गीता का तीसरा अध्याय और विश्व समाज
सन्त का यह कार्य आपको शिक्षा दे रहा है कि यज्ञीय बन जाओ, जो भी कुछ मिलता है-उसे बांट दो। ज्ञान को भी बांट दो और मिले हुए दान को भी बांट दो। चोर, डकैती या लुटेरा व्यक्ति ऐसा क्यों नहीं कर पाता? इसका कारण यही है कि चोर, डकैत या लुटेरे व्यक्ति ने जब चोरी की या लुटेरे व्यक्ति ने जब चोरी या डकैती डाली या लूट की-तो उसने उसी समय अपनी यज्ञीय भावना की भी हत्या कर दी थी। प्रत्येक पाप कार्य के करने से पूर्व हम अपनी श्रेष्ठ भावनाओं का, यज्ञीय भावनाओं का, हृदय की आवाज का और अपने भीतर बैठे आत्मा का हनन करते हैं। पहले इनका हनन होता है, बाद में हमारा पतन होता है। इसलिए श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं कि उस पतन की अवस्था का सामना न करना पड़े-उससे उत्तम होगा कि हम अपनी भावनाओं को यज्ञीय बना लें। बुराई से बचने का सबसे अच्छा रास्ता यही है कि अच्छाई को अपना लो। जब अच्छाई पहले से ही घर में बैठी मिलेगी तो बुराई को वहां झांकने का भी अवसर नहीं मिलेगा। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बुराई वहीं आती है जहां अच्छाई का अभ्यास कमजोर पड़ जाता है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि अर्जुन! तू भी युद्घ को संसार के कल्याण की भावना से अर्थात यज्ञीय भावना प्रेरित होकर लड़, इसमें अपना स्वार्थ मत देख, अपितु लोक कल्याण का हित देख। इस प्रकार तू स्वार्थ से मुक्त होकर परमार्थ के साथ जुड़ जाएगा और जैसे ही तू परमार्थ से जुड़ेगा वैसे ही कर्म की आसक्ति की केंचुली से बाहर आ जाएगा। तुझे यह समझना चाहिए कि अन्न, औषधियां, वनस्पतियां, पर्जन्यादि ये सभी यज्ञीय भावना से कार्य कर रहे हैं। जल से वाष्प बन रहा है, वाष्प से बादल बन रहे हैं और बादल फिर लोककल्याण के लिए घर-घर जाकर बरस रहे हैं। ईश्वर ने घर-घर जाकर अपनी अच्छाई को बांटने की (जिसे लोग आजकल ‘होम डिलीवरी’ कहते हैं) की कैसी व्यवस्था की है?-तू इस यज्ञीय सृष्टिचक्र को समझ, यहां सभी एक दूसरे के कल्याण में लगे हैं-स्वार्थ कहीं नहीं है।
यदि दुर्योधन जैसे लोग स्वार्थ के वशीभूत होकर इस समय युद्घोन्मादी हो गये हैं तो तुझे चाहिए कि ऐसे स्वार्थी लोगों का अन्त कर ईश्वर की यज्ञीय भावना से चल रही सृष्टि की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाये रखने में तू सहयोगी बन। यदि तू ऐसा करेगा तो तेरा जीवन ही धन्य हो जाएगा। यही तेरा धर्म है और तुझे इस समय निजी धर्म को पहचानने की आवश्यकता है। तू याद रख कियज्ञ की उत्पत्ति कर्म से होती है, कर्म की उत्पत्ति ज्ञान से होती है और ज्ञान की उत्पत्ति अक्षर अविनाशी परमेश्वर से होती है। यह अक्षर अर्थात सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ में सदा विद्यमान रहता है।
यज्ञीय भाव से चल रहा सृष्टि का यह चक्र।
इसी भाव से बढ़ते रहो टूट न जाए चक्र।।
जो लोग इस यज्ञीय भावना को या यज्ञीय सृष्टि चक्र को आगे नहीं चलाते-वे अघायु होते हैं। (पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस शब्द को लोग आज भी ‘अंघायी’ कहते हैं। इस शब्द के प्रचलन से पता चलता है कि गीता का उपदेश हमारे लोगों में किस प्रकार रचा-बसा हुआ है। यह हो सकता है कि उन्हें इस शब्द की उत्पत्ति की जानकारी न हो, परन्तु इसके प्रयोग से यह तो पता चलता ही है कि गीता-ज्ञान हमारा किस प्रकार मार्गदर्शक रहा है।) अघायु वे होते हैं- जो उन्मादी, उग्रवादी, युद्घोन्मादी, पापमय जीवन (अघ=पाप, आयु=जीवन) वाले होते हैं, जो किसी पर अत्याचार करते हैं या ऐसे कार्य कराते हैं-जिनसे किसी का या समाज का विनाश सम्भावित हो। उन्हें देखकर ही लोग कहा करते हैं कि तू तो अंघायी कर रहा है, अर्थात ऐसा कार्य कर रहा है-जिसका परिणाम विनाश होगा। इस समय दुर्योधनादि अघायु होने से ‘अंघायी’ कर रहे हैं-तुझे उन का अन्त करने के लिए हथियार उठा लेने में देर नहंी करनी चाहिए। ऐसे अघायु लोग संसार में व्यर्थ ही जीते हैं अर्थात उन्हें जीने का अधिकार नहीं है। तुझे ऐसे लोगों का अन्त करने में कोई देर नहीं करनी चाहिए।
