बिहार में जातिगत जनगणना की राजनीति
उमेश चतुर्वेदी
मशहूर समाजवादी डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने जाति तोड़ने का क्रांतिकारी विचार दिया था। लेकिन सबसे ज्यादा जाति केंद्रित राजनीति को बढ़ावा लोहियावादी राजनीति से ही मिला। जाति तोड़ने के लोहिया के विचार का मतलब था, समाज में ऊंच-नीच का भाव खत्म करके उसे बराबरी पर लाना। लेकिन लोहियावादी राजनीति की वजह से हुआ इसका ठीक उलटा।
जाति को जैसे-जैसे राजनीतिक खाद-पानी मिलने लगा, जातियां राजनीति का मजबूत हथियार और आधार बनने लगीं। जैसे-जैसे यह प्रक्रिया बढ़ी, वैसे-वैसे जातीयताबोध और बढ़ने लगा। बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आदेश से हो रही जातीय जनगणना को लेकर अगर सवाल उठ रहे हैं तो उसकी बड़ी वजह यही है। लोहियावादियों ने सामाजिक न्याय की जो शब्दावली दी है, उसकी बुनियाद पर किसी जाति को पता नहीं कितना न्याय मिलता है, लेकिन यह सच है कि इस शब्दावली के जरिए जातिवाद की संकीर्ण सोच ही आगे बढ़ी है।
दुनिया की सभी महान संस्कृतियों और विचारों का गहन अध्ययन कीजिए। अगर वे टिकी हुई हैं तो इसकी बड़ी वजह है उनमें पीछे मुड़कर देखने और वक्त के हिसाब से अपने विचारों में बदलाव लाने की प्रवृत्ति का होना। लोहिया की सोच भी इसी तरह की थी।
लोहिया का दर्शन
लोहिया राम, कृष्ण, शिव, सीता को भी संस्कृति के स्रोत मानते थे और उनकी अच्छाइयों के जरिए नए समाज के निर्माण में भरोसा करते थे।
लोहिया ना तो वैचारिक रूप से रूढ़ थे और ना ही वह रूढ़िवादी सोच को व्यक्ति और समाज निर्माण का बुनियादी आधार बनाना चाहते थे।
अगर वह रूढ़िवादी होते तो उस कांग्रेस के खिलाफ नहीं खड़े होते, जिसके जरिए उन्होंने अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की थी। जिस कांग्रेस में रहते ही युवावस्था में वह गांधी जैसी विराट हस्ती के नजदीकी बन गए थे। जिस कांग्रेस के शीर्ष पुरुष जवाहर लाल नेहरू उन्हें अपने छोटा भाई जैसा मानते।
लेकिन जब लोहिया को लगा कि कांग्रेस के जरिए समाज के नवनिर्माण का सपना पूरा नहीं हो सकता, आजादी के संघर्ष के मूल्यों को स्वाधीन भारत में स्थापित नहीं किया जा सकता, उन्होंने उस कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
तब तक गांधी की हत्या के आरोपों के चलते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनसंघ से अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता था। लेकिन जब लोहिया को लगा तो वह वैचारिक बदलाव की ओर बढ़े और भारतीय जनसंघ का साथ लिया। अगर वह रूढ़िवादी होते तो जनसंघ को अछूत मानने वाली तत्कालीन स्थापित सोच को ही अंगीकार किए रहते।
इन अर्थों में देखें तो क्या लोहियावादियों को खुद के गढ़े शब्द ‘सामाजिक न्याय’ और उसके आधार पर होने वाली राजनीति का व्यापक परिदृश्य में मूल्यांकन नहीं करना चाहिए? लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। बिहार में जाति जनगणना का नीतीश कुमार सरकार का फैसला उस रूढ़िवादी सोच का विस्तार ही कहा जाएगा, जिसके लोहिया भी विरोधी थे।
