शिवाजी के पत्र का जयसिंह पर नही पड़ा कोई प्रभाव
हमने पिछले आलेख में शिवाजी के उस पत्र को उल्लेखित किया था, जो उन्होंने जयपुर के राजा जयसिंह के लिए लिखा था। उस पत्र के अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि शिवाजी मराठाभक्त नहीं हिंदू और हिंदूस्थान के भक्त थे। पर दुर्भाग्य की बात यह रही कि शिवाजी की उस वंदनीय देशभक्ति का जयसिंह पर कोई प्रभाव नही पड़ा, और उसने शिवाजी का जितना विनाश किया जा सकता था उतना जीभर कर किया। इसी को कहते हैं-विनाशकाले विपरीत बुद्घि। भारत ऐसे ‘जयचंदों और जयसिंहों’ के कारण ही अपने पराभव के भयाभय काल में हुआ था। वास्तव में यह विनाश शिवाजी का नही हो रहा था, यह विनाश हो रहा था-भारत का, भारतीयता का और देश की राष्ट्रीयता का। शिवाजी के शब्दों में झलकने वाली पीड़ा भी भारतमाता की पीड़ा थी। दुख के साथ कहना पड़ता है कि उस पीड़ा को भी जयसिंह ने पूर्णत: उपेक्षित कर दिया था। वह औरंगजेब से अपनी पीठ थपकवाने के लिए इतना लालायित था कि उस समय उसे देश और धर्म का तनिक भी कोई विचार नही रहा। इसलिए वह मां भारती की सेवा न करके औरंगजेब की गुलामी और चाटुकारिता को ही अपना सौभाग्य मानता रहा।
पुरन्दर की संधि और शिवाजी
पुरन्दर की संधि के अनुसार शिवाजी पर कई अपमान जनक शर्तें थोप दी गयीं। इनमें से यह एक यह भी थी कि शिवाजी के पुत्र सम्भाजी को पांच हजारी मनसबदार बनाया जाएगा और उसे शहंशाह के या उसके दक्षिण के किसी मुगल अधिकारी के अधीनस्थ रहना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त प्रति छमाही पर राजस्व वसूली कर सल्तनत को देना पड़ेगा। शिवाजी के 23 किले उनसे ले लिये गये और बारह किले शिवाजी के पास ही छोड़ दिये गये। इतनी अपमान जनक संधि एक हिंदू ने ही एक हिंदू के विरूद्घ मनवा ली।
पुरन्दर की संधि से शिवाजी का विजयाभियान बाधित हुआ और इससे मुगलों का साहस व मनोबल बढ़ गया। अब मुगलों ने शिवाजी की सहायता से दखन में अपना विस्तार करने की या अपने साम्राज्य को सुदृढ़ करने की नीति पर कार्य करना आरंभ किया।
मुगलों का बीजापुर की सेना से संघर्ष
नवंबर 1665 ई. में इसी नीति के अंतर्गत बीजापुर के विरूद्घ अभियान आरंभ किया गया। कई महत्वपूर्ण स्थानों को मुगलों ने ले लिया। 25 दिसंबर को मुगलों और बीजापुर की सेना के मध्य भयंकर संघर्ष आरंभ हुआ। यह संघर्ष 28 दिसंबर को और भी भयानक रूप में आरंभ हुआ।
बीजापुर वालों ने शत्रु का मनोबल तोडऩे के दृष्टिकोण से तालाब भरने, कुंए पाटने, वृक्ष काटने, फसल उजाडऩे का अभियान चला दिया। जिससे मुगलों को भोजन-पानी आदि का गंभीर संकट उत्पन्न हो गया और उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ा। कहने का अभिप्राय है कि बीजापुर वाले गुरिल्ला युद्घ पर आ गये। जयसिंह को यहां से लौटना पड़ गया। तब शिवाजी जयसिंह से आज्ञा प्राप्त कर पन्हाला की ओर चल पड़े।
कालचक्र विपरीत दिशा में घूमने लगा
