कठिनाइयों का दौर और राणा अजय सिंह
हम यहां पर यह भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि कैलवाड़ा अरावली पर्वत पर बसा हुआ एक नगर है। इस नगर में राणा अजय सिंह अपने दुर्दिनों के उस दौर को काट रहा था। वह उस समय किसी से भी किसी प्रकार की शत्रुता मोल लेने की स्थिति में नहीं था। पर जब मनुष्य का दुर्भाग्य उसके पीछे पड़ता है तो एक से एक बढ़कर कठिनाई और विपत्तियां भी चारों ओर से उस पर हमला करती हैं। मनुष्य की स्थिति उस समय बड़ी खराब हो जाती है, जब एक विपत्ति के दौर से वह निकल नहीं पाता है, इतने में ही दूसरी आ खड़ी होती है। चारों ओर से होने वाले उन हमलों में अच्छे-अच्छे शूरमा विचलित हो जाते हैं। राणा अजय सिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। इस कैलवाड़ा के सरदारों में मुंजाबलैचा नाम का एक सरदार भी रहता था। वह बहुत ही अभिमानी व्यक्ति था। किसी बात को लेकर उसने राणा अजय सिंह से शत्रुता बढ़ा ली। उसने शत्रुता को इतना अधिक बढ़ा लिया कि वह राणा अजय सिंह को मारने की योजना बनाने लगा। राणा अजय सिंह को भी उसके इरादों की जानकारी हो चुकी थी। राणा उसके उद्देश्य को समझ चुका था, इसलिए चुपचाप अत्यधिक चिंतित रहने लगा था।
उस समय राणा को अपने लोगों के सहयोग की बहुत अधिक आवश्यकता थी। परंतु दुर्भाग्यवश उसे कहीं से भी सहयोग की संभावना नजर नहीं आ रही थी। दूर-दूर तक अपना कोई साथी दिखाई नहीं दे रहा था। राणा अजय सिंह के अपने दो पुत्र अजीम सिंह और सुजान सिंह उस समय क्रमशः 16 और 15 वर्ष के थे। उनसे भी राणा को किसी प्रकार का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ। दोनों ही पुत्रों ने राणा को सहयोग करने में असमर्थता दिखा दी थी। ऐसी परिस्थितियों में राणा के भीतर चल रही हमीर की खोज और भी तीव्र होती जा रही थी। राणा ने मनोयोग से अपने भतीजे को खोजा तो प्रभु कृपा से एक दिन उसकी भेंट अपने वीर भतीजे हम्मीर से हो ही गई।
मिल बैठकर बनाई नई योजना
जब दोनों चाचा भतीजे एकांत में बैठे तो राणा ने अपनी सारी समस्याओं को अपने भतीजे के सामने प्रस्तुत कर दिया। उसने बता दिया कि यहां का सरदार किस प्रकार उसके पीछे पड़ चुका है ? और अब उसे इस सरदार से प्राणों का भी संकट उपस्थित हो चुका है। हमीर ने अपने चाचा की बातों को बड़ी गंभीरता से सुना और तुरंत अपने चाचा के साथ मिलकर समस्याओं का समाधान करने के लिए उठ खड़ा हुआ। हमीर ने उस सरदार को मारने का निश्चय कर लिया। अपने चाचा में ही अपने पिता की छवि देखकर हमीर ने मुंजाबलैचा को युद्ध में मारने का निर्णय ले लिया। फलस्वरूप उसने उस क्रूर सरदार के साथ युद्ध किया और उसका प्राणांत कर दिया। इसके पश्चात हमीर उस सरदार के सिर को अपने भाले की नोक पर रखकर लेकर आया और उसे अजय सिंह के पास लाकर रख दिया। राणा अजय सिंह अपने वीर भतीजे के इस प्रकार के वीरता पूर्ण कृत्य को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसे न केवल उस समय अपने शत्रु के प्राणांत हो जाने की प्रसन्नता थी अपितु इसके साथ ही साथ उसे इस बात की भी प्रसन्नता थी कि उसे चित्तौड़ के लिए एक योग्य उत्तराधिकारी भी प्राप्त हो गया है। राणा ने समझ लिया था कि हमीर को अपना उत्तराधिकारी बनाने का उनके पिता का निर्णय कितना उचित था ?
तब राणा ने भी देर नहीं लगाई। अपने पिता के अंतिम दिनों में लिए गए निर्णय को स्मरण कर अपने भतीजे हमीर का राजतिलक उस सरदार के बहते हुए रक्त से ही कर दिया। इस प्रकार इस सरदार के अंत से बहुत कुछ ऐसा हो गया जो मेवाड़ के साथ-साथ हमारे देश के लिए भी आगे चलकर लाभकारी सिद्ध हुआ। तनिक कल्पना कीजिए कि यदि वह क्रूर सरदार राणा अजय सिंह को उस समय समाप्त कर देता और हमीर को कभी इस बात की जानकारी भी नहीं होती कि उसका चाचा किस सरदार ने कहां मार दिया है तो क्या होता?
