गीता का तीसरा अध्याय और विश्व समाज
आज के संसार में दुर्जन आतंकी संगठन सिर उठा रहे हैं। इनके विरूद्घ सारे संसार के लोग यदि पूर्ण मनोयोग से उठ खड़े हों तो विश्व को आतंकवाद से मुक्त होने में कोई देर नहीं लगेगी। कर्म को सही गति और सही दिशा देने की आवश्यकता है।
योगीराज श्रीकृष्ण जी का कहना है कि सत-रज-तम इन तीन गुणों वाली हमारी सम्पूर्ण प्रकृति ही कर्म करती है। हमारी प्रकृति (नेचर=स्वभाव) के इन गुणों द्वारा किये जाने वाले कर्मों को अहंकार के कारण यह मूढ़ मनुष्य यह समझता है कि मैं अर्थात आत्मा करता हूं। आत्मा को दोषी मानना गलत है, कर्म तो प्रकृति करा रही है उसका दोष ‘मैं’ पर डालना मूर्खता है, अज्ञानता है।
अर्जुन के लिए इस श्लोक में संदेश है कि तू आतंकवादियों के नाश के लिए यहां आया है तो यह तेरी प्रकृति है, तेरा स्वभाव है- तेरा धर्म है, जो तुझे यहां लाया है।
निज प्रकृति के कारने हमने धरयौ शरीर।
नदी किनारे बैठकर मूरख मांगत नीर।।
तू इस प्रकार के यहां आने को अपने आत्मा से मत जोड़। वह तो केवल साक्षी है और उसे साक्षी ही रख। बस तू आतंकवादियों के विनाश में अपनी भूिमका को सन्तुलित और मर्यादित रख। तू इस द्वन्द्व से बाहर निकल कि आत्मा स्वयं क्रिया कर रहा है। यदि ऐसा सोचेगा तो कर्मों में आसक्ति के फेर में पड़ जाएगा। जो लोग ऐसे द्वन्द्व में फंसे हैं तू उनमें बुद्घि भेद उत्पन्न कर उन्हें विचलित मत कर। उन्हें भी कर्म करने दे। धीरे धीरे वे भी अनासक्त भाव वाले बनेंगे-यह प्रयास हमें अवश्य करना चाहिए।
आज के भारत को चाहिए कि वह भी संसार को अनासक्त भाव वाला बनाने के लिए धीरे-धीरे अपने प्रयास जारी रखे एक दिन सफलता अवश्य मिलेगी। गीता का रहस्य और गीता का उपदेश जैसे-जैसे लोगों की समझ में आता जाएगा वैसे-वैसे संसार के लोग गीता के अनुयायी बनते जाएंगे। हमसे बड़ी गलती यह हुई है कि आजादी के पश्चात हमने उतना ध्यान अपनी संस्कृति के प्रचार-प्रसार पर नहीं लगाया जितना दूसरों की संस्कृति को अपनाने में लगाया है। इतना ही नहीं हमने दूसरों की अपसंस्कृति को भी संस्कृति के नाम पर स्वीकार कर लिया है।
गुण-गुणों में बरतते हैं
गीता ने कहा है कि ‘गुण-गुणों में बरतते हैं यह जानकर पुरूष कर्म में आसक्त नहीं होता।’ (तीसरा अध्याय श्लोक 28)
इस पर सत्यव्रत सिद्घान्तालंकार जी लिखते हैं-”गुण-गुणों में बरतते हैं-इसका क्या अर्थ है? शास्त्र के अनुसार जड़ प्रकृति में तीन गुण हैं-सत्व, रज और तम। इसी प्रकार चेतन मनुष्य में भी तीन गुण हैं-सत्व, रज और तम। हमारी सत्वगुणी प्रवृत्ति प्रकृति के सत्वगुणी विषयों में बरतती है, हमारी रजोगुणी प्रवृत्ति प्रकृति के रजोगुणी विषयों में बरतती है। हमारी तमोगुणी प्रवृत्ति प्रकृति के तमो विषयों में बरतती है। इस प्रकार हमारे गुण प्रकृति के गुणों में बरतते हैं, प्रकृति ही प्रकृति से खेलती है, मैं ‘आत्मा’ कत्र्ता रूप में कुछ नहीं करता सब कुछ करने वाली प्रकृति है, वही कत्र्री है।
प्रकृति का यह खेल बरबस चल रहा है, हम चाहें या न चाहें प्रकृति हम से जो चाहती है वही करवा रही है। स्वभाव अत्यन्त प्रबल है, वही सब कुछ कराता है मैं-आत्मा कुछ नहीं करता। जब यह ज्ञान हो जाता है जब मैं अपने को कर्म का करने वाला ही मानना छोड़ देता है, तब कर्म के फल में आसक्ति का प्रश्न ही जाता रहता है।