सामाजिक-आर्थिक आधार की गणना के खतरे
2011 की जनगणना के दौरान मनमोहन सरकार ने सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ों की भी गणना कराई थी। उसके पीछे भी लोहियावादी राजनीति के प्रमुख अलमबरदार मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव का दबाव था।
यह बात और है कि इस गणना के नतीजों के भावी खतरों को मनमोहन सिंह सरकार भांप गई। इसकी वजह से उन आंकड़ों के गलत होने के नाम पर जारी करने से मनमोहन सरकार मुकर गई।
यह सच है कि अंग्रेजों ने 1931 तक जो जनगणना कराई, उसमें जाति के आधार पर भी हिसाब किया जाता था। दूसरा विश्व युद्ध होने के चलते 1941 में जनगणना नहीं हुई। लेकिन आजाद भारत में जब पहली बार 1951 में जनगणना होने जा रही थी, तब कुछ नेताओं ने जनगणना में जाति का कॉलम बनाए रखने का सुझाव दिया जिसे गृहमंत्री और जनगणना के प्रभारी मंत्री के नाते सरदार पटेल ने ठुकरा दिया था। उनका मानना था कि इससे समाज में जातीय वैमनस्य फैलेगा, जो आखिरकार देश के लिए ठीक नहीं होगा। तर्क दिया जा सकता है कि तब भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण था। लेकिन उसे भी सिर्फ पंद्रह वर्ष की अवधि के लिए ही स्वीकार किया गया था। तब देश चलाने वालों को लगता था कि पंद्रह साल में वे इतना कुछ जरूर कर देंगे कि भारत समानता आधारित समाज व्यवस्था वाला राष्ट्र बन जाएगा। दुर्भाग्यवश इस व्यवस्था में राजनीतिक फायदा तलाशने वालों ने अपनी गुंजाइश देखी और फिर सही मायने में भारत को समता आधारित समाज बनाने की गंभीर कोशिश हुई ही नहीं।
जाति की राजनीति
नए भारत की राजनीति और लोकमानस को यह स्वीकार करने में हर्ज नहीं होना चाहिए कि जातिगत आधार पर बढ़ती आरक्षण व्यवस्था ने सामाजिक बराबरी लाने की तुलना में जातीय गोलबंदी को कहीं ज्यादा बढ़ावा दिया है। इसकी वजह से जाति राजनीतिक औजार और हथियार-दोनों बन गई है।
इस वजह से जातियां खुद के वर्चस्व को बढ़ाने की प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरीके से तीव्र कोशिश कर रही हैं तो उनकी बुनियाद पर राजनीति करने वाली ताकतें और नेता जातियों को ही बढ़ावा दे रहे हैं। इससे जातीय संघर्ष की बुनियाद भी मजबूत हो रही है।
सामाजिक व्यवस्था में आर्थिक रूप से पिछड़े रह गए उन लोगों में भी इस सोच को लेकर क्षोभ और विरोध बढ़ रहा है, जो कथित सामाजिक न्याय की अवधारणा में शोषक जातियों का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं।
राजनीति जिस मुकाम पर अब पहुंच गई है, उसमें सत्ता को साधने के लिए उसे जातियां ही सबसे बड़ा हथियार नजर आ रही हैं। ऐसे में संख्यात्मक रूप से ताकतवर जातियों की पूछ बढ़ी है। समानता आधारित समाज में जिस योग्यता को प्रमुख मानक होना चाहिए, वह सिरे से गायब है। चूंकि लोहियावादी दर्शन रूढ़िवाद को खारिज करने की व्यवस्था पर ज्यादा केंद्रित रहा है, इसलिए उसकी जिम्मेदारी ज्यादा हो जाती है। लेकिन जिस तरह जातीय राजनीति को लोहियावाद में बढ़ावा मिलता रहा है, उससे लगता नहीं कि जातीय गोलबंदी बढ़ाने वाली सोच से वह अलग होने जा रही है।