आपत्तियां कभी कहकर तो नहीं आती, पर अपने आने का पूर्वाभास अवश्य दे देती हैं। शिवाजी 16 जनवरी को पन्हाला पहुंच तो गये पर यहां उन्हें कई आपत्तियों का सामना पड़ा। उन्होंने 17 जनवरी 1666 की प्रात:काल में शत्रु पर हमला बोल दिया, उनके बहुत से साथी इस युद्घ में मारे गये। सर्वाधिक दुखद बात यह रही कि उनके विश्वसनीय नेताजी पालकर व सरलष्कर जैसे विश्वसनीय साथी शत्रु से जा मिले। इस प्रकार की घटनाओं ने भविष्य के विषय में संकेत दे दिये कि अब दुर्दिनों का चक्र चलने वाला है। शहंशाह ने नेताजी को दो हजारी घोड़ों की मनसबदारी दे दी। बाद में (मार्च 1666) नेताजी पांच हजारी मनसबदारी प्राप्त कर मुगलों से जा मिला।
जयसिंह द्वारा शिवाजी को लाया गया आगरा
क्रूर कालचक्र भारत के शेर पर अपना छापा मारना चाह रहा था। शिवाजी कालचक्र की क्रूरता से बचने का यद्यपि हर संभव प्रयास कर रहे थे, परंतु व्यक्ति गहन षडय़ंत्रों और कुचक्रों का एक सीमा तक ही सामना कर पाता है। अंतत: एक सीमा आ जाती है, जब कहीं न कहीं वह ना चाहते हुए भी षडय़ंत्रों की खाई में जा गिरता है।
जयसिंह किसी भी सीमा तक गिर सकता था। अब गिरने में वह जयचंद को भी पीछे छोड़ गया था। जयचंद ने अपने काल में फिर भी कुछ सिद्घांतों और मर्यादाओं का पालन किया था परंतु जयसिंह उन सबको लांघ गया था। उसने शिवाजी का विश्वास जीता और उन्हें अपना बनाकर औरंगजेब से मिलाने की योजनाएं बनाने लगा। शिवाजी अपने किलेदारों को सतर्क कर और अपनी माता जीजाबाई को अपने प्रशासन की बागडोर सौंप कर आगरा के लिए जयसिंह के साथ चलने को सहमत हो गये। माता जीजाबाई की सहायता के लिए शिवाजी ने पेशवा मोरोपंत पिंगले और सेनापति प्रतापराव गुर्जर को छोड़ दिया था। शिवाजी को औरंगजेब के दरबार में ले जाते हुए अपने इस पापकृत्य पर जयसिंह का हृदय तो कांपता था पर उसका मन उसे साहस बंधाता और वह शिवाजी को निरंतर मिथ्याभाषण करके भ्रमित करता जाता कि आगरा में उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाएगा। उसने दिखावटी रूप में अपने पुत्र कुमार रामसिंह को आगरे में आदेश दे दिया था कि वह शिवाजी की सुरक्षा का पूर्ण प्रबंध कर दे। गाजी बेग को शिवाजी के साथ आगरा भेजा गया। शिवाजी के लिए शाही फरमान के अनुसार एक लाख रूपया खर्चे हेतु मंजूर किये गये।
औरंगजेब ने भी शिवाजी के आगमन पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन्हें लिख दिया कि तुम्हारे आने से हम तुम्हें और भी अधिक सम्मान प्रदान करेंगे, और तुम्हारी हर प्रकार की सुख सुविधा व सुरक्षा का ध्यान रखते हुए तुम्हारे लौटने का भी पूर्ण प्रबंध किया जाएगा।
11 मई को जब शिवाजी औरंगजेब के दरबार में आगरा पहुंचे तो उनकी आगवानी के लिए कुमार रामसिंह और फिदाईखान को लगाया गया। मुख्य द्वार पर कुमार रामसिंह और गिरधारी लाल उन्हें लेने के लिए पहुंचे। औपचारिक स्वागत सत्कार और परिचय आदि के पश्चात शिवाजी अपने लिए बनाये गये एक विशेष शिविर में पहुंच गये।
शिवाजी की बादशाह से भेंट
अगले दिन शिवाजी बादशाह से मिले। कई प्रकार के परस्पर विरोधी वर्णनों से हमें ज्ञात होता है कि बादशाह ने शिवाजी के प्रति असम्मान का भाव प्रदर्शित किया। शिवाजी को दरबार में उनकी गरिमा के अनुसार बैठने तक का भी स्थान नही दिया गया। जिससे उस स्वाभिमानी सपूत को बहुत ग्लानि हुई। उन्हें शीघ्र ही अनुभव हो गया कि दरबार में आकर उन्होंने भयंकर भूल की है।
