गीता का तीसरा अध्याय और विश्व समाज

यहां श्रीकृष्णजी अर्जुन को पुन: उसके धर्म का स्मरण करा रहे हैं कि तू स्वधर्म को पहचान और उसी के अनुसार आचरण कर, अर्थात कर्म कर। यदि तू यह मान रहा है कि कर्म करना ही नहीं है अर्थात स्वधर्म का पालन करना ही नहीं है तो यह भी तेरी भूल है। अज्ञान है। तू इस अज्ञान से बाहर निकल।
कर्मबन्धन संसार का एक ऐसा रोग है जो हर व्यक्ति को लग ही जाता है। इसलिए कुछ लोगों ने यह मिथ्या धारण बना ली कि कर्म करना ही छोड़ दिया जाए। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। इन लोगों ने अपनी अकर्मण्यता या निकम्मेपन को छिपाने के लिए गीता का उदाहरण देना आरम्भ कर दिया कि गीता में श्रीकृष्ण जी कह गये हैं ऐसा। इससे भारत का और साथ ही साथ विश्व का भी पतन हुआ। विश्व का इसलिए कि संसार के लिए भारत ही तो प्रकाशस्रोत था, जब प्रकाश स्रोत ही अंधियारे में आ जाए तो शेष विश्व की स्थिति तो और भी अधिक दयनीय हो ही जानी थी। श्री कृष्णजी गीता में निकम्मेपन को कहीं भी बढ़ावा देते हुए दिखायी नहीं दिये हैं। उन्होंने तो यह कहा है कि यज्ञीय भावना से कर्म करो, उससे कर्म का बन्धन नहीं पडऩे वाला। गीता पग-पग पर हमें कर्मशीलता का सन्देश देती है, कर्मयोगी बने रहने का उपदेश देती है, और सदा अपने कर्मों पर पैनी नजर रखने का आदेश देती है।
श्रीकृष्णजी कहते हैं कि इस प्रकार की अवस्था को प्राप्त करके कर्म की आसक्ति शिथिल हो जाती है और व्यक्ति के जीवन का उद्घार होने लगता है। श्रीकृष्णजी कहते हैं कि प्राचीनकाल में प्रजापति ने भी इस संसार की उत्पत्ति यज्ञीय भावना से ही की थी। अत: मनुष्य मात्र के लिए भी यही उचित होगा कि वह भी अपने कार्यों को यज्ञीय भावना से ही पूर्ण करे। जब मनुष्य का जीवन यज्ञीय भावना से अर्थात लोककल्याण की उत्कृष्टतम भावना से भर जाता है, तो संसार स्वर्ग बनने लगता है। मनुष्य को चाहिए कि वह संसार को इसी भावना से आगे बढ़ाने का यत्न करे। वैसे भी परमपिता परमात्मा हमारे पिताओं का पिता है।
पिताओं का पिता परमात्मा हम सबका है एक।
सन्तानों के रूप में जग के प्राणी अनेक।।
हम सभी उसी दिव्य ज्योति की दिव्य सन्तानें हैं। इससे हमारे भीतर अपने पिता (परमपिता परमेश्वर) का यज्ञीय भावना से कर्म करने का दिव्य संस्कार वैसे ही आ जाना चाहिए जैसे हमारे भीतर हमारे लौकिक पिता के संस्कार आनुवंशिक रूप से आ जाया करते हैं। जब हम अपने सभी कार्यों को यज्ञीय भावना से करने लगते हैं तो उस समय यज्ञ हमारे लिए कामधुक अर्थात हमारी सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाला बन जाया करता है।
यज्ञीय भावना का संसार के लोगों में आ जाना मानो संसार में प्रेम की सृष्टि करने के समान है। संसार में वर्तमान में क्लेश-कलह इसीलिए व्याप्त है कि संसार के लोगों के कार्य यज्ञीय भावना से सम्पन्न नहीं हो रहे हैं। यदि हर व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति यज्ञीय भावना से सेवा भावी बन जाए, गुरू आचार्यादि, ज्येष्ठ-श्रेष्ठों के प्रति इसी भाव से रहने लगे, अपने अन्य परिजनों प्रियजनों और अन्त में संसार के सभी प्राणियों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करने लगे तो सारे सम्बन्धों की सूखी फसल को पुन: प्रेम का जीवन जल मिल जाएगा। हर कार्य में हमने स्वार्थ खोजना आरम्भ कर दिया और स्वार्थ के लिए ही सारे कार्यों को करने लगे-जिससे प्रेम का स्रोत सूख गया। आजकल जिसे लोग ‘प्रेम’ के नाम से जानते हैं-वह तो वासना है। प्रेम में सृष्टि है, और वासना में विनाश है। प्रेम सृजनात्मक है, वासना विध्वंसात्मक है, इसी प्रकार प्रेम सकारात्मक है तो वासना नकारात्मक है। इस अन्तर को हम भूल गये। विनाश की वासना की माला जपकर हम प्रेम की सृष्टि करना चाहते हैं-स्वार्थ की खेती करके प्रेम की फसल उगाना चाहते हैं-यही हमारे दु:खों का कारण है। श्री कृष्णजी की गीता कह रही है कि सबके प्रति नि:स्वार्थ वत्र्तने लगो, यज्ञीय भावना से सबके कल्याण में लगे रहो। फिर देखना जितनी शक्ति आप दूसरों के कल्याण के लिए लगाओगे-उससे हजार गुणी शक्ति सब मिलकर तुम्हारे कल्याण के लिए लगाएंगे।
श्रीकृष्णजी कहते हैं कि यज्ञ की भावना से प्रसन्न होकर देवता अर्थात तुम्हारे बड़े बुजुर्ग ज्येष्ठ जन तुम्हें इष्ट अर्थात इच्छित पदार्थों को देंगे। श्रीकृष्णजी कहते हैं कि इन बड़े-बुजुर्गों द्वारा दिये गये पदार्थों का भोग भी अकेले मत करना। उन्हें भी बांटकर प्रयोग करना। यदि अकेले उपभोग किया तो ऐसा करने से तुम चोर कहलाओगे।
वेद भी ‘केवलाघोभवती केवलादी’ कहकर हमें प्राचीनकाल से ही सचेत करता आया है कि यदि अकेले रहकर खाया तो समझना कि पाप खा लिया है। हमारे गांव-देहात में भारतीय संस्कृति आज भी बची हुई है, तो उसका कारण यही है कि वहां लोग आज भी भोजन को बांटकर खाते हैं। आजकल रेलों में, बसों में या अन्य सार्वजनिक स्थलों पर लिखा होता है कि किसी के दिये हुए खाद्य पदार्थ को न खायें। ऐसी व्यवस्था इसलिए आ गयी कि मनुष्य स्वार्थी होता चला गया। जिन कार्यों को करना वह पाप समझता था अब वे उसकी दिनचर्या में आ गये हैं। इसलिए स्वार्थ सिद्घि के लिए व्यक्ति आपको भोजन में भी क्या खिला दे कुछ पता नहीं। मनुष्य जिसे अपनी सभ्यता और उन्नति कह रहा है वह तो उसकी असभ्यता और अवन्नति का प्रतीक है। बांटकर खाने का प्रचलन मनुष्य ने सभ्यता के नाम पर बन्द कर दिया या कर रहा है तो इसे आप असभ्यता नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे?
मनुष्य की इस प्रवृत्ति का मनुष्य ही शिकार न बन जाए इसलिए अब सार्वजनिक स्थलों पर यह लिखा जाने लगा है कि किसी के दिये हुए खाद्य पदार्थों का प्रयोग मत करना। वास्तव में मनुष्य को गीता का यज्ञीय भावना से कर्म करने का उपदेश दिया जाना अपेक्षित था। किसी के दिये खाद्य पदार्थों को हम प्रयोग न करें-ऐसी चेतावनी देना उतना अच्छा नहीं है जितना अच्छा यह लिखा जाना होता है कि ‘सफर में एक दूसरे को भोजन बांटकर खायें।’ नकारात्मक विधि या नियम मनुष्य समाज को और भी बिगाड़ता है, जबकि सकारात्मक नियम ही नियम होता है और सकारात्मक विधि ही विधि होती है। सामाजिक समरसता निषेधात्मक या नकारात्मक विधि से नहीं बन सकती-वह तो सकारात्मक विधि से ही स्थापित होगी। ऐसे में जो लोग खाद्य पदार्थों में कोई विषैली वस्तु मिलाकर अपना स्वार्थ सिद्घ करते हैं-उन्हें भी यह समझाया जाना आवश्यक और अपेक्षित था कि यह तुम पाप कर रहे हो, तुम्हारा यह कार्य यज्ञीय नहीं है, इसलिए तुम समाज के लिए एक अभिशाप हो।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि जो सन्त लोग यज्ञ के पश्चात बचे यज्ञ शेष का ही उपभोग करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। पापी लोग अपने लिए ही भोजन पकाते हैं, जबकि यज्ञीय भावना से कार्य करने वाले लोग अपने भोजन में से अन्यों को भी भोजन कराते हैं और उसमें आनन्दानुभूति करते हैं। जो लोग अपने लिए ही भोजन पकाते हैं, वे तो मानो पाप का ही भोजन करते हैं।
चोर, डकैत या लुटेरा व्यक्ति कभी आपको कोई भी कार्य यज्ञीय भावना से करता हुआ दिखायी नहीं देगा और ना ही वह भोजनादि को बांटकर खाएगा। जबकि एक सन्त यज्ञीय भावना से ही कार्य करता दिखायी देगा। उसे आप केले या मिठाई देकर आयें, वह उन्हें आपके सामने ही या आपके वहां से उठने के पश्चात दूसरे लोगों में बांट देगा।

Comment:

Latest Posts