स्वदेशी राज्य की स्थापना कर शिवाजी ने बना दिया असंभव को संभव
निराले व्यक्तित्व के धनी शिवाजी
शिवाजी भारतीयता का प्रतीक थे, वीरता के पुंज थे और इसके उपरांत भी युद्घ में वह दुष्ट के साथ दुष्टता के तो पक्षधर थे, परंतु अपनी ओर से दुष्टता की पहल करने के विरोधी थे। इस भावना को आप युद्घ में सतर्कतापूर्ण मानवीय व्यवहार के रूप में समाहित कर सकते हैं, इस प्रकार की उच्चतम भावना भारत की विश्व को एक ऐसी देन है जिसे शेष विश्व समझने में असफल रहा। शिवाजी महाराज का आंकलन अथवा मूल्यांकन करते समय इतिहास के प्रत्येक गंभीर विद्यार्थी को उनके इस निराले व्यक्तित्व का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।
युद्घ में मानवता
ऑस्टे्रेलियन विश्वविद्यालय में एशियन अध्ययन में प्रोफेसर ए. एल. बाशम ‘द विण्डर दैट वाज इंडिया’ में कहते हैं :-”युद्घ में किस प्रकार से ऊंचे और न्यायपूर्ण नियमों का पालन होना चाहिए इसे मनु से भिन्न किसी अन्य प्राचीन विधि निर्माता ने नही बताया। हमारी दृष्टि में पुरातन भारतीय सभ्यता का सर्वोत्तम महत्वपूर्ण तत्व उसमंस निहित मानवता है। भारत एक ऐसा देश था जहां का वातावरण सदा प्रफुल्लता से परिपूर्ण रहता था। यहां के लोगों ने एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था में अपना स्थान बना लिया था जो शनै: शनै: विकसित हो रही थी। परस्पर के संबंधों में उनके बीच की भलमानसता तथा सज्जनता सर्वोच्च स्थिति में पहुंच गयी थी। किसी अन्य देश के प्राचीन इतिहास में ऐसा उदाहरण नही मिलता।
मुगलों और उसके पूर्व के काल के सुल्तानों ने भारत के सामाजिक वातावरण की प्रफुल्लता को छीन लिया था और राजनीति को विषाक्त कर दिया था। उस प्रकार की परिस्थितियों में देश में भलमानसता और सज्जनता का गला घोंटा जा रहा था और मानवता पूर्णत: आहत होकर छंटपटा रही थी। शिवाजी को किसी विधर्मी या किसी मुगल की बहन-बेटी से कोई लेना देना नही था, ना ही उसे अपने बड़े-बड़े हरम सजाकर उनमें मौजमस्ती करनी थी, उन्हें तो भारत को सजाना था और निश्चय ही उनका यह चिंतन उन्हें बहुत बड़ा बना देता है। महानता की ऊंचाईयों पर उनका आसन स्थापित कर देता है।”
शिवाजी महाराज के निराले व्यक्तित्व को परिभाषित करने में उपरोक्त उद्घरण वास्तव में हमारा मार्गदर्शन कर सकता है।
आर्यत्व के पुजारी शिवाजी
शिवाजी के निराले व्यक्तित्व का एक गुण उनका आर्यत्व का पुजारी होना भी था। शिवाजी हिंदुत्व के पूर्वज अर्थात आर्यत्व के पुजारी थे। जिसके विषय में श्री अरविंद (‘दि आर्य’, भाग-1) में कहते हैं-”आर्य शब्द है एक विशेष प्रकार के नैतिक तथा सामाजिक अनुशासन का द्योतक है। इस शब्द में ऐसा आदर्श निहित है जो संयमित जीवन, स्पष्टवादिता, शिष्टता, उच्चता, स्पष्ट व्यवहार, साहस भद्रता, पवित्रता, मानवता, दया, दुर्बलों की रक्षा, उदारता, सामाजिक नियमों के पालन, ज्ञान के प्रति उत्सुकता तथा सामाजिक दायित्व को पूरा करने का द्योतक है। मानवी भाषा में इस आर्य शब्द से अधिक उच्च इतिहास रखने वाला कोई अन्य शब्द नही है। ‘आर्य’ वह है जो मानव की उन्नति में बाधा बनने वाले सभी भीतरी तथा बाहरी अवरोधों पर विजय पा लेता है। वह सर्वत्र सत्य, औचित्य तथा स्वतंत्रता को पा लेता है।”
इस भाव और भावना से अभिभूत और पूरित शिवाजी औरंगजेब की जेल में भी जीवंतता की पगडंडियां खोज रहे थे और उन पगडंडियों के सहारे से ही अपने सिंहासन और भावी राज्य की ओर बढ़ रहे थे। लगता तो सब कुछ असंभव था-पर शिवा के लिए कुछ असंभव नही था-उन्हें बाहर निकलना था और बाहर निकलकर अपनी योजनाओं को मूत्र्तरूप देना था।
जेल से निकल भागे-व्यक्तित्व की विलक्षणता
औरंगजेब ने शिवाजी के कुमार रामसिंह से मिलने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। इसे शिवाजी ने समय के अनुसार उचित ही माना क्योंकि इससे उनके जेल से निकल भागने पर कुमार रामसिंह पर कोई आपत्ति नही आनी थी। पर वह समझ गये थे कि जितनी देर भी अब मुगलों के यहां रहा जाएगा, उतना ही हानिकारक है, और जीवन के लिए कुछ भी हो जाना संभव है।
औरंगजेब के ‘आलमगीरनामा’ के अनुसार शिवाजी और उनका पुत्र संभाजी आगरा के किले से 19 अगस्त 1666 को भाग निकले। शिवाजी की व्यवस्था और भागने का प्रबंध इतना चतुराई पूर्ण था कि औरंगजेब के सैकड़ों सुरक्षा प्रहरी भी उनके भागने की भनक नही ले पाये, कई सुरक्षा चक्रों से शिवाजी बड़ी सहजता से निकलकर बाहर चले गये। उनकी चतुराई और संकट में भी धैर्य से काम लेने की कला का सभी लोहा मान गये।
भागने की किसी को भनक तक नही लगी
पुरोहित ब्राह्मण से उनके विषय में पूछताछ की गयी-”तुमने शिवाजी को अपने कक्ष में कब अंतिम बार देखा था?” उसने उत्तर दिया कि ”रात की एक डेढ़ घड़ी पहले। उन्होंने मेवे-बादाम मंगाये और खाये। वे कब किले से बाहर निकल गये, पता ही नही चला।” शाही फरमान जारी हुआ-”बेवफा शिवा भाग गया है। कुमार की मनसब से 1000 जात कम कर दी जाए।”
कुमार राम सिंह को दिया गया दण्ड
शिवाजी के भाग जाने की सूचना भी बादशाह को सर्वप्रथम जाकर कुमार रामसिंह ने ही दी थी। जिस पर बादशाह ने उससे कह दिया था कि शिवाजी तुम्हारी निगरानी में था, इसलिए उसे खोजना भी तुम्हारा दायित्व है। एक हजार व्यक्ति पहरे पर लगे हुए थे-और शिवाजी उन सबको मूर्ख बनाकर निकल भागे यह शिवा के सिवा भला और किस व्यक्ति के वश की बात थी?
जेल से भागने के बाद की परिस्थितियां
शिवाजी जेल से भागकर कैसे अपने मराठा राज्य तक पहुंचे? यह भी एक रोमांचकारी और वीरता से भरी हुई कहानी है। जिसमें हर पग पर उनकी वीरता, साहस और विवेकशीलता का परिचय मिलता है। उस सारे घटनाक्रम पर भी लोगों ने पूरी की पूरी पुस्तकें ही लिख दी हैं। उनके प्रयास वंदनीय हैं, क्योंकि देश और धर्म के लिए अपना सर्वस्व होम करने वाले शिवाजी जैसे महान देशभक्तों का महिमामंडन होना ही चाहिए। जदुनाथ सरकार जैसे इतिहासकारों का अनुमान है कि शिवाजी 12 सितंबर को राजगढ़ में पहुंच गये थे। राजस्थानी पत्रों से हमें पता चलता है कि शिवाजी 31 दिसंबर 1666 को राजा जयसिंह को मिला था। तब जयसिंह ने ही बादशाह को सूचित किया कि शिवाजी राजगढ़ लौट आया है।
औरंगजेब शिवाजी के बौद्घिक चातुर्य के समक्ष सिर पीटकर रह गया। उसे देश के अन्य भागों से हिंदू स्वतंत्रता सैनानियों की पहले ही बड़ी भारी चुनौती का सामना करना पड़ रहा था। अब उसने दक्षिण से निकलने वाले इस ‘हिंदू शेर’ को अपने पिंजड़े में डालकर कुछ प्रसन्नता की अनुभूति की थी, परंतु उसकी यह प्रसन्न्ता शीघ्र ही दूर हो गयी। अब वह समझ गया कि क्रांतिकारियों का सिरमौर यदि जेल में नही रह सका है तो अब उसे पुन: जेल में डाल पाना सर्वथा असंभव होगा। विश्व इतिहास में ऐसे वीरों के कितने किस्से मिलेंगे, जो क्रूर तानाशाही को मूर्ख बनाकर जेल से बाहर भागने में सफलता प्राप्त कर सके?