एक वर्णन के अनुसार उस दिन शहंशाह औरंगजेब का जन्मदिन था और उस दिन मुगल दरबार में उत्सव के पान बांटे जा रहे थे-सरदारों उमरावों में। शिवाजी को भी एक पान दिया गया। शहजादों, राजाओं, सरदारों को खिलअत बांटी गयी। इस पर शिवाजी दुखी और बहुत नाराज हो गये। उनकी आंखों में आंसू आ गये। शहंशाह ने यह देखकर कुमार से कहा-”शिवा से पूछो, उसे क्या तकलीफ है।” शिवाजी ने कहा तुम देख रहे हो, तुम्हारे बाप ने देखा है-तुम्हारे बादशाह ने देखा कि मैं किस प्रकार आदमी हूं? और फिर भी तुमने जानबूझकर मुझे इतनी देर खड़े रखा। मैं तुम्हारी मनसब छोडता हूं। मुझे खड़ा ही रखना था, तो सही सम्मान पूर्ण स्थान पर खड़ा करना था।
शिवाजी ने दिखाया अपना शौर्य
(यह कहकर) शिवाजी ने पीठ फेरी और अपनी जगह से सरदारों की पंक्ति में जाने लगे। तब कुमार ने उनका हाथ पकड़ लिया। शिवाजी ने उसे झिडक़ दिया और एक ओर जाकर बैठ गये। कुमार उनके पीछे-पीछे आये और उन्होंने शिवाजी को समझाने का प्रयास किया। पर शिवाजी ने उसकी एक न मानी। शिवाजी जोर से चिल्लाए-‘मेरी मौत का दिन आ गया। या तो मुझे मार डालो या मैं खुद अपने आपको मार डालूंगा, मेरा सिर काट लो और चाहे जहां ले जाओ, पर अब मैं उस बादशाह के सामने नही जाने वाला।’
शिवाजी के इस आत्म स्वाभिमानी व्यवहार को अधिकांश मुस्लिम लेखकों ने उनकी उद्दण्डता और उत्तेजक कार्यवाही के रूप में वर्णित किया है। उन्होंने ऐसा दिखाने का प्रयास किया है कि जैसे शिवाजी की मूर्खता को औरंगजेब बादशाह ने कितनी गंभीरता से देखा और शिवाजी के उद्दण्डी स्वभाव पर भी कोई कार्यवाही न करके उसके प्रति अपने दयाभाव का प्रदर्शन किया।
आलमगीर नामा में लिखा गया है :-
”उत्सव के दिन शहंशाह ने कुमार रामसिंह और मुखलिस खान से कहा कि शिवाजी का इस्तकबाल करें और दरबार में लाया जाए। शिवाजी दरबार में पहुंचकर अपना सम्मान शहंशाह को देने के लिए उनके पास गया। वह ऐसी जगह जा पहुंचा जहां सिंहासन के निकट बड़े सरदार थे, उनके कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहा। शहंशाह ने आदेश दिया था कि उस दिन शिवाजी का विशेष ध्यान रखा जाए। वह कुछ दिन तक दरबार को सम्मान देता रहे और बादशाह से खिलअतें पाता रहे। अपना इरादा पूरा करने पर लौटने की इजाजत ले। मगर यह जंगली जानवर, अज्ञान के जंगलों से आया था, जिसके भीतर पता नही क्या ख्यालात थे-जिसे शाही दरबार का तौर-तरीका नही मालूम था, जिसके दिमाग में अविवेकपूर्ण आशाएं और अजीब कल्पनाएं या खामो ख्यालियां थीं, अपनी जगह खड़ा रहा। शहंशाह ने उस पर इतनी मिहिरबानी दिखाई फिर भी उसके वे दिमाग सिर से अज्ञान और मूर्खता के एक पागलपन के दौर में वह दरबार के एक कोने में जाकर अपना गुस्सा और चिढ़ व्यक्त करने लगा।”
जेल में डालने का रचा गया षडय़ंत्र
शिवाजी यूं तो मुगल सल्तनत की आंखों का कांटा बन चुके थे और यह भी सत्य है कि उन्हें आगरा लाये जाने का वास्तविक उद्देश्य भी उन्हें किसी प्रकार जेल के सीखचों के पीछे डालना था पर अब उन्हें भीतर कैसे डाला जाए? इस पर विचार किया जाना आवश्यक था। क्योंकि शिवाजी जैसे हिंदू राष्ट्रभक्त को बिना उचित कारण के जेल में डालना असंभव था। उसके लिए कोई न कोई प्रक्रिया अपनायी जानी आवश्यक थी। जिससे यह कहा जा सके कि शिवाजी ने अमुक भूलें कीं और इसलिए उन्हें जेल में डाल दिया गया। बेगम जहांनारा ने बादशाह से शिवाजी को गिरफ्तार करने की सलाह दी।