आत्म तृप्त हो जाओ
गीता कहती है आत्म तृप्त हो जाओ। अपनी ही आत्मा में आनन्द लेने लगो। ज्ञान के विषय में आत्मा में तड़प पैदा कर लो, और अभीप्सा वाले बन जाओ। यदि ऐसा कर लोगे तो तुम्हें संसार के अनावश्यक राग-द्वेष अपनी ओर आकृष्ट नहीं करेंगे। आत्मतृप्त व्यक्ति जब आत्मा के संसार में ही आनन्द लेने लगता है, रति करने लगता है तो वह किसी दूसरे के अधिकारों का हनन करने के विषय में सोच भी नहीं सकता। दुर्योधन आत्मरत नहीं था, आत्मतृप्त नहीं था, अपनी आत्मा से भी सन्तुष्ट नहीं था, इसलिए वह आत्मानन्द से वंचित था। आत्मानन्द से वंचित होने के कारण ही उसका चित्त व्यर्थ में ही युधिष्ठिर से ईष्र्या की आग में जलता रहता था। फलस्वरूप वह पांडवों के अधिकारों का हनन करने की योजनाओं में लगा रहा। उसी का परिणाम ये आया कि महाभारत का रण सज गया। श्रीकृष्ण जी गीता के तीसरे अध्याय में कह रहे हैं कि जो मनुष्य अपने आत्मा के भीतर आनन्द अनुभव करता है और जो आत्मा से ही तृप्त है-अपने आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिए ऐसा कोई कार्य नही रहता-जिसे करना आवश्यक हो। अभिप्राय है कि ऐसा व्यक्ति संसार की सबसे बड़ी पूंजी अर्थात आनन्द का अनुभव कर लेता है फिर उसके लिए संसार के सारे धन ऐश्वर्य फीके और नीरस हो जाते हैं। उसे कृत कर्म से कुछ पाना शेष नहीं रह जाता और अकृत कर्म से भी कोई लेना-देना नहीं रह जाता। वह स्वार्थ को त्याग देता है। इसलिए संसार के प्राणियों की स्वार्थ भरी मित्रता भी उसके लिए अब कोई अर्थ नहीं रखती। इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए समस्त प्राणियों में से अपने स्वार्थ के लिए किसी पर वह निर्भर नहीं रहता। दुर्योधन अपने स्वार्थ के लिए और अपनी इच्छित वस्तु अर्थात साम्राज्य प्राप्ति के लिए कर्णादि अपने मित्रों पर निर्भर था। इसका तात्पर्य था कि वह आत्म तृप्त नहीं था। गीताकार इस श्लोक के माध्यम से सन्देश दे रहा है कि आत्मतृप्त हो जाओगे तो संसार के सबसे बड़े कोश के स्वामी बन जाओगे, अन्यथा दुर्योधन की तरह कुरूक्षेत्र के मैदान में लोगों को मरवाने, कटवाने के लिए आकर खड़े हो जाओगे। इससे इतिहास तुम्हारा वन्दन न करके निन्दन करेगा।
श्रीकृष्णजी अर्जुन को भी समझा रहे हैं कि तू जिस प्रकार हथियार फेंककर युद्घ से दूर हो रहा है, यह भी तेरे लिए उचित नहीं है। यदि तू आत्म-रत, आत्मतृप्त और आत्मतुष्ट होता तो तेरे भीतर अनासक्ति भाव उत्पन्न हो गया होता। जिससे तू सदा करने योग्य कर्म ही करता और हथियार फेंककर युद्घ से मुंह मोडऩे के अपने धर्म विपरीत कार्य को करने की स्थिति में नहीं आता। तू परमपद को पाने के लिए अपने धर्म को पहचान और आत्मरत होकर पूर्ण मनोयोग से कार्य करने की बात सोच। इसी में तेरा कल्याण है।
श्रीकृष्णजी कहते हैं कि महाराज जनक जैसे महाज्ञानी सम्राट राजकाज करने भी उसमें अनासक्ति भाव बनाये रहे। वह राजा होकर भी राजा नहीं थे। क्योंकि वह आत्मरत थे। इसीलिए वे सिद्घि तक पहुंचे। राजा के लिए यह भी आवश्यक होता है कि वह अपने लोगों में संगठन का भाव पैदा किये रखे इसलिए तुझे अर्जुन अपने लोगों में सांगठनिक एकता बनाये रखने के लिए युद्घ करना चाहिए। क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत