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गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म =एक विस्तृत अध्ययन* पार्ट 5

Dr DK Garg

Note -यह आलेख महात्मा बुद्ध के प्रारम्भिक उपदेशों पर आधारित है। ।और विभिन्न विद्वानों के विचार उपरांत है। ये 9 भाग में है।

इसको पढ़कर वे पाठक विस्मय का अनुभव कर सकते हैं जिन्होंने केवल परवर्ती बौद्ध मतानुयायी लेखकों की रचनाओं पर आधारित बौद्ध मत के विवरण को पढ़ा है ।

कृपया अपने विचार अवश्य बताए।

बौध धर्म और मांसाहार

बौद्ध धर्म के 99% से ज्यादा मांसाहारी है, यहां तक कि चीन,कोरिया, थाईलैंड,जापान आदि देशों में मांसाहार के नित नए तरीके अपनाए जाते है और यहां के मांस के बाजार को कमजोर ह्रदय वाले नहीं जा पाएंगे।
इसलिए बौध धर्म में मांसाहार के विषय में प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

इस प्रश्न का उत्तर दो भागो में खोंस उचित होगा
1. क्या तथागत बुध मांसाहारी थे?
2. क्या बौद्ध धर्म में मांसाहार की मनाही नहीं है?

प्रश्न 1 की विवेचना :क्या गौतम बुध मांसाहारी थे?

ये वास्तविक तथ्य है कि गौतम बुद्ध की विरक्ति का एक कारण यज्ञों के नाम पर क्रूर बलिप्रथा , यज्ञ में पशु – पक्षियों की हिंसा , यज्ञ में की आड़ में मांसाहार जैसा पाप था । बुद्ध ने भी धम्मपद में स्वयं कहा है–’न तेन अरियो होति, येन पाणानि हिंसति। अहिंसा सबपाणानं, अरियोति पवुच्चति।।‘ (धम्मपद श्लोक 270, धम्मट्ठवग्गो 15) अर्थात् प्राणियों का हनन कर कोई आर्य नहीं होता, सभी प्राणियों की हिंसा न करने से उसे आर्य कहा जाता है।

महात्मा बुद्ध पर मांसाहार का मिथ्या दोषारोपण:

महात्मा बुध मांस खाते थे इसका कोई प्रमाण नहीं है लेकिन बुद्ध की मृत्यु कैसे हुई, इस पर विद्वानों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। और कुछ विद्वानों ने इसका कारण सुअर का मांस खाना बता दिया है इसलिए बुध के शाकाहारी होने पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया ।
कहा जाता है कि उन्हें ‘सूकर मद्दवम्’ खिलाया गया था जो कि सुअर का मांस था। उसे वे पचा न सके। उन्हें अतिसार हो गया और अन्त में उसी रोग से उनका कुशीनगर (वर्तमान कसियाँ जिला देवरिया) में देहावसान हो गया।
‘सूकर मद्दवम्’ क्या पदार्थ हैं? इसके सम्बन्ध में ‘महापरिनिब्वानसूक्त’ के भाष्यकारों ने अपने-अपने विभिन्न मत प्रकट किए हैं। एक लिखते हैं- ‘सुक्कमद्दो एक प्रकार की रसायन का नाम है जो शारीरिक रक्षा के लिए अद्वितीय है। भगवान् बुद्ध को पुष्ट करने के लिए यह रसायन खिलाया गया था।’
एक-दूसरे भाष्यकार लिखते हैं कि- सुक्कमद्दो पंचगोरस से बना हुआ एक प्रकार का भात है, जो बुद्ध को खिलाया गया था।
मूल श्लोक-
‘चुन्दस्त भत्तं भुंजित्वा कम्पाररस्साति ये सुतं।
आबाधं सम्फुसो धीरो पबाब्टे मारणन्तिकं।।
भतस्स च सूकरमद्दवेन, व्याधि पवाह उदपादिसत्थुनो।
विरेचमानो भगवा आबोच गच्छामहं कुसिनारं नगरंति।। -दीर्घनिकाय महावग्गसूत्त, महापरिनिब्वानसूत्त, अध्याय ४
‘सूकरमद्दव’ का वास्तविक तात्पर्य और भाष्यकारों का भ्रम-
बौद्ध मत की आदि और प्राचीन शाखा ‘हीनयान’ है जिसके ग्रन्थ पाली भाषा में है। आठवीं शताब्दी में भारत के प्रायः सभी बौद्ध सम्प्रदाय वज्रयान गर्भित ‘महायान’ के अनुयायी हो गए थे। महायान शाखावाले तथागत की मूर्ति की पूजा, बोधिसत्त्वों की प्रतिमा पूजा, भैरवीचक्र, मांस, शराब, प्रभृति पूरे वाममार्ग के उपासक थे। उसे ‘सहजयान’ भी कहने लगे।
इसी ‘महायान’ शाखावाले तथागत पर मांसाहार का दोषारोपण करते हैं, ऐसा सम्भव है।
‘सूकरमद्दव’ का अर्थ ‘सूअर का मांस’ कभी नहीं हो सकता है। यह तो ‘दीर्घनिकाय’ के भाष्यकारों की कल्पनामात्र है।
मूल पाली में ‘सूकरमद्दव’ शब्द आया है जिसका अक्षरार्थ है- ‘सूकर के मांस की भांति मुलायम’। यह गोबरछत्ते (छत्रक) के पौधे का नाम है। इसका अर्थ सूकर का मांस नहीं है जैसाकि लोग भ्रमवश समझते हैं। इस विषय पर विचार करने के लिए ‘सूखा’ शब्द बड़े महत्त्व का है। सूकर का सूखा मांस कोई वस्तु ही नहीं है, पर गोबरछत्ता (छत्रक) जो वर्षा ऋतु में उत्पन्न होता है, वर्ष-भर तक काम में लाने के लिए सुखाकर रख लिया जाता है। भगवान् तथागत की मृत्यु वसन्त ऋतु में हुई थी। इस ऋतु में सूखा ही गोबरछत्ता प्राप्त हो सकता था, अतः यह स्पष्ट है कि उनकी मृत्यु सूखे गोबरछत्ते के विषाक्त प्रभाव से हुई; और उनकी मृत्यु के लक्षण भी सचमुच वे ही थे जो गोबरछत्ते के विष के कारण होनेवाली मृत्यु में होते हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि सूकरमद्दव का अर्थ सूअर का मांस नहीं है। वह तो बांस का ऐसा कोमल अंकुर है, जिसे सुअर ने रौंद डाला हो। औरों की राय में सुअरों की रौंदी हुई जगह में उपजा हुआ कुकुरमुत्ता उक्त वस्तु (उक्त दोनों वस्तुएं) की कहीं-कहीं तरकारी बनाई जाती है।
भावप्रकाश-शाकवर्ग में यह पौष्टिक होता है किन्तु इसके भेद विषाक्त होते हैं। इसके भोजन भी जब अधिक दिनों तक रक्खे जाएं तो विषाक्त हो जाते हैं; इसके लिए अच्छे और अभ्यस्त की आवश्यकता है। इसको खाने से संग्रहणी हो जाती है।
बुद्ध की मृत्यु वसन्त ऋतु में हुई थी, अतः यदि उन्होंने छत्रक खाया होगा तो शुष्क खाया होगा; क्योंकि ताजा छत्रक वर्षा ऋतु में ही प्राप्त होता है।
अन्य विद्वानों के स्पष्ट मत-
गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित स्नातक, विद्वद्वरेण्य पं० धर्मदेवजी विद्यामार्तण्ड, सम्पादक ‘गुरुकुल-पत्रिका’ हरिद्वार लिखते हैं-
“सूकरमद्दवम् (Sukar Maddavam) which was prepared by his devotee Chunda for him and which, unfortunately caused dysentery and ended Mahatma Buddha’s noble life. It is remarkable that neither in the Tibetan nor any of the Chinese accounts of the death of Buddha is there any mention of pork at the last breakfast. Nor is it mentioned in any of the Mahayanist books, nor in the account of Chunda’s feast given in the Sarvata Vinaya…”
अर्थात्- ‘सूकरमद्दव उनके भक्त चुन्द द्वारा उनके लिए तैयार किया गया था और दुर्भाग्यवश अतिसार का कारण बना और महात्मा बुद्ध के श्रेष्ठ जीवन का अन्त किया। यह विचारने योग्य है कि तिब्बतियों और चीनियों में बुद्ध की मृत्यु का कारण उनके अन्तिम कलेवा में सुअर के मांस का कोई वर्णन नहीं है। न महायानियों की किसी भी पुस्तक में वर्णन है। न ‘सरवत विनय’ में चुन्द के दिए भोज का कारण है।’…