कुमार रामसिंह ने बादशाह को इस बात का विश्वास दिलाया था कि शिवाजी न तो भागेंगे और ना ही ऐसा कोई कार्य करेंगे जिससे मुगल साम्राज्य को किसी प्रकार की हानि होना संभावित हो। तब औरंगजेब ने कुमार रामसिंह के पास संदेश भिजवाया कि वह शिवाजी को काबुल ले जाए। कुमार रामसिंह ने इस बात पर हां कह दी और बादशाह ने इस आशय का फरमान भी जारी कर दिया।
रचा गया एक नया षडय़ंत्र
वास्तव में इस यात्रा के दौरान ही शिवाजी की हत्या कर दी जानी थी। क्योंकि इस यात्री दल के हरावल का मुखिया एक मुस्लिम अधिकारी को बनाया गया था। इसकी सूचना पाकर शिवाजी ने काबुल जाने से स्पष्ट इंकार कर दिया। कुमार रामसिंह ने शिवाजी को क्षमा प्रदान करने के लिए बादशाह से अनुनय विनय की परंतु बादशाह नही माना। उसने कुमार से कहा कि पहले जयसिंह के लिए पत्र भेजा जाए और तब तक शिवाजी को दृष्टिबद्घता (नजरबंदी) की स्थिति में रखा जाए। ‘आलमगीर नामा’ में लिखा है :-”शिवा का बुरा स्वभाव आलमगीर को मालूम हो गया था, वह कहीं भाग न निकले इस ख्याल से फौलादखान को जो कि पुलिस का अधिकारी था, शिवाजी की छावनी के निकट निगरानी रखने के लिए तैनात किया गया। इसके साथ तोपची भी लगाये गये।”
इस प्रकार हिन्दुस्तान के गौरव के प्रतीक शिवाजी को औरंगजेब ने बड़ी सावधानी से अपने लोगों की नजरबंदी में ले लिया। बादशाह ने शिवाजी को अपने प्रभाव में लेने का प्रयास किया परंतु शिवाजी स्पष्टवादिता से ही उसे उत्तर देते रहे।
कुमार रामसिंह का व्यवहार और भीतरी भावनाएं शिवाजी के प्रति विनम्र थीं। वह उनका शुभचिंतक था। सात जून के राजधानी पत्रों के अनुसार बादशाह ने शिवाजी से कहा कि तुम सारे किले मुझे दे दो तुम्हें मैं मनसब दे दूंगा। तुम्हारे भतीजे को भी यही पद दिया जाएगा। इस पर शिवाजी ने कह दिया कि-‘मुझे मनसब नही चाहिए और किले मेरे अधिकार में अब हैं नही।’
शिवाजी के इस उत्तर से बादशाह क्रोध से पागल हो गया था। उसने फौलादखान को यह दिया कि उसे मार डालो।
कुमार रामसिंह की उदारता
तब कुमार रामसिंह ने शिवाजी की बादशाह के प्रति वफादारी का बार-बार बखान दिया। बेगम साहिबा ने भी बादशाह से कह दिया कि मिर्जा राजा के कहने पर यहां आया है उसी कौल को आपको रखना होगा। इस प्रकार कुमार रामसिंह और बेगमसिंह साहिबा की कृपा से शिवाजी के प्राणों का संकट एक बार टल गया। शिवाजी ने कुमार से एक दिन कह दिया था कि वह मेरे विषय में बादशाह से कह दे कि शिवाजी मेरी कुछ भी नही मानता, आप उसे मार दें। इस पर शिवाजी के प्रति आदर भाव रखने वाले कुमार ने कह दिया कि मैं आपको अकेले नही छोड़ सकता।
जयसिंह ने भी बादशाह को पत्र भेजा और कहा कि मैंने शिवाजी को प्राणदान देने का वचन दिया है। आप इस समय शिवाजी के अपराधों को क्षमा दान दें। इससे भी बादशाह को थोड़ा सोचने पर विवश होना पड़ा।
जेल में बंद शिवाजी की विवेकशीलता
