क्या है योग और चित्त की वृत्तियों का निरोध
(एक दिन प्रात:काल में मुझसे श्रद्घेय ज्येष्ठ भ्राताश्री प्रो. विजेन्द्रसिंह आर्य-मुख्य संरक्षक ‘उगता भारत’-ने अपनी समीक्षक बुद्घि से सहज रूप में पूछ लिया कि-‘देव! महर्षि पतंजलि के ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ पर तुम्हारे क्या विचार हैं? तब मैंने श्रद्घेय भ्राताश्री को अपनी ओर से जो प्रस्तुति दी, उसी से यह आलेख तैयार हो गया। हमारी उक्त चर्चा चलभाष पर हुई-और दोनों भाइयों को ही उस चर्चा में असीमानंद की अनुभूति हुई। इस चर्चा को मैं अपने सुधिजन पाठकों की सेवा में भी सादर प्रस्तुत कर रहा हूं। आशा है उन्हें भी यह चर्चा उपयोगी अनुभव होगी।)
योगदर्शन में चित्त की वृत्तियों के निरोध का विधान किया गया है।
प्रश्न:-चित्त का निरोध क्यों?
उत्तर:-जब तक चित्त एकाग्र रहता है, तब तक चित्त की वृत्तियां अपने काम में लगी रहती हैं और आत्मा की बहिर्मुखी वृत्ति में ही काम करती रहती हैं। चित्त की एकाग्रता से आत्मा की बहिर्मुखी वृत्ति जागृत होती है, और जब बहिर्मुखी वृत्ति को भी बन्द कर दिया जाता है, तब अन्तर्मुखी वृत्ति स्वयमेव जागृत होकर अपना काम करने लगती है।
प्रश्न:-चित्त की वृत्तियां कौन कौन सी हैं?
उत्तर:- (1)प्रमाण, अर्थात् प्रत्यक्ष अनुमान और आगम (आप्तोपदेष)
(2) विपर्यय, अर्थात् मिथ्याज्ञान
(3) विकल्प, अर्थात् वस्तु शून्य कल्पित नाम
(4) निद्रा (सोना)
(5) स्मृति, अर्थात् पूर्व श्रुत और दृष्ट पदार्थ का स्मरण चित्त में आना।
प्रश्न:-चित्त को एकाग्रता में कैसे लाया जा सकता है?
उत्तर:-योगदर्शन में इसके लिये आठ अंगों का विधान किया गया है
(1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि, ये आठ अंग चित्त की एकाग्रता के साधन हैं।
प्रश्न:-यम क्या है?
उत्तर:-अपने चारों ओर शान्ति का वातावरण उत्पन्न करना यम है। यम को पांच भागों में विभक्त कर सकते हैं-
(1) अहिंसा, (2)सत्य, (3)अस्तेयं, (4)ब्रह्मचर्य, (5) अपरिग्रह
अहिंसा:- मन, वचन, कर्म तीनों से किसी भी प्राणी को कष्ट न देना अहिंसा है।
सत्य:-मन, वचन, कर्म तीनों से सत्य का प्रतिष्ठित होना सत्य है।
अस्तेयं:-मन, वचन, कर्म तीनों से चोरी न करना।
ब्रह्मचर्य:-शरीर में रज-वीर्य की रक्षा करते हुए लोकोपकारक विद्याओं को ग्रहण करना, मातृत्व-पर-दारषु की भावना होना।
अपरिग्रह:-धन का संग्रह करने, रखने, खोये जाने की तीनों ही अवस्था दु:खकारी हैं, इसलिये धन संचय की इच्छा न करना अपरिग्रह है।
2) नियम:-अपने कर्मफ ल में दु:खी न होना पड़े, इसलिये निम्न 05 बातों का पालन करना चाहिये-
शौच:-बाह्य और अन्त:करणों की शुद्घि रखना शौच है। अपने शरीर को मलमूत्र का समझना व दूसरे के शरीर को मलमूत्र का समझना शौच है।
सन्तोष:-पुरूषार्थ से जो प्राप्त हो उससे अधिक की इच्छा न रखना।
तप-शीतोष्ण-सुख दुखादि को एक जैसा समझना और नियमित जीवन व्यतीत करना तप कहलाता है।
स्वाध्याय-ओंकार का श्रद्धापर्वूक जप करना और वेद उपनिषदादि उद्देष्य साधक ग्रन्थों का निरन्तर अध्ययन करना स्वाध्याय है।
ईश्वर प्राणिधान-ईश्वर का प्रेम हृदय में रखना, उसको ही अत्यन्त प्रिय एवं परम गुरू समझना, अपने समस्त कर्मों का उसके अर्पण करना, सदैव उसी के ध्यान में रहना ही ईश्वर परायणता है।
(3) आसन:-सुखपूर्वक बैठने को आसन कहते हैं।