तथागत’ ने जीवन में कभी भी मांसाहार न किया, वरन् जीवनपर्यन्त उन्होंने मांसाहार के विरुद्ध उपदेश किया।उनका जन्म शुद्धोदन के घर हुआ। शुद्धोदन को यह उपाधि शुद्ध भोजन का व्यवहार करने से प्राप्त हुई थी।
‘मांसभक्षण और कुकर्म का कलंक देवदत्त ने बुद्ध के ऊपर झूठमूठ ही लगा दिया था। वह बुद्ध का एक शिष्य था और उसने अपने गुरु के प्राण भी आघात करने की चेष्टा की थी, किन्तु इतने पर भी बुद्ध सदा उसे क्षमा कर दिया करते थे और उसे अपने साथ ही रखते भी थे। निसन्देह, जिस ओर से मनुष्य एकदम निश्चिन्त रहता है उसी ओर से उसपर घोर आपत्ति आती है। बुद्ध को भी सांसारिक क्लेश भोगने पड़े थे।’

भगवान् बुद्धदेव ने जीवनपर्यन्त मांसाहार का विरोध किया। यथा-
‘सब्बे तसन्ति दण्डस्स सब्बे भायन्ति मच्चुनो।
अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातवे।।’ -१२९ धम्मपद, दण्डवग्गो १
‘सब्बे तसन्ति दण्डस्स सब्बेसं जीवितं पियं।
उत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये।।’ -१३०, धम्मपद, दण्डवागो २
अर्थात्- ‘सभी दण्ड से डरते हैं, सबको जीवन प्रिय है, (इन बातों को) अपने समान जानकर न (किसी को) मारे और न मारने की प्रेरणा करे।’
‘पाणं न हाने न च घातयेय्य, न चानु जंजा हननं परेसं।
सब्वेसु भूतेषु निधाय दण्डं, ये थावरा ये च तसन्ति लोके।।’ -सूत्रनिपात्र, धार्मिक सूत्र १९
भिक्षु धर्मरत्नजी कृत टीका- ‘संसार के स्थावर और जंगम सब प्राणियों के प्रति हिंसा त्याग, न तो प्राणी का वध करे, न करावे और न करने की दूसरों को अनुमति ही दे।’
‘एकजं वा द्विजं वाणि, योऽध पाणं विहिंसति।
यस्य पाणे दया नत्थि, ते जञ्जा वसलो इति।।’ -वसलसूत्र
अर्थात्- ‘जो अण्डा, पक्षी अथवा जानवरों को मारता है और जीवित प्राणियों के प्रति दयालु नहीं है, उसे चाण्डाल के तुल्य जानना चाहिए।’
बुध ने आर्य की परिभाषा करते हुए कहा है कि ‘ प्राणियों की हिंसा करने वाला आर्य नहीं होता । अहिंसक ही सच्चा आर्य होता है ‘ ( वही , १९ . १५ )
इन प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि भगवान् बुद्धदेव (तथागत) पर मांसाहार का मिथ्या दोषारोपण किया गया है।

प्रश्न 2 क्या बौद्ध धर्म में मांसाहार की मनाही नहीं है?

सत्य तो ये है कि जैन धर्म की तरह बौद्ध धर्म भी अहिंसा का समर्थक है और बौद्ध धर्म में भी मांसाहार नहीं करने की सलाह दी जाती है। बौद्ध धर्म के अनुयायी को मांस खाने के लिए एवं जीव हत्या करने से मना किया गया है। परन्तु दुनिया के जितने भी बौद्ध धर्म को मानने वाले देश जैसे कि थाईलैंड, कोरिया, जापान, श्रीलंका आदि है वह माँसाहर करने वालो की संख्या ९९% या ज्यादा हो सकती है जिसमे मासांहार मुस्लिम, ईसाई समाज को भी पीछे छोड़ दिया है। गौमांस से सूअर तक, कुत्ते सर्प, सभी पक्षी इनकी थाली का भोजन है। इस विषय में सच्चाई जानना जरूरी है।
1- महायान संप्रदायः इनको मांसाहार से परहेज नहीं है। सिर्फ इतना बदला है की इनके बौद्ध मठ में शाकाहार पर जोर दिया गया है। यानि मांसाहार छोड़ने के लिए और इसके विरुद्ध कोई प्रचार प्रसार नहीं किया है। अभी तक इनके मठ में भी मांसाहार भोजन दिया जाता रहा है।
धर्मशाला स्थित मुख्यालय से बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा ने निर्देश जारी किया है कि अब से महायान संप्रदाय के बौद्ध मठों में सामिष भोजन नहीं चलेगा। मांसाहारी भोजन नहीं करना ही श्रेयस्कर है। ऐसा समझने में और स्वीकार करके में सैकड़ो साल लग गये ? जलपाईगुड़ी और दार्जिलिंग जिले के प्रमुख मठों के भिक्षुओं ने भी बौद्ध मठों में शाकाहारी भोजन का प्रचलन करने के पक्ष में बयान दिए हैं। उनके अनुसार बौद्ध शाकाहार इस मान्यता पर आधारित है कि भगवान बुद्ध के उपदेशों में शाकाहार की शिक्षा अन्त र्निहित है।
छावलिंग गुम्पा के लामा वांग चुक का कहना है कि बौद्ध मठ पवित्र स्थान होता है जो धर्म का प्रतीक है। वहां मांसाहारी भोजन नहीं करना ही श्रेयस्कर है। पूजा अर्चना की जगह मांसाहारी भोजन करना हिंसा को बढ़ावा देने के ही बराबर है। यह भगवान बुद्ध की अहिंसा की मूल शिक्षा के विपरीत जाती है। इसलिए बौद्ध मठों में मांसाहारी भोजन पर पूरी तरह से निषेध होना चाहिए। उसके अनुसार गौतम बुद्ध अहिंसा के पुजारी थे। इसलिए बौद्ध मठ में मांसाहार उचित नहीं है। चूंकि मांसाहार का अर्थ ही हिंसा को बढ़ावा देना है।
आश्चर्य है कि ये बात सिर्फ भारत में कही है क्योकि यहाँ की अधिकांश जनता शाकाहारी है और उनको बौद्ध धर्म में परिवर्तित करने में कठिनाई आ रही थी।
धर्म गुरु की बातो से जो समझ आया उसका शारांश इस तरह से है:
A.गौतम बुद्ध अहिंसा के पुजारी थे। इसलिए बौद्धमठ में मांसाहार उचित नहीं है।
B.यानि अभी तक ये गौतम बौद्ध के विपरीत आचरण करते रहे है और पूरी तरह से मांसाहार बंद नहीं करना चाहते क्योकि बौद्ध भिक्षु और अनुयायी नाराज हो सकते है। मठ के बाहर मांस खाना अनुचित नहीं।
C.क्या बौद्धमठ ही पवित्र है, रहने का घर, दूकान, देश, शहर पवित्र नहीं है तो क्या अपवित्र स्थान पर बौद्ध निवास करते है।
2- थेरावाद सम्प्रदायः- इस सम्प्रदाय के लोग मानते हैं कि बुद्ध ने अपने शिष्यों को शूकर, कुक्कुट और मछली खाने की अनुमति दी थी बशर्ते उनको पता हो कि वह जानवर उनके लिए ही नहीं मारा गया था। कुछ सूत्रों में यह बात सामने आती है कि महात्मा बुद्ध इस बात पर बल देते थे कि उनके अनुयायी किसी ऐसे प्राणी का मांस न खाएं जो संवेदन शील हो। ब्रह्मजाल सूत्र का अनुसरण करने वाले महायान सम्प्रदाय के भिक्षु किसी भी प्रकार के मांस का सेवन न करने की प्रतिज्ञा करते हैं।
इनके अनुसार कई बौद्ध ग्रंथों से भी ये बात पता चलती है कि भगवान बुद्ध और अन्य भिक्षु मुख्य रूप से शाकाहारी थे लेकिन परिस्थिति वश मांस या मछली का सेवन कर लेते थे।
विष्लेषण:

बौद्ध अनुयायी द्वारा दिए जाने वाले कुछ भद्दे कुतर्क और गंदे कार्यो का विवरण-

म्यांमार में जीवित गऊ और अन्य पशु को उसका मांस खाने के लिए पहाड़ी से गिराकर मार देते है, या जानवर का मुँह सिल देते है की भूख से उसकी मृत्यु हो जाये और उसका मांस खाया जाये। श्रीलंका में बड़ी तादात में मुस्लिम कसाई मंगवाए गए ताकि जानवर की हत्या का पाप इनपर न लगे और ये मांस के चटखारे लेते रहे। डाँ. बी आर अम्बेडकर द्वारा धर्म परिवर्तन के अवसर पर अनुयायियों को दिलाई गयीं 22 प्रतिज्ञाओं में से 13 वीं प्रतिज्ञा में वे कहते हैं कि-
“मैं सभी जीवित प्राणियों के प्रति दया और प्यार भरी दयालुता रखूँगा तथा उनकी रक्षा करूँगा।“
बौद्ध भिक्षु कहते है की हम प्राणियों को नहीं मारते सिर्फ मरा हुआ मुर्दा लेकर आते है, लेकिन ये बताये कि किसी भी प्राणी को मारे बिना मांस की प्राप्ति नहीं हो सकती, इसीलिए अगर इन्सान मांस खाना बंद कर देंगे तो कोई प्राणियो को क्यों मारेगा ?
इस तरह से मांस खाने के शौकीन बौद्ध ने अपने धर्म के आदि गुरु के सिद्धांतो की खिल्लिया उड़ाई है।
स्पष्ट है कि गौतम बुद्ध का मार्ग अहिसां कहते हुये भी मध्यमार्गीय रहा लेकिन वह व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति के लिये पशु हिंसा के पक्ष मे नहीं थे। किसी भी प्राणी को मारे बिना मांस की प्राप्ति नहीं हो सकती, इसलिए तथागत बुद्ध ने हर प्रकार के जीवों की हत्या करने को पाप बताया है और कहा है कि ऐसा करने वाले कभी सुख शांति प्राप्त नहीं करेंगे। अहिंसा के पुजारी बुद्ध के अनुयायी दुनिया के सबसे बड़े मांसाहारी, नास्तिक निकले जिनकी कोई अच्छर संहिता ही नहीं है। मांसाहारी व्यक्ति संत नहीं हो सकता, और बौद्ध धर्म के संत अधिकांश मांसाहारी है या मांसाहार के समर्थक है विरोधी नही।

बुद्ध ने मांसाहार के बारे में क्या कहा है?

प्रमाण-१ धम्मपद की गाथा “दण्ड्वग्गो’मे तथा गत बुद्ध कहते हैः १२९
सब्बे तसन्ति दण्डस्स, सब्बे भायन्ति मच्चुनो। अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये॥
सभी दंड से डरते हैं। सभी को मृत्यु से डर लगता है। अंतः सभी को अपने जैसा समझ कर न किसी की हत्या करे, न हत्या करने के लिये प्रेरित करे।
प्रमाण-2 सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन विहिंसति। अत्तनो सुखमेसानो, पेच्च सो न लभते सुखं॥१३०
जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से, दंड से विहिंसित करता है (कष्ट पहुँचाता है) वह मर कर सुख नही पाता है।
प्रमाण-3 सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन न हिंसति। अत्तनो सुखमेसानो, पेच्च सो लभते सुखं॥132
जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से, दंड से विहिंसित नही करता है (कष्ट नही पहुँचाता है) वह मर कर सुख पाता है
प्रमाण-4 बौद्ध धर्म के ‘‘पंचशील (यानी पांच प्रतिज्ञा)‘‘ में पहली प्रतिज्ञा हैँ,
‘‘पाणाति पाता वेरमणी सिक्खा पदम समादियामि‘‘
अर्थातः- ‘‘मैं किसी भी प्राणी को नहीं मारने की प्रतिज्ञा करता हूँ‘‘…
प्रमाण -5 लंकावतार वे सूत्र के आठवें काण्ड के अनुसार-
आवागमन के लम्बे क्रम के कारण प्रत्येक जीव किसी न किसी जन्म में किसी न किसी रूप में अपना सम्बंधी रहा होगा यह माना गया है। इसमें हर प्राणी को अपने बच्चों के समान प्यार करने का निर्देश है! बुद्धिमान व्यक्ति को आपातृकाल में भी मांस खाना उचित नहीं बताया गया। वही भोजन उचित बताया गया है जिसमें मांस व खून का अंश नही हो। और-
1- जीवों को बचाने में धर्म और मारने में अर्धम है। मांस म्लेच्छों का भोजन है। – त. गौतम बुद्व
2- मांस खाने से कोढ़ जैसे अनेक भयंकर रोग फूट पड़ते है, शरीर में खतरनाक कीड़े पड़ जाते हैं, अतः मांसाहार का त्याग करें। – लंकावतार सूत्र
3- सारे प्राणी मरने से डरते है, सब मृत्यु से भयभीत है। उन्हें अपने समान समझो अतः न उन्हें कष्ट दो और न उनके प्राण लो ।- त.गौतम

बिल्कुल स्पष्ट है की तथागत एक महात्मा थे , भगवा वेशधारी थे, संन्यासी मांसाहारी नही हो सकता और न ही ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध है,और बौध धर्म की भी मुख्य शिक्षा अहिंसा है इसलिए जीव रक्षा इनका मुख्य धर्म है , स्वयं को बौध कहना की पर्याप्त नहीं है,महात्मा गौतम को शिक्षा का जो बौध पालन नही करता इसको बौध कहलाना का आधिकार नहीं है।

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