गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-14
गीता के दूसरे अध्याय का सार और संसार
‘गीता’ कहती है कि इस आत्मा को संसार का कोई शस्त्र छेद नहीं सकता। न इसको अग्नि जला सकती है, और न इसे पानी गला सकता है, इसे वायु सुखा नहीं सकती।
अग्नि जला न पाएगा, शस्त्र करे नहीं छेद।
पानी गला न पाएगा, हो वायु को भी खेद।।
आत्मा के अमर होने के कारण ही उसके ऐसे गुण हैं। कई लोगों को संसार में यह भ्रान्ति बनी रही कि उन्होंने लोगों के गले काट दिये तो मानो उन्हें समाप्त कर दिया। उन्हें यह पता ही नहीं था कि तुमने तो भौतिक, स्थूल शरीर को समाप्त किया है। तुमने आत्मतत्व को समाप्त नहीं किया है, वह तो अमर है। संसार में जब उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी व्यवस्था का काल आया तो साम्राज्यवादी मनोवृत्ति के लोगों ने ऐसे अनगिन नरसंहार किये। जिनमें वह लोगों को मार-मार कर यह मानते रहे, कि तुमने इनकी आत्मा को भी मार दिया है। भारत अपनी गीता के ज्ञान का लाभ इस प्रकार के विदेशी आक्रमणकारियों के शासन काल में भी लेता रहा। यहां के लोग यह मानते थे कि संसार से चलते समय जैसी मति होती है-गति (अगला जन्म) वैसी ही होती है। हमारे लोग नरसंहार करने वाले लोगों के विनाश का संकल्प लेकर उनकी तलवार के सामने खड़े होते थे, इसलिए वे मर-कटकर भी अगला जन्म अपने पूर्व जन्म के संकल्प संस्कार के कारण विदेशियों के विनाश के लिए ही लेते रहे।
इस प्रकार ‘गीता’ ने भारत की और भारतीय धर्म की रक्षा उस समय भी की जब यह देश विदेशी सत्ताधीशों के अत्याचारों को झेल रहा था। कुछ लोगों ने उस समय भारतीय धर्म की अहिंसा का गलत अर्थ निकालते हुए भारत के लोगों को और भारत के धर्म को कायरता का जामा पहनाने का प्रयास किया, परन्तु उनका यह प्रयास सफल नहीं हो सका। इसका प्रमाण यह है कि यहां लोगों ने आत्मा की अमरता को और शरीर की नश्वरता को ध्यान में रखकर आत्म बलिदान देने में कभी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। सहर्ष बलिदान देने की भारत की अनोखी परम्परा है, और यह तभी सम्भव होता है जब किसी देश के लोग आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता में अटूट विश्वास रखते हों। कहने का अभिप्राय है कि गीता ने ही हमें देशहित और धर्म की रक्षार्थ सहर्ष बलिदान देने की परम्परा का बोध कराया। भारत यह जानता था कि आत्मा को छेदा नहीं जा सकता, जलाया नहीं जा सकता, गीला नहीं किया जा सकता, सुखाया नहीं जा सकता। यह नित्य है, स्थिर है, सनातन और अचल है। इसे इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। इसलिए यह अव्यक्त है। मन से ग्रहण न हो पाने के कारण यह अचिन्त्य है और सारे विकारों से रहित होने के कारण यह अविकार्य है। आत्मा में कोई विकार या बिगाड़ नहीं हो सकता यह दोषों के विकारों से परे है। इस सत्य को समझने की आवश्यकता है। इसे ऐसा समझना ही उचित है। गीता का अर्जुन के लिए भी यही उपदेश है और संसार के प्रत्येक मनुष्य के लिए भी यही उपदेश है।
‘गीता’ साधारण लोगों को अपनी बात को समझाते हुए और भी बड़ी बात कह गयी है कि यदि यह भी मान लिया जाए कि यह आत्मा पैदा होता है और फिर मरता है तो भी ‘मरणशील’ के लिए शोक करना भी उचित नहीं कहा जा सकता। जिसका जन्म हुआ है-उसकी मृत्यु भी निश्चित है।
”जनम को जो धारता मौत जरूरी होय।
व्यक्त-अव्यक्त के ज्ञान से बुद्घि निर्मल होय।।”
अत: जो होना ही है जिसे किसी भी स्थिति में टाला नहीं जा सकता उसके होने पर कैसा शोक? अत: हे अर्जुन! यदि तू इस आत्मा को जन्म-मरण वाला भी मान बैठा है तो भी तुझे इसके नाश होने पर किसी प्रकार का शोक करने की आवश्यकता नहीं है। जो आज दीख रहा है, व्यक्त है-वही कभी अव्यक्त था और मृत्यु के पश्चात वही व्यक्त अव्यक्त हो जाएगा। इस व्यक्त अव्यक्त के खेल को समझने की आवश्यकता है।
