रानी पद्मिनी का बलिदान
मेवाड़ की वीर भूमि की महानता इसके बलिदानों में छिपी है। यहां के कण-कण में हमारे महान योद्धाओं का बलिदान बोलता है। उनके रक्त से रंगी यह वीर भूमि आज भी हमारे भीतर रोमांच पैदा करने की सामर्थ्य रखती है। 700 वर्ष से अधिक समय व्यतीत हो जाने के उपरांत भी वीरांगना रानी पद्मिनी और वीर गोरा बादल के बलिदान और उनकी वीरता को यह पवित्र भूमि आज भी भूली नहीं है । इसके विपरीत पूरे देश की युवा पीढ़ी को उनके बलिदान का अमर संदेश सुना सुनाकर अपने आप पर गर्व अनुभव कर रही है।
बलिदानी इतिहास पर हमको बहुत घमंड।
बलिदानी इतिहास की, ज्वाला है प्रचंड ।।
हमारे इतिहास के साथ छल और धोखा करते हुए चाहे कितने ही छद्म इतिहास नायक हमारे लिए रातों-रात क्यों न खड़े कर दिए गए हों ? पर जब तक रानी पद्मिनी और गोरा बादल जैसे वीर वीरांगनाओं का नामशेष है, तब तक भारतवर्ष का कोई भी व्यक्ति उन छद्म इतिहास नायकों को अपना नायक मान ही नहीं सकता, जिन्होंने इस देश के धर्म, संस्कृति और इतिहास को उजाड़ने का काम किया। अलाउद्दीन खिलजी जैसे अधर्मी लोग हमारे लिए कभी इतिहास नायक नहीं हो सकते । हमारे लिए इतिहासनायक वही होंगे जो इस जैसे अधर्मियों का प्रतिरोध कर रहे थे या उससे प्रतिशोध लेने के लिए जिनकी भुजाएं फड़क रही थीं।
जब गोरा बादल विदेशी शत्रु लुटेरे दल के साथ संघर्ष कर रहे थे तो उस समय का दृश्य अपने आपमें अद्भुत और रोमांचकारी था।इस युद्घ का एक रोमांचकारी और हृदयस्पर्शी चित्रण बी.एस. शेखावत ने करते हुए लिखा है-”यों तो सभी राजपूत दिल खोलकर युद्घ में लड़ रहे थे, परंतु गोरा की बात ही निराली थी। भूखे सिंह की भांति गर्जना करता हुआ जिधर भी नंगी तलवार लेकर वह घुसता, वहीं त्राहि-त्राहि मच जाती थी, यहां तक कि उसके रौद्ररूप को देखकर यवन सैनिकों के हाथों में कंपन के कारण तलवारें नीचे गिर जाती थीं। वे सिंह के समक्ष बकरे की स्थिति में आ गये, वह वीरता का अवतार था। धीरे-धीरे राजपूत वीरगति को प्राप्त होते गये। लहुलुहान गोरा का सिर चकरा गया, और वह गश खाकर भूमि पर गिर गया। अपनी जन्मभूमि को याद करता हुआ हमेशा के लिए चिरनिद्रा में सो गया। धन्य है उसकी वीरता, स्वामी भक्ति और कर्त्तव्यपरायणता। मेवाड़ का एक बहादुर शेर रक्त रंजित भूमि में लेट गया। मेवाड़ के अनेक बहादुर नक्षत्रों में से एक दैदीप्यमान नक्षत्र अस्त हो गया।”
दीप बुझा मेवाड़ का छा गया मातम घोर।
देव पुष्प बरसा रहे, जय कारे सब ओर।।
सचमुच जिस समय यह शूरपुत्र मां भारती की गोद में सोया होगा, उस समय मां ने उसे वैसे ही अपने अंक में लिया होगा जैसे धूल में खेल कर थक गए अपने बालक को मां लिया करती है। मां भारती का सच्चा सेवक यह बालक भी शत्रु की तलवारों के बीच खेलता हुआ और अनेक शत्रुओं को धरती पर लिटाकर मां की गोद में पहुंचा था। मां ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए निश्चय ही यह भी कह दिया होगा कि तूने मेरे दूध की लाज रख ली है। मां भारती के ऐसे वीर पुत्रों की वीरता पर जितना लिखा जाए उतना कम है।