(4) प्राणायाम:-प्रकाष (ज्ञान) पर तम (अन्धकार) के आवरण को दूर करने की विधि को प्राणायाम कहते हैं।
(5) प्रत्याहार:-इन्द्रियों का अपने विषयों से पृथक हो जाना प्रत्याहार कहा जाता है। प्रत्याहार आत्म शक्ति को एकत्रीकरण करना है। प्रत्याहार में योगी जब चाहे उसकी आत्मा को शरीर से निकाल कर हाथ की वस्तु की तरह अलग करके पुन: प्राप्त कर लेता है। इसके अलावा पीछे हटने को भी प्रत्याहार कहते हैं। जिसमें इन्द्रियां अपने विषयों से पीछे हट जाती हैं। इसमें चित्त के स्वरूप का अनुकरण सा होने लगता है।
(6) धारणा:-चित्त को किसी एक केन्द्र पर केन्द्रित करना, जैसे नासिका के अग्रभाग पर नाभिचक्र पर ध्यान केन्द्रित करना, जिसमें मन एकीकृत हो जाता है। इसमें 21 मिनट 36 सेकेन्ड तक बिना श्वास के रहा जा सकता है। इसके अलावा चित्त को किसी देष में बांधना धारणा कहा जाता है।
(7) ध्यान:-उस धारणा में प्रत्यय (ज्ञान) का एक सा बना रहना ध्यान है, जिस लक्ष्य पर चित्त एकाग्र हुआ उस एकाग्रता का ज्ञान निरन्तर बने रहना ”ध्यान निर्विषयं मन:” अर्थात् महामुनि कपिल के अनुसार मन के निर्विषय होने का नाम ध्यान है। यह बिना श्वास के 42 मिनट 12 सेकेन्ण्ड तक की अवस्था है।
(8) समाधि:-ध्यान की अवस्था में ध्याता को ध्यान और ध्येय का ज्ञान रहता है। परन्तु जब ध्याता को ध्येय मात्र का प्रकाश ही रह जाये और अपने रूप से शून्य सा हो जाये, तब समाधि की अवस्था होती है। यह इसमें 1 घण्टा 26 मिनट 24 सेकेण्ड तक योगी बिना श्वास के रह सकता है। ऊपर में दी गई अष्टांग योग के बाद पुन: उसी मूल प्रश्न पर लौटते हैं। चित्त की वृत्तियों का निरोध क्यों ? अर्थात् क्या लाभ है इससे।
महर्षि पतंजलि ने योग की परिभाषा करते समय इस प्रकार की है- ”योगश्चित्त वृत्ति निरोध:” चित्त की वृत्तियों का रोकना ही योग है। ”युज्यते असौ योग:” अर्थात् जो युक्त को करें अर्थात् जोड़े वह योग है। अर्थात् आत्मा व परमात्मा को युक्त करना ही योग है। महर्षि व्यास ने ”योगस्समाधि” कहा है। श्री कृष्ण जी ने ”योग: कर्मसु कौशलम्” कहा है।
समाधि दो प्रकार की होती है-
1 सबीज समाधि- सम्प्रज्ञात समाधि
2 निर्बीज समाधि-असम्प्रज्ञात समाधि।
इसको समझने से पहले चित्त की समापत्ति की अवस्था को समझ लें। चित्त की समापत्ति की अवस्था वह होती है, जब उसको जिसके पास रख दिया जाये-उसी सा दिखने लगे जैसे स्फ टिक मणि को लाल रंग के पास रखो तो लाल दिखे व पीले के समीप रखो तो पीली दिखे। ये समापत्ति चार प्रकार की होती है। 1-सवितर्का, 2-निर्वितर्का, 3-सविचारा, 4-निर्विचारा। पहली व दूसरी समापत्ति स्थूल विषयों से सम्बन्धित है। जबकि तीसरी व चौथी सूक्ष्म विषयों से सम्बन्धित है। ये ही 4 प्रकार की समापत्तियां हैं। सबीज समाधि (सम्प्रज्ञात समाधि) कही जाती है।
सम्प्रज्ञात समाधि में चित्त एकाग्र हो जाता है, परन्तु चित्त की वृत्तियां निरूद्ध नही होती हैं, जबकि असम्प्रज्ञात समाधि में चित्त की वृत्तियों का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है, और ऐसी समाधि प्रज्ञा को ऋ तम्भरा कहते हैं। ऋ तम्भरा की अवस्था में विषय वासना का ज्ञान व ध्यान शेष नहीं रहता है। तत्पश्चात् ऋ तम्भरा को भी रोक देने पर सब रूप से असम्प्रज्ञात समाधि की सिद्धि होती है।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।