शिवाजी बादशाह की कैद की अवस्था में थे। पर उनकी विवेकशील बड़ी सुदृढ़ थी और वह अपनी नजरबंदी की अवस्था में भी अपने विवेक से कार्य लेते रहे। 9 जून 1666 को उन्हेांने बादशाह से कहलवाया कि उन्हें रामसिंह के साथ न रखकर अलग से रखा जाए। रामसिंह रात-रात भर जागकर शिवाजी की रक्षा के लिए पहरा देते थे। उसके अतिरिक्त अर्जुन सुखसिंह नथावत और कई राजपूत लोग इस हिंदू शेर की रक्षा के लिए रात-रात भर जागते थे। एक दिन शिवाजी ने सब नौकरों को छुट्टी दे दी थी यह कहकर कि मेरे साथ कोई न रहे। मैं अकेला रहूंगा। मुझे मार डालना चाहते हैं तो मार डालो। रामसिंह ने फिर शिवाजी को अपने घर के पीछे रहने का परामर्श दिया। जयसिंह के पत्र की प्राप्ति के पश्चात बादशाह ने शिवाजी को माफ कर दिया (अलमगीरनामा) और वहां से फौलादखान का पहरा हटा दिया।
जयसिंह दक्षिण के संभावित विद्रोह को नियंत्रण में रखने के लिए शिवाजी का भला चाहता था। उसे पता था कि यदि शिवाजी के साथ आगरा में कुछ हो गया तो उसका प्रभाव दक्षिण की राजनीति पर अवश्यम्भावी रूप से पड़ेगा।
कुमार के सामंत साथी शिवाजी की प्रशंसा करने लगे
इधर कुमार के सामंत साथी शिवाजी की प्रशंसा करने लगे थे। शिवाजी जो कुछ बोलता है वह बिलकुल सही है। शिवाजी बड़ा चतुर है। वह सच्चा असली राजपूत है, और जैसा सुना था वैसा ही उसे पाया। यह तो भाग्य का फेर है जो उसे यहां ले आया है। इन लोगों के भीतर शिवाजी की देशभक्ति और विचारों को देखकर परिवर्तन की बयार बहती सी जान पड़ती थी, वे जहां एक ओर अपने शहंशाह के प्रति वफादार रहना चाहते थे, वहीं उन्हें हिंदू शेर शिवाजी के प्रति भी एक अजीब सी सहानुभूति हृदय में उठती हुई अनुभव होने लगी थी। उनका विचार बनता जा रहा था कि शिवाजी को लेकर वे महाराज जयसिंह से अपनी बात रखते हुए उनसे कहें कि वे कितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी औरंगजेब की जेल से शिवाजी को छुड़वाएं। पर जयसिंह पर इन लोगों का कोई प्रभाव नही था, वह तो सिर्फ उदेराज की बात को सुनता था, इसलिए इन लोगों ने अपनी योजना को अथवा अपनी बात को जयसिंह तक पहुंचाने में संकोच किया।
रखी हिन्दू साम्राज्य की नींव
दक्षिण में मुगल साम्राज्य के विरूद्घ शुद्घ हिंदू साम्राज्य की नींव रखने वाले शिवाजी थे। जिनके लिए यह मातृभूमि मिट्टी का ढेला मात्र नही था-इसके लिए उनके हर श्वांस थी और जीना मरना भी इसी के लिए था। अपने सभी समकालीन देश भक्तों के शिरोमणि होने का सम्मान केवल शिवाजी को ही जाता है। उनकी राष्ट्र साधना इतनी पवित्र और उत्कृष्टतम श्रेणी की थी कि जैसे उदगीथ या प्रणव जप करने वाले अध्यात्म तपस्वी के हर श्वांस-प्रश्वांस में ‘ओ३म्’ रच-बस जाता है, वैसे ही उनके हर श्वांस-प्रश्वांस में राष्ट्र रच-बस गया था। यही कारण था कि शिवाजी सुदूर दक्षिण में अपने समकालीन एक ऐसे साम्राज्य की जड़ें खोदने का कार्य कर रहे थे जो उस काल का विशालतम साम्राज्य था। शिवाजी पुरूषार्थ कर रहे थे एक ऐसे भारत के निर्माण का जो समर्थ हो, सुदृढ़ हो सक्षम और सबल हो। तत्कालीन राज्यसत्ताएं अपने अहंकार में फूल रही थीं और वह किसी साधारण परिवार से निकले बच्चे को राजा बनता देखना पसंद नही करते थे, इसलिए हिंदू साम्राज्य के निर्माता के रूप में उदीयमान शिवाजी को राजा लोग पसंद नही कर रहे थे। यह उनका मिथ्याभिमान था। पर शिवाजी भी अपने आप में शिवाजी ही थे अर्थात अनुपम थे। संकटों से जूझने में उन्हें आनंद आता था।
वीर सावरकर मानो उन्हीं के लिए कह रहे हैं :-”मृत्यु का भय तो केवल सामान्य जीवों को ही सता पाता है। जो स्वतंत्रता की साधना के दीवाने हों, जिन्होंने स्वातंत्रय लक्ष्मी के ही चरणों में अपने जीवन पुष्प समर्पित करने का संकल्प कर लिया हो, उनको भला भय और चिंता कैसे हो सकती है? विजय की आशा से युद्घ करने वाला तो जीवन के प्रति मोह रख सकता है कीत्र्ति हेतु संघर्ष करने वाला भी शायद कभी भयभीत हो जाए, किंतु सिर पर कफन बांधकर ही तो समर भूमि में डट गया हो भय उसके तो पास नही फटक सकता। ऐसे लोगों का मार्ग कौन सा भय अवरूद्घ कर सकता है? आकाश से भले ही वज्रपात हो अथवा धरती अंगार उगलने लगे, उसके रास्ते में रूकावट नहीं आ सकती, क्योंकि वह तो स्वत: ही मृत्यु के पथ का पथिक है। जो मृत्यु का आलिंगन करने को तत्पर है-निराशा उसके पास कैसे फटकेगी? जिन्होंने मृत्यु को ही अपनी प्रेयसी समझकर उसका आलिंगन करने का दृढ़ निश्चय कर लिया हो, ऐसे राष्ट्रभक्तों को कौन भयभीत कर सकता है?” (संदर्भ : ‘1857 का स्वातंत्रय समर’, पृष्ठ 365)
वीर सावरकर यहां जिस योद्घा का चित्र खींच रहे हैं उसके सभी गुण शिवाजी महाराज में अक्षरश: चित्रित होते हैं।
शिवाजी जेल से भागने की करने लगे तैयारी
संकट में धैर्य ही साहस उत्पन्न करता है और शिवाजी के भीतर धैर्य का अभाव नहीं था। उन्हेांने अपने धैर्य की पतवार से विषम परिस्थितियों का सामना किया। उनका स्वाभिमान सदा जीवित रहा और उन्होंने औरंगजेब की जेल से निकल भागने के लिए अपनी ओर से युक्तियां खोजनी आरंभ कर दीं। कुमार रामसिंह और कई हिंदू मुस्लिम पदाधिकारियों की सहानुभूति शिवाजी के साथ थी। ये लोग शिवाजी की देशभक्ति और स्वाभिमानी जीवन शैली से बड़े प्रभावित थे, इसलिए ऐसे लोगों के कारण शिवाजी जेल में जीवित भी रह सके अन्यथा तो औरंगजेब उन्हें बहुत शीघ्र ही मृत्यु के घाट उतार देता। शिवाजी ने अनुकूल परिस्थितियों का लाभ लेना आरंभ किया और बड़ी सावधानी से ऐसा परिवेश बनाना आरंभ किया कि वह जेल से बाहर आ सकें। नियति भी उनका साथ दे रही थी। ईश्वर ने उन्हें जिन महान कार्यों के लिए भेजा था उन्हें सम्पादित किया जाना अभी शेष था। इसलिए ईश्वर उनके साथ खड़े थे। अदम्य साहस और शौर्य की प्रतिमा शिवाजी ने गंभीर चिंतन और मनन के उपरांत ईश्वरीय शक्ति की अनुभूति कर ली थी, और यह मान लिया था कि अपने धर्म और देश के लिए वह जिन कार्यों को करना चाहते हैं, उनके लिए ईश्वरीय अनुकंपा एक कवच के रूप में सदा उनके साथ हैं।
मौन में बड़ी शक्ति है यह विध्वंस को सृजन में परिवत्र्तित कर देता है।
शिवाजी ने भी मौन का अवलंबन लिया और अपने जीवन में आ घुसे नकारात्मक विध्वंस को मिटाने के लिए उठ खड़े हुए। अत: मृत्यु से तनिक भी विचलित न होकर वह अपने कत्र्तव्य पथ पर आगे बढऩे लगे। क्योंकि कत्र्तव्यपथ ही तो उन्हें वह रास्ता दिखाने वाला था जिसके द्वारा वह औरंगजेब की जेल से बाहर आ सकते थे।
क्रमश:
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-साहित्य संपादक)