सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों के लिए सरकारी नियमों का उल्लंघन करने में ये इकाइयां मददगार हैं। सार्वजनिक बैंकों को आज लग रहे भारी घाटे में मंत्रियों एवं अधिकारियों का यह दुराचरण मुख्य कारण है। जाहिर है कि घाटे में चल रहे बैंकों का लाभ में चल रहे बैंकों से विलय करने से मंत्रियों और अधिकारियों की यह धांधलेबाजी जारी रहेगी और बैंकों को घाटा लगता रहेगा, जैसा एयर इंडिया के साथ हुआ।
एयर इंडिया को होने वाले घाटे से तंग आकर सरकार ने इस कंपनी का निजीकरण करने का फैसला लिया है, जिसके लिए सरकार को बधाई। सरकार ने पाया कि एयर इंडिया को वापस अपने पैर पर खड़ा करना कठिन है, इसलिए इसे बेच देना उत्तम है, जैसे पुरानी कार को मालिक बेच देता है। लेकिन उसी कार को खरीददार ठीक करके चला लेता है। अर्थ हुआ कि समस्या कार में नहीं, बल्कि उसके पुराने मालिक में थी। यह सुखद सूचना है कि सरकार ने अपनी इस नाकामी को स्वीकार कर लिया है। यह तर्क सरकारी बैंकों पर भी उतना ही लागू होता है, जितना एयर इंडिया पर। इन्हें भी एयर इंडिया की तरह लगातार घाटा हो रहा है, लेकिन सरकार इनका निजीकरण करने के स्थान पर कमजोर सरकारी बैंकों का अच्छे बैंकों के साथ विलय करना चाहती है। कुछ ऐसा ही पूर्व में एयर इंडिया के साथ सरकार ने किया था। तब दो सरकारी कंपनियां थीं-इंडियन एयर लाइंस घरेलू, और एयर इंडिया विदेशी यात्राएं संपन्न करती थी। एयर इंडिया लाभ में चल रही थी, जबकि इंडियन एयर लाइंस घाटे में। सरकार ने सोचा कि दोनों का विलय कर देंगे तो सम्मिलित कंपनी लाभ कमाएगी, परंतु ऐसा नहीं हुआ। पूर्व में लाभ में चल रही एयर इंडिया भी घाटे में आ गई। जैसे किसी अच्छी और पुरानी कार का विलय कर दिया जाए यानी पुरानी कार का रेडिएटर नई कार में लगा दिया जाए, तो नई कार का सफल होना कठिन है। अब सरकार घाटे में चल रहे सरकारी बैंकों का लाभ में चल रहे सरकारी बैंकों में विलय करके इन्हें भी एयर इंडिया की तरह घाटे में ले जाने की तैयारी कर रही है। आश्चर्य नहीं कि लाभ में चल रहे पंजाब नेशनल बैंक ने प्रस्ताव पारित करके घाटे में चल रहे बैंकों का अपने साथ विलय करने का विरोध किया है।
मूल समस्या है कि मंत्री और अधिकारी निजीकरण को पसंद नहीं करते हैं। वाजपेयी तथा अरुण शौरी की जोड़ी इस विषय में अपवाद है। सार्वजनिक इकाइयों पर सरकारी नियम लागू नहीं होते हैं। अपने चेहतों को मंत्री और अधिकारी इन इकाइयों में नौकरी दिला देते हैं। उत्तराखंड से विलय के पूर्व उत्तर प्रदेश सरकार के एक सचिव चाहते थे कि मैं उत्तराखंड के आर्थिक विकास का रोड मैप तैयार करूं। उन्होंने कहा कि इस कार्य को सरकारी ठेके पर करने में पेंच है, इसलिए मैं गढ़वाल मंडल विकास निगम को कह दूंगा। वे ठेका दे देंगे, चूंकि उन पर सरकारी नियम कम लागू होते हैं। वह ठेका बाद में मुझे नहीं मिला, परंतु वह अलग विषय है। यह दृष्टांत बताता है कि सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों के लिए सरकारी नियमों का उल्लघंन करने में ये इकाइयां मददगार हैं। सार्वजनिक बैंकों को आज लग रहे भारी घाटे में मंत्रियों एवं अधिकारियों का यह दुराचरण मुख्य कारण है। जाहिर है कि घाटे में चल रहे बैंकों का लाभ में चल रहे बैंकों से विलय करने से मंत्रियों और अधिकारियों की यह धांधलेबाजी जारी रहेगी और बैंकों को घाटा लगता रहेगा, जैसा एयर इंडिया के साथ हुआ। सरकारी बैंकों के निजीकरण के विरोध में मुख्य तर्क ग्रामीण क्षेत्रों की सेवा का दिया जाता है। तर्क है कि निजी बैंकों की ग्रामीण एवं कमजोर क्षेत्रों में शाखा खोलने में रुचि नहीं होती है, चूंकि यहां लाभ कमाने के अवसर कम होते हैं। इंदिरा गांधी ने साठ के दशक में इसी कारण निजी बैंकों का राष्ट्रीकरण किया था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी बैंकों की पहुंच ज्यादा है। यहां प्रश्न है कि क्या निजी बैंकों को ग्रामीण क्षेत्रों में शाखा खोलने को प्रेरित नहीं किया जा सकता था? रिजर्व बैंक द्वारा देश के सभी बैंकों का नियंत्रण किया जाता है। वर्तमान के रिजर्व बैंक द्वारा सभी बैंकों को मजबूर किया जाता है कि वे छोटे उद्यमों को ऋण दें। ऐसा न करने पर बैंकों पर पेनल्टी लगाई जाती है।
इसी प्रकार रिजर्व बैंक द्वारा निजी बैंकों को मजबूर किया जा सकता था कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में शाखाएं खोलें अथवा ग्रामीण क्षेत्रों में शाखा खोलने पर सबसिडी दी जा सकती थी अथवा जिन बैंकों द्वारा पर्याप्त संख्या में ग्रामीण शाखाएं न बनाई गई हों, उन पर सेवा कर की दर बढ़ाई जा सकती थी। ग्रामीण शाखाओं के नाम पर सरकारी बैंकों को जो घाटा लग रहा है, वह अंतत: देश की जनता को ही भरना पड़ रहा है। सरकारी बैंकों में मंत्रियों और अधिकारियों की धांधलेबाजी से लगे घाटे की भरपाई करने की तुलना में प्राइवेट बैंकों को ग्रामीण क्षेत्रों में शाखा न खोलने पर पेनल्टी वसूल करना ज्यादा उत्तम है, लेकिन ऐसा करने से मंत्रियों और अधिकारियों के पर कट जाएंगे। इसलिए इन्होंने निजीकरण के स्थान पर विलय का विकल्प चुना है। सरकारी बैंकों के निजीकरण के विरोध में दूसरा तर्र्क रोजगार का है। कहा जा रहा है कि इन बैंकों में कार्यरत हजारों कर्मियों को प्राइवेट खरीददार बर्खास्त कर देगा। दलितों द्वारा यह तर्क भी दिया जा रहा है कि सार्वजनिक इकाइयों में आरक्षण लागू होने से तमाम दलितों को रोजगार मिला है, जिससे दलित समुदाय का विकास हुआ है। यह तथ्य सही है कि सार्वजनिक इकाइयों में दलितों को आगे बढऩे का अवसर मिला है, लेकिन दलितों को आगे बढ़ाने में सार्वजनिक इकाइयां ही घाटे में आ जाएं तो यह नाव को ओवरलोड करके डुबोने जैसा हुआ। इन्हीं उद्देश्यों को हासिल करने के दूसरे उपाय उपलब्ध हैं, जैसे जो कंपनियां रोजगार कम संख्या में बनाती हैं अथवा जो दलितों को कम संख्या में रोजगार देती हैं, उन पर जीएसटी एवं इन्कम टैक्स की दर को बढ़ाया जा सकता है। ऐसा करने से सरकार को राजस्व भी मिलेगा और कंपनियों के लिए रोजगार बनाना लाभप्रद भी हो जाएगा। इसके बावजूद इस सत्य को भी स्वीकार करना चाहिए कि निजीकरण की अपनी समस्याएं हैं। निजी कंपनियों द्वारा मुनाफाखोरी की जाती है। जैसे ब्रिटिश रेल का निजीकरण करने के बाद रेलगाडिय़ों की सुरक्षा कम हुई, परंतु यात्रा का मूल्य कम नहीं हुआ। इसी प्रकार अमरीका में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण से आम आदमी को नुकसान हुआ है। गार्जियन अखबार के अनुसार अमरीका द्वारा विश्व में स्वास्थ्य पर सर्वाधिक खर्च किया जाता है, परंतु स्वास्थ्य के मानकों पर अमरीका कोस्टारीका एवं क्यूबा जैसे देशों से भी पीछे है। इसके विपरीत उदाहरण भी उपलब्ध है। अपने देश में ही बिजली वितरण के निजीकरण के सुंदर परिणाम सामने आए हैं। उन्हीं उपकरणों एवं कर्मियों द्वारा आज बड़े शहरों में 20 से 22 घंटे बिजली उपलब्ध कराई जा रही है। हमारा टेलीफोन सेवा का भी ऐसा ही अनुभव रहा है। भारत में मोबाइल फोन सेवा का मूल्य विश्व के न्यूनतम स्तर पर है।अत: निजीकरण के बाद की व्यवस्था पर विचार करना चाहिए। प्राइवेट वितरण कंपनियों का नियंत्रण करने को राज्यों में बिजली नियामक आयोग बनाए गए हैं। टेलीफोन व्यवस्था का नियंत्रण करने को ट्राई बनाया गया है। अत: सरकारी बैंकों का निजीकरण करने के साथ-साथ बैंक नियामक आयोग बनाया जाए तो देश की जनता सरकारी बैंकों के घाटे को भरने से मुक्त हो जाएगी।