शिवाजी अकेले महाराष्ट्र के नही हो सकते
शिवाजी ने यह सब कुछ ‘मां भारती’ के लिए किया, उसकी स्वतंत्रता के लिए किया? अत: शिवाजी अकेले महाराष्ट्र के नहीं हो सकते, वह संपूर्ण भारत के हैं और संपूर्ण भारत में ही उनकी प्रतिमाएं दिखनी चाहिएं। जिस देश के क्रांतिकारी महापुरूषों को इतिहास सम्मान देता है और समाज में उसके स्मृति स्तंभ स्थापित किये जाते हैं उस देश की युवा पीढ़ी किसी भी राष्ट्रीय संकट से अथवा विषम परिस्थितियों से बड़ी सहजता से निकल जाती है।
औरंगजेब के अत्याचार
शिवाजी का कभी मित्र रहा नेताजी पालकर जो कि शिवाजी से गद्दारी कर गया था, को औरंगजेब ने पकडक़र मुस्लिम बना दिया। बाद में 1689 ई. में संभाजी को बादशाह औरंगजेब की सेना ने पुन: गिरफ्तार किया था (यह शिवाजी के निधन के पश्चात की घटना है) तो उसे गिरफ्तार करते ही उसकी आंखें फोड़ दी गयी थीं।
शोक में जयसिंह चल बसा
जयसिंह के लिए यह असीम कष्टदायक स्थिति थी कि उसने जिस परिश्रम से शिवाजी को आगरा की जेल तक पहुंचाया था उससे वह निकल भागने में सफल रहे और अब दक्षिण में शिवाजी उसी के लिए चुनौतियां और बाधाएं प्रस्तुत करेगा। इससे भी अधिक दुख उसे इस बात का था कि रामसिंह की मनसबी कम कर दी गयी थी। जयसिंह की योजना शिवाजी को मरवाने की भी नही थी, परंतु वह उसे दक्षिण में रहकर किसी प्रकार की चुनौतियों के रूप में स्वयं को स्थापित करते भी नही देखना चाहता था। उसने शिवाजी की वीरता और देशभक्ति को जेल के सीखचों में घुट-घुटकर मर जाने की योजना बनायी थी। पर उसका दुर्भाग्य रहा कि बादशाह की पूर्ण सुरक्षा व्यवस्था को धता बताकर शिवाजी ने पुन: उसी की छाती पर आ दाल दली और उसके लाडले रामसिंह की मनसबदारी को और कम करा गया। जयसिंह इसी पीड़ा में 27 अगस्त 1667 ई. को संसार से चल बसा था।
मानुची का कहना है कि जयसिंह की मृत्यु से बादशाह को कोई विशेष दुख नही हुआ। हां, रामसिंह को जयपुर का राजपद अवश्य दे दिया गया, और उसकी मनसब पूर्व की भांति ही प्रदान कर दी गयी। शिवाजी ने फिर चलाया विजय अभियान
शिवाजी ने राजगढ़ पहुंचकर पुन: अपनी राजनीतिक शक्ति को स्थापित करने का अभियान आरंभ किया। छह माह में ही शिवाजी ने सिंहगढ़, पुरंदर रोहिड़ा, लोहगढ़ और माहुली के दुर्गों को पुन: जीत लिया।
सिंहगढ़ के जीतने की कहानी बड़ी रोमांचक है। सभासद बाबर में इस किले के जीतने की घटना का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :-
”शिवाजी ने तय किया कि मुगलों को जो 27 किले उन्होंने दिये हैं वे वापस जीत लिये जाएं। मोरोपंत पेशवा, निलोपंत मजूमदार और अण्णा जी पंत सुरनीस को कहा गया कि वे कूटनयिक चाल से ये किले जीतें। तानाजी मालुसरे पैदल सेना के सेनानी पांच सौ वीर लेकर कोंडाणा किले के पैरों के पास पहुंचे। दो मावलों को किले की दीवार पर चढऩे के लिए चुना। ऊपर पहुंचकर उन्होंने रस्से छोड़े। इस तरह से तानाजी और तीन सौ वीर किले पर पहुंचे। किलेदार राजपूत उदयभानु था। उसने शत्रु के आने की बात सुनी। राजपूत 1200 थे, जिनमें तोपची, धनुष चलाने वाले कुशल तलवार चलाने वाले थे, पूरी तरह तैयार थे। जलती मशालें उन्होंने मावलों पर फेंकी। मावलों ने हर-हर महादेव कहा और टूट पड़े। एक पहर तक घमासान लड़ाई चलती रही। 500 राजपूत मारे गये। चालीस या पचास मावले भी रणभूमि पर धराशायी हुए, उदयभानु और तानाजी मालुसरे आमने-सामने आये। ये दोनों ही बड़े बहादुर और रणबांकुरे थे। दोनों ने एक दूसरे पर हमला किया। तानाजी के बांये हाथ की ढाल टूट गयी। दूसरी ढाल नही मिली और तब तानाजी ने अपने बांये हाथ की ढाल बना ली और लड़ता रहा। दोनों मारे गये।”
…कुल बारह सौ व्यक्ति मारे गये। किला जीत लिया गया। घोड़ों के अस्तबल की घास की गंजियां जलाकर इशारा दिया गया। राजा शिवाजी ने राजगढ़ से आग देखी। उन्होंने कहा-”किला फतह हुआ। विजयश्री मिली। दूसरे दिन जब खबर मिली कि तानाजी इस युद्घ में मारे गये, तो शिवाजी ने कहा-‘गढ़ आया पर सिंह गया।’ उन्हें तानाजी मालुसरे की मृत्यु पर गहरा शोक हुआ। किले में सेना रखी गयी। सूर्याजी (तानाजी का भाई) को तानाजी के स्थान पर रखा गया। इस किले के जीतने के पश्चात केवल चार माह में शिवाजी ने 26 किले और जीतकर अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा को स्थापित करने का चमत्कारिक कार्य कर दिखाया। यह उस काल में बड़े साहस की बात थी कि इतने कम समय में कोई व्यक्ति 26 किले जीत ले।”
शिवाजी का राज्यारोहण
धीरे-धीरे अब वह घड़ी आ रही थी-जब मां भारती अपने प्रतापी, शौर्य संपन्न, वीर्य संपन्न, श्री संपन्न और तेजस्वी सपूत शिवाजी को राजा के रूप में अभिषिक्त होता देखना चाहती थी। वैसे हर मां अपने पुत्र का सही समय आने पर जैसे विवाह करती है और अपनी प्रसन्नता व्यक्त करती है, इतना ही नही अपने पति की मृत्यु हो जाने पर मां अपने हाथों पुत्र के सिर पर पगड़ी रखकर अपने वैधव्य को भूलकर भी उसे आशीर्वाद देती है। वैसे ही मां भारती, जिसका सुहाग आदिकाल से शौर्य और पराक्रम से संपन्न रहा है, और जो सदा शौर्य संपन्न और पराक्रमी वीरों को अपना राजा बनाकर प्रसन्नता व्यक्त करती आयी है, वह शिवाजी को अपना राजा बनते देखने के क्षणों के लिए बहुत ही लालायित थी। क्योंकि उसका शाश्वत संबंध ऐसे ही पराक्रमी और शौर्य संपन्न वीर पुत्रों से ही रहा है।
अब शिवाजी अपने वास्तविक उद्देश्य के लिए राजा पद को सुशोभित करना चाह रहे थे, तो जून 1674 ई. को वह घड़ी आ ही गयी जब उनका राज्यारोहण हुआ।
राज्यारोहण के समय का वर्णन
डा. कमल गोखले ने कहा है-”यह दिन शिवाजी महाराज के जीवन को ही नही उनके चरित्र, महाराष्ट्र तथा जनमानस के लिए भी एक अभूतपूर्व घटना थी। शिवाजी ने राज्याभिषेक से बीस वर्ष पूर्व अपने शौर्य एवं धैर्य से अपने पिताश्री द्वारा अर्जित जागीर को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित किया था। यवनों तथा विदेशों से आये पश्चिमी व्यापारियों पर शिवाजी के पराक्रम की पूरी तरह से धाक जम चुकी थी। उन्होंने गढ़ और किले जीते थे, थल सेना तथा नौसेना का गठन किया था। इस कार्य के पीछे शिवाजी का प्रमुख उद्देश्य था-अपनी प्रजा में विश्वास जगाना। वे अपनी प्रजा के प्रिय नेता थे। उन्हें अपने रक्षक से स्थायित्व की भावना प्राप्त हुई थी।