हमसे भूल ये हो जाती है कि हम व्यक्त को ही सत्य मान लेते हैं और यह कल्पना कर लेते हैं कि यह ‘व्यक्त’ सदा ही व्यक्त रहेगा। हम सोचने लगते हैं कि यह जो भौतिक संसार हमको दिखायी दे रहा है-यह सदा ऐसा ही रहेगा। इसकी अनित्यता का हमें तब पता चलता है जब हमारे अनेकों साथी, मित्र, बन्धु-बान्धव हमारा साथ छोडक़र चल देते हैं और हमारी वृद्घावस्था हमसे भी कहने लगती है कि अब चलने का समय आ गया है। व्यक्त के अव्यक्त होने पर हमें दु:ख होता है। हम भूल जाते हैं कि अव्यक्त में से व्यक्त बना और अन्त में व्यक्त अव्यक्त में ही समाहित हो रहा है। इन्द्रियों द्वारा व्यक्त को अनुभव किया जा सकता है। यह ‘व्यक्त’ अन्त में अव्यक्त प्रकृति में मिल जाता है। क्योंकि व्यक्त भी प्रकृति के पांच तत्वों से ही बना है। अत: जब व्यक्ति के मिटने का समय आता है तो ये पांचों तत्व अपने-अपने मूल स्वरूप में विलीन हो जाते हैं।
कुछ लोगों ने गीता के ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ वाले श्लोक की गलत और अतार्किक व्याख्या करते हुए ‘धूनी’ जमा ली और भगवान का नाम लेते रहने को ही जीवन व्यापार बना लिया। उनकी इस प्रकार की व्याख्या का परिणाम यह निकला कि समाज में अकर्मण्यता अर्थात निकम्मापन छा गया। जबकि गीता व्यक्ति को कर्मयोग की शिक्षा दे रही है। गीता कहती है कि कर्म करना तेरे हाथ में है। इसका अर्थ है कि तू कर्मशील बना रह, जीवन में भगवान का नाम भी जपता रह, पर संसार के कार्यों को भी करता रह। हां, संसार के कार्यों को करते रहने की एक शर्त है-कर्म करते हुए भी कर्म के फल की आशा मत कर, उसे अपने अधिकार में मत समझ। इसका कारण है कि कर्म का फल तेरे हाथ में नहीं है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि तू कर्म करना ही छोड़ दे। जीवनमुक्त होने का इससे उत्तम कोई उपाय नहीं है।
हमारी अधिकांश जीवन ऊर्जा इस बात पर व्यय हो जाती है कि मेरे अमुक कर्म का अमुक फल मिलेगा या नहीं। यदि नहीं मिला तो क्या होगा? इत्यादि। ‘फल की चिन्ता’ हमें मारती रहती है और हमें पता भी नहीं चलता। इसलिए जीवन की सकारात्मक ऊर्जा को बचाये रखने का गीता का कितना सुन्दर उपदेश है यह? संसार के बहुत से लोग आजकल हृदय रोगों से पीडि़त हैं और उनका इस प्रकार के रोगों से पीडि़त होने का एक प्रमुख कारण उनकी जीवनी शक्ति के नकारात्मक चिन्तन में व्यय होते रहने की प्रक्रिया है। गीता संसार के लोगों की इस बीमारी का उपाय बता रही है कि तुम्हें अपनी जीवन ऊर्जा को सकारात्मकता के साथ व्यय करने का अभ्यास करना चाहिए। ‘ओ३म्’ नाम सिमरण करो, चाहे गायत्री मंत्र का जाप करो, जो चाहो सो करते रहो। पर ऐसा अभ्यास करते रहो कि कि जप का वह कार्य भी होता रहे और संसार के सारे कार्य व्यापार को भी हम करते रहें। इससे चित्त में प्रसन्नता, सन्तोष, धैर्य और उत्साह का संचार बना रहेगा। जिनका हमारे जीवन पर बड़ा सकारात्मक और स्वास्थ्यप्रद प्रभाव पड़ेगा। वैसे हमें कर्म व फल के विषय में यह जानना चाहिए कि ये दोनों एक ही क्रिया के दो रूप हैं। कर्म यदि वर्तमान है तो फल उसका भविष्य है। कर्म का फल मिलना निश्चित है। कर्म को यदि पूर्ण मनोयोग के साथ, पूर्ण कौशलता के साथ किया जाएगा तो उसका योग सुफल के साथ हो ही जाएगा। ऐसे भाव से कर्म करते रहने वाला व्यक्ति ही सफल कहलाता है। अत: बात स्पष्ट हुई कि कर्म को पूर्ण कौशल के साथ करने का अभ्यासी हमें बनना चाहिए। क्रमश: