राणा रतन सिंह पहुंचे युद्ध क्षेत्र में
राणा भीमसिंह के युद्घ में जाने का अभिप्राय था कि आज का सूर्य या तो चित्तौड़गढ़ के पतन को देखेगा या फिर उसके उत्कर्ष को अपने अंक में समाकर अगले दिन के सूर्योदय को इस प्रसन्नतादायक समाचार के साथ सौंप देगा कि भारत की भूमि वीर सपूतों की भूमि है। आज का युद्ध निश्चित रूप से आरपार का युद्ध होना था। राणा रतन सिंह के युद्ध के मैदान में आने पर भारत के वीर योद्धा और भी द्विगुणित उत्साह के साथ शत्रु दल पर टूट पड़े। युद्ध अपने पूरे रोमांच पर लड़ा जा रहा था। राणा ने अपने बलिदानी वीर सपूतों के प्रतिशोध के लिए एक – एक विदेशी शत्रु सैनिक को चुन – चुनकर मारना – काटना आरंभ किया ।हमारे सैनिक भी उतने ही उत्साह के साथ शत्रु दल का सफाया करते जा रहे थे।
जब राणा युद्घ के लिए अपने किले से बाहर निकल रहे थे तभी किले की वीरांगनाओं ने विशाल चिता जलाने के लिए सामग्री एकत्र कर ली। किले के मध्य में जौहर की होली सजने लगी। कर्नल टॉड ने लिखा है:-”चित्तौड़ में राणा भीमसिंह एक ओर युद्घ में जाने की तैयारी कर रहे थे, तो दूसरी ओर महलों में जौहर व्रत पालन की व्यवस्था हो रही थी। रानियों और राजपूत बालाओं ने इस बात को समझ लिया था कि चित्तौड़ पर भयंकर संकट आ गया है, और चित्तौड़ की स्वतंत्रता के नष्ट होने के समय राजपूत रमणियों को अपने सतीत्व एवं स्वातंत्रय को सुरक्षित रखने के लिए जौहर व्रत का पालन करना है। चित्तौड़ की पुरानी प्रणाली के अनुसार शत्रु के आक्रमण करने पर जब राज्य की रक्षा का कोई उपाय न रह जाता था, तो सहस्रों की संख्या में राजपूत बालाएं जौहर व्रत का पालन करती हुई एक साथ आग की होली में बैठकर अपने प्राणों का उत्सर्ग करती थीं। उसी जौहर व्रत की तैयारी इस समय आरंभ हुई।
रानी पद्मिनी ने भी आज मन बना लिया था कि पति यदि रणभूमि में वीरगति को प्राप्त होते हैं तो उन्हें क्या करना है? वीरांगना नारी ने देश- धर्म की आन- बान- शान की रक्षा के लिए निज प्राणों को न्यौछावर करने का संकल्प ले लिया था। रानी का संकल्प था कि चाहे प्राण चले जाएं पर शरीर को कोई विदेशी विधर्मी शत्रु हाथ न लगाने पाए। अपनी इसी संकल्प शक्ति को सुदृढ़ करते हुए रानी निश्चिंतमना राणा की विजय की प्रतीक्षा में बैठ गई। यद्यपि उससे पहले उन्होंने अपनी सहेलियों के साथ युद्ध का परिणाम विपरीत आने की दशा में जौहर के लिए चिता भी तैयार कर ली। अंत में जब राणा रतन सिंह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए तो रानी ने जलती हुई चिता में कूदने का अपना संकल्प पूरा कर दिखाया।
रानी और उसकी सखियों का बलिदान
कर्नल टॉड ने रानी और उसकी सखियों के द्वारा जौहर के लिए प्रस्थान करने के क्षणों को बड़े ही रोमांचकारी शब्दों में वर्णित किया है। वह लिखते हैं-”राजप्रासाद के मध्य में पृथ्वी के नीचे भीषण अंधकार में एक लंबी सुरंग थी। दिन में भी उस सुरंग में भयानक अंधकार रहता था। इस सुरंग में बहुत सी लकड़ियां पहुंचाकर चिता जलाई गयी। उसी समय चित्तौड़ की रानियां, राजपूत बालाएं और सुंदर युवतियां अगणित संख्या में प्राणोत्सर्ग करने के लिए तैयार हुईं। सुरंग के भीतर आग की लपटें तेज होने पर वे सभी बालाएं अपने बीच में पद्मिनी को लेकर सत्य, सतीत्व और स्वाधीनता के महत्व के गीत (एक विदेशी जिन्हें सत्य, सतीत्व और स्वाधीनता के गीत कहता है, पर हमारे इतिहास में उन्हें हमारी कायरता के रूप में प्रदर्शित कर दिया है) गाती हुई सुरंग की ओर चलीं। सुरंग में प्रवेश करने के लिए नीचे उतरने लगीं। सीढिय़ों के भीतर जाने पर भयानक आवाज के साथ लोहे का बना हुआ सुरंग का मजबूत दरवाजा बंद हुआ और कुछ क्षणों के भीतर हजारों राजपूत बालाओं के शरीर सुरंग की प्रज्ज्वलित आग में जलकर ढेर हो गये।”
राणा भीमसिंह को अपनी और चित्तौड़ की स्वाधीनता की कोई आशा नही रह गयी थी, रण क्षेत्र में मेवाड़ के एक से बड़े एक योद्धा का बलिदान होता जा रहा था। यह दुर्भाग्य का ही दौर था कि मेवाड़ की वीरभूमि उस समय वीरों से खाली हो चुकी थी। जहां मां भारती को अपने सम्मान की रक्षा के लिए उस समय बहुत बड़े वीर योद्धाओं की आवश्यकता थी वहां की वीरभूमि इस समय वीरों के लिए तरस रही थी। सारे वीर योद्धा मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान हो गए थे। ऐसी परिस्थितियों में राणा चाहे युद्ध के लिए निकले थे ,पर उन्हें युद्ध के परिणाम का पूर्ण ज्ञान था। वह युद्ध के शुभ परिणाम को पाने के लिए नहीं अपितु युद्ध के अपने आवश्यक कर्तव्य की पूर्ति के लिए निकले थे अर्थात आज उन्हें अपना बलिदान देना था। जिससे कि इतिहास उन पर यह दोष नहीं लगाए कि वह युद्ध में अपने सैनिकों को मरवाते रहे और जब युद्ध में पराजय निश्चित दिखाई दी तो अपने प्राणों की भीख मांग कर अलाउद्दीन खिलजी से संधि कर ली। वह इस प्रकार की संधि को जीते जी होने वाली मृत्यु मानते थे। यही कारण था कि वह वीरगति को प्राप्त होना उचित मानते थे।
प्राणों से खेलना हमारा रहा है राष्ट्र धर्म
हमने इस विषय में अपनी पुस्तक "भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास" भाग - 2 में लिखा है कि " घटना को सही संदर्भ में लिया जाए तो पता चलता है कि निज धर्म, स्वतंत्रता और आत्म सम्मान की सुरक्षा उस समय हमारे देशवासियों के लिए पहली प्राथमिकता हो गयी थी, इसलिए प्रत्येक नर-नारी इनके लिए ही संघर्ष कर रहा था। यदि इनके लिए प्राणोत्सर्ग भी करना पड़े तो वह उससे पीछे नही हटता था। प्राणों से खेलना हमारा राष्ट्रधर्म बन गया था। इसके लिए देश की वीरांगनाओं ने आपात जौहर धर्म का अत्यंत हृदय स्पर्शी मार्ग अपनाया, जो विश्व इतिहास की एक अनूठी और रोमांचकारी परंपरा है। इस परंपरा में वीरता और देशभक्ति की पराकाष्ठा है।
यह कितना रोमांचकारी दृश्य है कि जिस राजा के ग्यारह पुत्र युद्घ की बलि चढ़ गये हों, हजारों की संख्या में आज वीर सैनानी बलिदान हो चुके हों, परिवार की महिलाएं ‘जौहर धर्म’ से आंखों के सामने अपनी जीवन लीला समाप्त कर रही हों, वह राजा आज भी शोक, पश्चाताप या शत्रु से संधि की बात नही कर रहा है, शत्रु को कुछ मनोवांछित वस्तुएं देकर विदा करने की बात नही कर रहा है, शत्रु के धर्म को अपनाने की बातें नही कर रहा है। वह बातें कर रहा है देशभक्ति की और देशभक्ति एवं स्वाधीनता की रक्षार्थ आज अंतिम युद्घ कर स्वर्गारोहण की। देशभक्ति और स्वाधीनता के प्रति समर्पण भाव भी पराकाष्ठा थी यह। विश्व इतिहास के ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब शासक थोड़ी सी विषमताओं में घिरा तो उसने शत्रु के सामने समर्पण कर दिया। पर यहां समर्पण नही था, यहां आत्मोत्सर्ग था, बलिदान था, देशभक्ति थी और वीरता थी।
राणा के जितने सामंत और सरदार बचे थे सबने युद्घ के लिए प्रस्थान किया, आज वह अपने जीवन का अंतिम युद्घ करने के लिए निकले थे-एक बलिदानी जत्थे के रूप में। उनके जीवन का ही नही अपितु अलाउद्दीन की सेना के साथ चित्तौड़ का भी यह अंतिम युद्घ सिद्घ होने वाला था, जिसके लिए स्वतंत्रता के ये दीवाने चल दिये थे सिर पर केसरिया साफा बांधकर।
रानी पद्मिनी अपनी हजारों सहेलियों के साथ अपना बलिदान दे चुकी थी। वह इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ बन चुकी थी, चित्तौड़ की मर्यादा के अनुसार उसने राष्ट्र सेवा की। उन सारी वीरांगनाओं को हमारा शत्-शत् नमन।”
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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