……यद्यपि शिवाजी अपने प्रांत में सर्वसत्ताधारी थे, लेकिन जब तक वे राजा की पदवी प्राप्त नही कर लेते, सामान्य नागरिक ही माने जाते। वे एक नागरिक की हैसियत से प्रजा की निष्ठा एवं भक्ति पर कोई कानूनी अधिकार प्राप्त नही कर सकते थे।…और जब तक प्रमाणिक अधिकारों की पवित्रता एवं सत्यता प्राप्त नही कर सकते थे, तब तक वैध रूप से किसी भूमि पर न तो अधिकार कर सकते थे। वैसे महाराष्ट्र में एक राज्य की स्थापना तो हो चुकी थी, लेकिन वह राज्य राजाविहीन था। शिवाजी महाराज को राज्यपद की एवं अधिकार की कभी कोई अभिलाषा नही रही, लेकिन इन सब कठिनाइयों को देखते हुए शास्त्रोक्त रूप से राज्याभिषेक करा लेना ही एक युक्तिपूर्ण उपाय था।….जब शिवाजी की जय जयकार हो रही थी, राज्याभिषेक की चर्चा हो रही थी उधर मोहिते जाधव तथा निबालकर आदि सरदार घरानों में शिवाजी के प्रति ईष्र्या होने लगी। शिवाजी इन लोगों की आंखें खोलना चाहते थे कि यवनों की चाटुकारिता की अपेक्षा गर्व से रहना ही श्रेयस्कर है। शिवाजी चाहते थे कि ये सरदार घराने भी आगे आयें और देश को विदेशियों के शिकंजे से मुक्त कराकर स्वतंत्र राज्य की स्थापना में सहयोग करें।
शिवाजी ने जिस पराक्रम का प्रदर्शन किया, जो ख्याति अर्जित की, जो राज्य अर्जित किया राज्याभिषेक और राजा का पद भी उसी का ही एक परिणाम है। जो लोग सोचते हैं कि शिवाजी ने संत-महंतों को विशेष महत्व देकर धर्म की रूढिग़त कल्पनाओं को नया रूप दिया तो वह ये भूल जाते हैं कि प्रबल सत्ताधारियों से विरोध करने के लिए जनता का साथ लेकर उनमें उत्तेजना भरना भी जरूरी है और जनता जो धर्म परंपरा निष्ठा में अटूट श्रद्घा रखती है उसे उसी दृष्टि में उत्साहित किया जा सकता है।
शिवाजी महाराज अभिषिक्त राजा बने, लेकिन उनका उद्देश्य एवं ध्येय समाज एवं देश कल्याण ही रहा। राजपद को लेकर उन्होंने समाज को कभी लूटा नहीं। जो दुखी एवं निरीह थे उन्हें शिवाजी ने सांत्वना दी- स्वराज्य की प्रतिष्ठा पाने की।”
राज्याभिषेक से पूर्व उठे कई प्रश्न
शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक से पूर्व कई प्रश्न उठे, उनमें सर्वप्रथम था-शिवाजी के वर्ण का। कवि भूषण को उद्घृत करते हुए डा. कमल गोखले ने आगे लिखा है-”कवि भूषण ने अपनी प्रख्यात कृति ‘शिवराज भूषण’ में भौंसले घराने को सिसोदिया राजपूत क्षत्रिय लिखा है। इसी प्रकार शाहजी महाराज ने कर्नाटक से बीजापुर दरबार को एक पत्र में यह सम्मानपूर्वक लिखा बताते हैं कि ‘आम्ही तो राजपूत’-हम तो राजपूत हैं। उनका पराक्रम उनका शौर्य, उनकेे गुण-कर्म, स्वभाव सब क्षत्रियों वाले थे, वे क्षत्रिय ही थे यह निर्विवाद है। पर राज्याभिषेक के समय यह प्रश्न उठाया गया कि उनका उपनयन (यज्ञोपवीत संस्कार) नहीं हुआ था। फिर उसका भी हल निकाला गया कि राज्याभिषेक से पूर्व यदि उनका यज्ञोपवीत किया जाए, तो यह कठिनाई भी दूर हो जाएगी और वे छत्र सिंहासन के अधिकारी भी होंगे, यह निर्णय दिया था तत्कालीन विद्वान गागा भट्ट तथा अनंत देव भट्ट ने, जो इस धार्मिक संस्कार के प्रमुख पुरोहित थे इसलिए शिवाजी ने धर्म और परंपरा को मानते हुए पंडितों को चर्चा का अवसर प्रदान किया और उन्हीं की राय को स्वीकार किया।
तीसरी कठिनाई थी कि यदि युद्घ में शिवाजी के हाथ से ब्रह्म हत्या हुई हो तो वे राज्याभिषेक के अधिकारी नहीं हैं। उस दोष को नष्ट करने के लिए ‘तुला पुरूषदान’ की विधि का उपाय समझाया गया। शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक समारोह में आने वाली सभी अड़चनों का समाधान महापंडित गागा भट्ट की विशुद्घ शास्त्रीय पद्घति से किया गया। शिवाजी ने अपने राज्यारोहण से पूर्व अपने विभिन्न धार्मिक स्थलों और देवताओं के दर्शन किये। सारी कार्यवाही विधि-विधान और शास्त्रसम्मत ढंग से पूर्ण हो-इस बात का विशेष ध्यान रखा गया।
लग गयी थी उपहारों की झड़ी
राज्यारोहण के लिए सारी तैयारियां वैसे ही की गयी थीं जैसे प्राचीन काल में किसी सम्राट के राज्यारोहण के अवसर पर की जाती थीं। वेदमंत्रों की ध्वनि हो रही थी-बिगुल वाद्य एवं तोपों का गर्जन हो रहा था। ब्राह्मणों ने मंगलाचार वाचन किया तथा राजा को आशीष दिया। प्रधानमंत्री मोरोपंत ने महाराज को प्रणाम किया। आठ हजार स्वर्ण मुद्राएं उन पर से न्यौछावर कीं।
अनेक शताब्दियों के पश्चात आज भारत में स्वदेशी राज्य की स्थापना हो रही थी। आविसडेन ने इंग्लैंड की ओर से शिवाजी को एक हीरे की अंगूठी तथा साढ़े सोलह सौ रूपये के अन्य मूल्यवान उपहार दिये।
अपना संवत प्रारंभ किया
महाराज ने अपने राज्यारोहण के पश्चात अपना राज्याभिषेक शक-सम्वत प्रचलित किया। फलस्वरूप शालिवाहन के पश्चात भारत को दूसरा संवतकत्र्ता राजा प्राप्त हुआ। यह राज्याभिषेक भारतीय अस्मिता के पुनरूत्थान का प्रतीक था। अभारतीय-परकीय शब्दों पदचिन्हों को नकारते हुए शिवाजी ने एक नये वातावरण के निर्माण का प्रयास आरंभ किया।
शिवाजी ने अपनी शपथ के लिए बड़े सुंदर शब्दों का प्रयोग किया। उन्होंने कहा था कि वे धर्म और नियम के अनुसार ही शासन करेंगे।
असंभव को संभव कर दिया
शिवाजी ने असंभव को संभव कर दिखाया था। जिस समय कोई साधारण व्यक्ति व्यक्ति क्रूर सत्ता के अत्याचारों के कारण सिर उठाकर चलने में भी संकोच करता था, उस समय शिवाजी ने संपूर्ण हिंदू समाज को आत्माभिमान से भरने और जीने का मार्ग बताया, यह उनके लिए ही नही इस सनातन राष्ट्र के लिए भी गर्व और गौरव का विषय था।
आज हम यदि हिंदू के रूप में इसदेश में जीवित हैं तो उसमें शिवाजी महाराज का महत्वपूर्ण योगदान है। जिसे विस्मृत करना अपने पैरों पर अपने आप कुल्हाड़ी मारने के समान होगा। कोई भी जीवंत जाति ऐसा कोई आत्मघाती पग नही उठा सकती, जिससे उसके पूर्वजों के सम्मान को क्षति पहुंचे, तो आर्यजाति ही ऐसा क्यों करने लगी है?
क्रमश:
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है। -साहित्य संपादक)