इन महान देशभक्तों की वीरता और देशभक्ति तब और भी अधिक वंदनीय हो जाती है जब इनके सामने खड़ा शत्रु दल किसी भी दृष्टिकोण से मानवतावादी नहीं था। उसकी क्रूरता और निर्दयता अपने चरम पर थी और ये उसकी क्रूरता और निर्दयता के समक्ष अपने सीने को दीवार की भांति सामने ताने खड़े थे। किसी की निर्दयता और क्रूरता का सामना सीनों को दीवार बनाकर करना वास्तविक वीरता होती है। दुर्भाग्य से भारत के इतिहास में सीनों की इस दीवार के बारे में पूर्णतया चुप्पी साध ली गई है। अब समय आ गया है कि दीवार की एक-एक ईंट से जाकर उसकी कुशल क्षेम हमें पूछनी चाहिए।
चित्तौड़ पर पुन: आक्रमण
राणा रतन सिंह उपनाम भीमसिंह और उनकी पत्नी पद्मिनी के
के हाथों अपमानित और पराजित होकर लौटे अलाउद्दीन खिलजी के लिए वे क्षण निश्चय ही बहुत पीड़ादायक थे। उसकी रातों की नींद उड़ गई थी। उसने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर एक बार फिर चित्तौड़ पर आक्रमण करने की योजना बनानी आरंभ की। इस बार वह चित्तौड़ की ईट से ईट बजा देना चाहता था। अपनी इसी प्रकार की भावना से प्रेरित होकर अंत में उसने एक विशाल सेना तैयार कर मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर आक्रमण कर ही दिया। फरिश्ता के अनुसार “दूसरी बार तातार सेना के चित्तौड़ में पहुंचते ही एक भयानक आतंक छा गया।” फरिश्ता ऐसा लिखकर यह बताने का प्रयास करता है कि इस बार मेवाड़ के लोग अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण से अत्यधिक भयभीत हो गए थे। बड़ी सरल सी बात है कि जो लोग पहले आक्रमण से भयभीत नहीं हुए थे उन्हें दूसरे आक्रमण का क्या भय हो सकता था ? विशेष रूप से यह बात तब और भी अधिक विचारणीय हो जाती है जब पहले युद्ध में निर्णायक रूप से मेवाड़ की जीत हुई थी। यदि मेवाड़ के लोग पहले युद्ध में पराजित हो गए होते तो निश्चित रूप से अगली बार के आक्रमण से उन्हें भय लगना स्वाभाविक था।
कर्नल टॉड लिखते हैं कि “चित्तौड़ में शूरवीर पहले युद्घ में ही बहुत बड़ी संख्या में समाप्त हो गये थे, इसलिए अब नई सेना का संगठन करना कठिन कार्य था। पर वीर सामंतों ने और सरदारों ने वीरता के साथ युद्घ की तैयारियां करनी आरंभ कर दीं।”
इस सबके उपरांत भी सात्विक वीरता के लिए विश्व विख्यात रहे भारत के आर्य योद्धाओं ने विदेशी आक्रमणकारी के लुटेरे दल का सामना करने का संकल्प लिया। उन्हें युद्ध से हटना या भागना प्रिय नहीं था। युद्ध में खड़े होकर शत्रु का सामना करना और आंख में आंख डालकर शत्रु के साथ संघर्ष करना उनके लिए वीरता का प्रतीक था। अपनी इसी सोच और राष्ट्र प्रेमी भावना से प्रेरित होकर हिंदू वीर योद्धा एक बार फिर विदेशी आक्रमणकारी के लुटेरे दल से भिड़ने के लिए युद्ध के मैदान में आ डटे।
युद्ध का समाचार मिलते ही राणा रतन सिंह ने भी युद्ध क्षेत्र में ही शत्रु का सामना करने का निर्णय लिया। निर्णय लिया गया कि इस युद्ध का नेतृत्व राणा के बड़े पुत्र अरि सिंह को दिया जाए। उस समय अरि सिंह की वीरता और साहस का सब लोहा मानते थे। ऐसे में सब को यह आशा थी कि राणा के बड़े पुत्र निश्चय ही युद्ध से विजयी होकर लौटेंगे।अरिसिंह ने सुल्तान की सेना का सामना युद्घ क्षेत्र में किया।
हुआ भयंकर युद्ध
तीन दिन तक हिंदू वीर राजपूतों और विदेशी आक्रांता सेना के मध्य भयंकर युद्घ होता रहा। दोनों पक्षों के असंख्य सैनिक युद्ध भूमि में खेत रहे। दोनों पक्षों को ही अपनी जीत की पूरी पूरी आशा थी। राजपूतों के लिए युद्घ प्रतिष्ठा का प्रश्न था, उनके लिए युद्ध निज अस्मिता और आत्मसम्मान का विषय बन चुका था। एक कदम पीछे हटाने का अभिप्राय था निज अस्मिता को विदेशी शक्तियों के हाथों में सौंप देना। इसी प्रकार विदेशी आक्रमणकारी सेना के सेनापति और सैनिकों की मानसिकता भी यही थी। अलाउद्दीन खिलजी भी इस मानसिकता का था कि यदि इस बार चित्तौड़ से वह खाली हाथ लौट गया तो फिर कभी चित्तौड़ को पाने का सपना साकार नहीं हो पाएगा। वह इस बार रानी पद्मिनी को जीवित या मृत प्राप्त कर लेना चाहता था।
युद्घ के चौथे दिन राजकुमार अरिसिंह युद्घ करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया। राजकुमार का इस प्रकार बलिदान होना निश्चित रूप से राणा रतन सिंह की सेना के लिए बहुत बुरा समाचार था। इस समाचार को सुनकर राणा रतन सिंह भी बहुत दु:खी हुए थे। यहां से दुर्भाग्य ने अपनी आहट देनी आरंभ कर दी थी।
जिससे सैन्यदल को आघात लगा। परंतु उसके उपरांत भी हमारे कुशल रणनीतिकारों ने व्यवस्था को संभाला और अरिसिंह के अनुज अजय सिंह ने स्वयं को युद्घ के लिए प्रस्तुत कर दिया। राणा के इस पुत्र अजय सिंह ने अपनी सेना के मनोबल को बनाए रखने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने भाई की मृत्यु से उपजी निराशा या हताशा को तनिक भी अपने ऊपर सवार नहीं होने दिया। पूरी वीरता और देशभक्ति का प्रदर्शन करते हुए वह शत्रु दल पर टूट पड़े।
कहते हैं कि अजय सिंह से राणा भीमसिंह का अनुराग अधिक था, इसलिए वह उसे युद्घभूमि में भेजने के पक्षधर नही थे। फलस्वरूप राणा ने अजय सिंह के कनिष्ठ भ्राताओं को युद्घ के लिए भेजना उचित समझा। वास्तव में उस समय राणा रतन सिंह एक कूटनीतिक भूल कर रहे थे। राणा ने समय को पहचाना नही, वह युद्घ संचालन में अक्षम और अनभिज्ञ राजकुमारों को भेजता रहा और राजकुमार अपना बलिदान देकर अपनी राष्ट्रभक्ति का परिचय देते रहे, पर विजयश्री नही मिली। इस प्रकार राणा रतन सिंह अपने एक – एक पुत्र को युद्ध में खोते रहे। राणा के कुल ग्यारह पुत्र युद्घ भूमि में शत्रु से युुद्घ करते-करते बलिदान हो गये। अजय सिंह ही शेष रहा। इस प्रकार इस युद्ध में मेवाड़ की बहुत भारी क्षति हो चुकी थी। राणा रतन सिंह अपने पुत्रों का बलिदान होते देख रहे थे । जिससे उनकी चिंता और तनाव दिन – प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। अंत में राणा भीमसिंह ने युद्घ में स्वयं जाने का निर्णय लिया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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