निश्चय ही तब मेवाड़ के साथ-साथ इस देश का इतिहास कुछ दूसरा होता। वास्तव में यह एक निर्णायक मोड़ था और उस निर्णायक मोड़ पर प्रभु की कृपा से ऐसी परिस्थितियां बन गई की एक सही मार्ग हमें मिल गया।
सचमुच राणा हमीर उस समय समस्या का एक समाधान था। जब कोई मार्ग नहीं मिल रहा था तो एक सम्मान पूर्ण मिला हुआ मार्ग था। बड़े हुए रोग की एक औषधि था। आगे की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि उन परिस्थितियों में केवल हमीर का मिल जाना ही उचित था। राणा अजय सिंह की यह उदारता और महानता ही थी कि उसने मिले हुए मार्ग को चित्तौड़ की सुरक्षा का एक अचूक अस्त्र स्वीकार कर लिया था। उसने अपने भतीजे को मेवाड़ के बढ़े हुए रोग की औषधि स्वीकार कर लिया था। राणा अजय सिंह ने मर्यादा का पालन किया। पिता के वचन को पूर्ण किया और सत्ता स्वार्थ को त्याग कर देशहित में उचित निर्णय लेकर त्याग भी किया कि अपने भतीजे को मेवाड़ की बागडोर सौंप दी। वास्तव में बड़े लोग वही होते हैं जो विपत्तियों के बीच रहकर भी अपना संयम और संतुलन बनाए रखते हैं। धैर्य के साथ निर्णय लेते हैं और विषम परिस्थितियों में भी मर्यादा का पालन करते देखे जाते हैं।
राणा के पुत्रों ने ही कर दी बगावत
राणा अजय सिंह के इस महान निर्णय को उनके दोनों पुत्रों ने मानने से इनकार कर दिया। राणा अजय सिंह के इस निर्णय के विरुद्ध उसके दोनों पुत्रों ने बगावत कर दी। यद्यपि वह अपनी कुपात्रता का परिचय पहले भी दे चुके थे। जब उन्होंने विषम परिस्थितियों में राणा का साथ नहीं दिया था। उन्हें केवल मुकुट की इच्छा थी, पर मुकुट के लिए दिए जाने वाले बलिदानों के लिए वे तैयार नहीं थे। जिस समय राणा ने हमीर का राजतिलक किया था, उस समय उसके दोनों पुत्र वहीं पर खड़े उसके इस कार्य को देख रहे थे। कहा जाता है कि इस घटना के कुछ समय पश्चात राणा अजय सिंह की मृत्यु हो गई। तब राणा का छोटा पुत्र सुजान सिंह रुष्ट होकर दक्षिण की ओर चला गया।
कर्नल जेम्स टॉड लिखते हैं कि दक्षिण में जाकर उसने एक नये वंश की स्थापना की। शिवाजी महाराज इसी वंश में उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार जैसे मेवाड़ के राणा परिवार और नेपाल के राजवंश का रक्त संबंध एक ही है, वैसे ही राणा परिवार और शिवाजी के वंश का रक्त संबंध भी एक है।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अजय सिंह ने उचित समय पर हमीर को शासन सत्ता सौंपकर चित्तौड़ में चल रहे स्वाधीनता संघर्ष को बल प्रदान कर दिया था। उस समय चित्तौड़ या मेवाड़ को ही नहीं बल्कि पूरे देश को शूरवीर की आवश्यकता थी। एक ऐसे योद्धा की आवश्यकता थी जो खोए हुए सम्मान को प्राप्त करने की क्षमता रखता हो। ऐसी योजनाओं को बनाने की क्षमता रखता हो जो उसे फिर से चित्तौड़ दिलाने में सहायक हो सकती हों। उस समय राणा अजय सिंह के पास कुछ भी नहीं था। बस, केवल हमीर के रूप में आशा की एक किरण थी। …और उस किरण को मेवाड़ का सूर्य समझकर उसने स्वीकार कर लिया। यह माना जा सकता है कि जिस समय राणा अजय सिंह चित्तौड़ के उत्तराधिकारी के रूप में हमीर का राजतिलक कर रहे थे उस समय उन्हें आने वाले भविष्य के विषय में यह ज्ञान नहीं होगा कि एक दिन इसी हमीर के वंश में आगे चलकर देश के स्वाभिमान की रक्षा के लिए जहां महाराणा संग्राम सिंह, महाराणा उदय सिंह और महाराणा प्रताप सिंह जैसे वीर योद्धा उत्पन्न होंगे वहीं उसके स्वयं के पुत्र सुजान सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे योद्धा भी इस पवित्र भूमि पर अवतरित होंगे। जिनका सबका लक्ष्य केवल मां भारती की रक्षा करना होगा। मां भारती की आराधना उनका जीवन व्रत होगा।
सुजान सिंह की वंश परंपरा में आगे चलकर शिवाजी के उत्पन्न होने की पुष्टि में लाला लाजपत राय ने अपनी पुस्तक “छत्रपति शिवाजी” में लिखा है कि :- पितृपक्ष से वह उस पवित्र वंश में उत्पन्न हुए थे जिसमें बड़े-बड़े शूरवीर उत्पन्न हुए थे जो वंश बहुत समय तक स्वतंत्र रहा। जिसकी संतान अपनी जाति और देश के लिए अनेक बार लड़ी और जिसने बहुत सी कठिनाइयों को खेलते हुए भी मुसलमानों से संबंध नहीं किया। जो आज तक अपनी पवित्रता के कारण समस्त राजपूतों में शिरोमणि है, हमारा यह संकेत उदयपुर के राणा वंश से है। मिस्टर जस्टिस रानाडे ने अपने “मरहठा इतिहास” में भी इसी मत की पुष्टि की है। जबकि मुसलमानी इतिहास लेखक खफी खान भी यही लिखता है कि शिवाजी उदयपुर के राजवंश से थे।
राणा अजय सिंह ने 1303 ईसवी से 1326 ई 0 तक शासन किया था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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