सातवलेकरजी गीता की अपनी ‘पुरूषार्थ बोधिनी’ टीका में लिखा है-‘कुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है, रेता से क्यों नहीं बनाता? क्योंकि मिट्टी में घड़ा बनाने का गुण है, रेता में नहीं, कुम्हार ही घड़ा बनाता है, डॉक्टर क्यों नहीं बनाता? क्योंकि कुम्हार में घड़ा बना सकने का गुण है, डॉक्टर में यह गुण नहीं है। मिट्टी का गुण और कुम्हार का गुण मिलकर घड़ा बनता है, न सिर्फ मिट्टी के गुण से और न सिर्फ कुम्हार के गुण से घड़ा बन सकता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि एक के गुण दूसरे के गुणों के साथ मिलकर यह संसार चल रहा है, इसमें मिट्टी कहे कि मैंने घड़ा बनाया या कुम्हार कहे कि मैंने बनाया-दोनों का यह अहंकार मिथ्या है। इसलिए समझदारी इसी में है कि कोई अपने को ‘कत्र्ता’ न समझे, कत्र्तव्य का घमण्ड त्याग दे और गुणों द्वारा गुणों के हेलमेल से यह सब हो रहा है-ऐसा माने और मैं कर रहा हूं-ऐसा कहकर आसक्त न होवे।”
कहने का अभिप्राय है कि व्यक्ति अपने भीतर अहंकारशून्यता का भाव पैदा करना चाहिए। कर्म का कत्र्ता भाव उसे अहंकारी बनाता है। इस प्रकार की भावना से ऊपर उठना और विनम्रता के साथ अपने दुर्गुणों, दुव्र्यसनों और दुराचरण को बढ़ावा देने वाले बुरे विचारों पर नजर रखते हुए आत्म परिष्कार करता रहे, इसी में भलाई है, इसी में मनुष्य का कल्याण है। श्रीकृष्णजी कहते हैं कि हमें अपने सभी कार्यों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर (अर्जुन से कह रहे हैं कि तू अपने सब कर्मों को मेरे प्रति समर्पित कर) जीवन संग्राम में आगे बढऩा चाहिए। वह कहते हैं कि हे अर्जुन! तू इस समय आशा रहित, ममता रहित और सन्ताप रहित होकर युद्घ कर। याद रख कि सब प्राणी अपनी प्रकृति के अनुसार अर्थात अपने मूल स्वभाव के अनुसार काम करते हैं। प्रकृति को रोकना या स्वभाव का विग्रह करना अनुचित है। स्वभाव को बदलना नितांत असम्भव है।
मूर्ख हो चाहे ज्ञानी हो सब अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार आचरण कर रहे हैं, और आचरण में परिवर्तन सम्भव नहीं है। श्रीकृष्णजी कह रहे हैं किअर्जुन युद्घ के समय तू ज्ञानी सन्त महात्मा मत बन, क्योंकि महात्मापन तेरा धर्म या प्रकृति नहीं है, स्वभाव नही है। तेरे लिए उचित यही है कि तू युद्घ कर।
आज का वैज्ञानिक हमें बता रहा है कि धरती में जहां सोने की खान है-वे सोने के तत्वों को दूर-दूर से अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं। जहां हीरा होता है वहां हीरे के तत्व उसकी ओर आकर्षित होते हैं। इसी प्रकार आम का पौधा अपनी जड़ों से दूर-दूर से मिट्टी से मिठास को चूस लेता है, जबकि नीम का पौधा उसी खेत में रहकर भी मिट्टी से कड़वाहट को खींच लेता है। इससे पता चलता है कि गुण-गुणों में बरतते हैं। गुण-गुणों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
प्रत्येक इन्द्रिय का अपना विषय है और उस विषय में रागद्वेष समाया है। जैसे आंख का विषय रूप है। अब यदि सामने सुन्दर रूप है तो राग होगा और यदि कुरूप है तो निश्चित है कि द्वेष होगा। ऐसा प्रत्येक इन्द्रिय के साथ है। इन्द्रिय इन्द्र (ऐश्वर्य सम्पन्न) के समान तभी बनती है जब ये अपने विषय को साक्षी भाव से देखने लगे। रूप सुन्दर है तो भी कोई फर्क ना पड़े और कुरूप है तो भी कोई फर्क ना पड़े। ऐसी अवस्था ही साम्यावस्था है, भारत का साम्यवाद है। इसी अवस्था को जितेन्द्रियता की अवस्था कहा जा सकता है। श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि ‘स्वधर्म’ का पालन करते हुए यदि मृत्यु भी हो जाए तो भी उत्तम है। क्योंकि दूसरे के धर्म अर्थात दूसरे के स्वभाव या प्रकृति के अनुसार चलना बहुत ही भयानक है। भयजनक है। क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत