि औरंगजेब स्वयं हमारा हमला नहीं सह पाएगा।
उसकी ऐसी इच्छा है कि इस दुनिया में हिंदुओं की सेना में कोई बलशाली न रहे। सिंह परस्पर लडक़र घायल हो जाएं। हम लोगों से लडक़र हिंदुओं को धूल में मिलाने की आपकी इच्छा नहीं होगी। यदि आपकी तलवार में पानी हो और घोड़े में दम हो तो हिंदुओं के शत्रु पर आक्रमण करो। यदि परमात्मा ने आपको बुद्घि प्रदान की है और आपको अपने पौरूष का प्रदर्शन करना ही है, तो अपनी मातृभूमि के क्रोध से अपनी शमशीर तृप्त करो और अत्याचारों से दुखी हुए लोगों को आंसुओं का पानी दो। यह समय हिंदुओं के परस्पर लडऩे का नहीं है, क्योंकि उन पर कठिन आपत्ति आयी है। हमारे बाल बच्चे, देश, धन, देवालय सब पर आपत्ति आयी हुई है, ऐसा ही चलता रहा तो हमारा नामोनिशां इस जमीन पर नहीं रहेगा। शत्रु हमारे पैर हमारे ही पैरों में अटका रहे हैं। हमारी तलवार हमारे ही सिर पर चला रहे हैं। हमें इस समय तलवार चलाकर शत्रु को तुर्की तुर्की उत्तर देना चाहिए। देश के लिए खूब हाथ पैर चलाने होंगे। यदि आप मेवाड़ के राजसिंह से एका करके कपट छोड़ेंगे तो बहुत बड़ा काम होगा। ऐसी आशा है। चारों ओर से हमला करके शत्रु का सिर सांप की भांति कुचल डालो। जिससे वह दखन में आकर अपना जाल न फैला सके। तब तक मैं भाला चलाने वाले वीरों को लेकर बीजापुर और गोलकुण्डा के दोनों बादशाहों को भगा देता हूं। दखन में इस सिरे से उस सिरे तक दुश्मन का नामोनिशान नहीं रहने दूंगा। दो मिल जाएं तो पथरीला पर्वत तोड़ सकते हैं और बड़े जमावड़े के ठीकरे किये जा सकते हैं। इसके विषय में मुझे आपसे बातचीत करनी है। वह खत में लिखनी ठीक नहीं है।
आप चाहेंगे तो मैं आपसे मिलने आऊंगा। अपनी कार्यसिद्घि का रास्ता निकालिये और इहलोक में और परलोक में कीत्र्ति अर्जित कीजिए। तलवार, देश, घोड़ा और धर्म की कसम खाकर कहता हूं कि ऐसा करने से आप पर कभी कोई आपत्ति नहीं आएगी। अफजलखां के अंत में आप शंकित ना हो। क्योंकि उस जगह सच्चाई नहीं थी। मुझे मारने के लिए 1200 हबश वह लाया था। यदि मैंने उस पर हाथ न चलाया होता तो यह पत्र तुम्हें कौन लिखता? मैं रात को आपसे मिलने आऊंगा। शाइस्ताखां की जेब से मिला पत्र आपको दिखाऊंगा यदि यह पत्र आपको पसंद ना हो तो मैं और मेरी तलवार है और आप की फौज है। कल सूर्यास्त से मेरी शमशीर म्यान से बाहर होगी।”
शिवाजी महाराज द्वारा जयसिंह को लिखा गया यह पत्र एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। जिसमें शिवाजी ने स्पष्ट कर दिया है कि उनका सारा युद्घ और सारा जीवन हिन्दूस्थान और हिन्दूधर्म की रक्षा के लिए लड़ा जा रहा था।
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है।
-साहित्य संपादक)
मुख्य संपादक, उगता भारत