Dr DK Garg
Note -यह आलेख महात्मा बुद्ध के प्रारम्भिक उपदेशों पर आधारित है। ।और विभिन्न विद्वानों के विचार उपरांत है। ये 11 भाग में है।
इसको पढ़कर वे पाठक विस्मय का अनुभव कर सकते हैं जिन्होंने केवल परवर्ती बौद्ध मतानुयायी लेखकों की रचनाओं पर आधारित बौद्ध मत के विवरण को पढ़ा है ।
कृपया अपने विचार अवश्य बताए।
क्या महात्मा बुद्ध यज्ञ और वेद विरोधी थे?
गौतम बुद्ध की विरक्ति का एक कारण उस समय प्रचलित पाखण्ड और यज्ञों के नाम पर क्रूर बलिप्रथा , यज्ञ में पशु – पक्षियों की हिंसा , यज्ञ में की आड़ में मांसाहार जैसा पाप था । यज्ञों में आई विकृतियों के कारण बुद्ध के प्रवचनों में यज्ञ के विधानों के प्रति कोई रुचि नहीं दिखाई देती ।
बुद्ध ने यज्ञ आदि की अपेक्षा निर्मल मन – आचरण को उत्तम माना है।उसका मूल कारण उनके मन पर तत्कालीन विकृत यज्ञों का प्रभाव है ।
किन्तु यह भी वास्तविकता है कि उनके उपदेशों में यज्ञ का कोई विरोध नहीं है , अपितु पुण्य के लिए किये यज्ञ की प्रशंसा है-
यो वेदगु जानरतो सतीमा सम्बोधि पत्तो सरनम बहूनां ।
कालेन तं हि हव्यं पवेच्छे यो ब्राह्मणो पुण्यपेक्षो यजेथ ।
( सुत्तनिपात , गाथा ५०३ )
अर्थ – ‘ जो वेदों का विद्वान् सत्यचरित्र , ज्ञानवान् , अधिक से अधिक लोगों को शरण देने वाला हो । ऐसा ब्राह्मण यदि पुण्य के लिए यज्ञानुष्ठान करे तो उसका उस समय हव्य – कव्य से सम्मान करे ।
महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों में वैदिक धर्मशास्त्रों , उपनिषदों और योगदर्शन के सदाचारों का ही प्रस्तुतीकरण किया है ।
बुद्ध ने दु:खों से छूटने का आठ प्रकार का जो मार्ग बताया है उसको उन्होंने ‘आर्य अष्टांग मार्ग ‘ नाम दिया है । चार ‘आर्य सत्य ‘ हैं दु:ख का ज्ञान होना , दुःख का कारण जानना , दुःख की उत्पत्ति – प्रक्रिया और दुःख को दूर करने की आवश्यकता , दु:ख को दूर करने का मार्ग
ये सभी वैदिक शास्त्रों और योगदर्शन के उपदेश हैं । बुद्ध ने उनका सच्चा आचरण करने पर बल दिया है ।
( धम्मपद १४ . १२ )
कुछ प्रमाण
पापों का नाश
ऋतस्य धीतिर्वृ जिनानि हन्ति। (ऋग्वेद ४/२३/८)
ऋत् अर्थात् सत्य का चिंतन पापों का नाश करता है
यज्ञ का फल
यज्ञो हि त इंद्र वर्धनोऽभूत । (ऋग्वेद ३/३२/१२)
हे आत्मन! यज्ञ तेरी वृद्धि का, तेरी उन्नति का सर्वोत्तम साधन है।
दस्यु कौन है?
अकर्मा दस्यु : (ऋग्वेद १०/२२/८)
कर्म न करने वाला व्यक्ति दस्यु है।
बुद्ध वेदों के विरोधी बिलकुल नहीं थे , कुछ अन्य प्रमाण।
पं . धर्मदेव विद्यामार्तण्ड ने अपनी पुस्तक ‘ वेदों का यथार्थ स्वरूप ‘ में वेदों की प्रशंसा – विषयक बुद्ध के अनेक वचन उद्धृत किये हैं । उनमें एक – दो इस प्रकार हैं –
विद्वा च वेदेहि समेच्च धम्मम् ।
न उच्चावचं गच्छति भूरिपज्जो ।
( सुत्तनिपात , गाथा २९२ )
अर्थ – ‘ जो विद्वान् वेदसम्मत धर्म को जान लेता है , वह बुद्धिमान् व्यक्ति कभी सन्देहग्रस्त नहीं रहता अर्थात् वह धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझ लेता है ।
विद्वा च सो वेदगु नरो इध भवाभावेसंगम इमं विसज्जा !
सो विततन्हो अनिघो निरासो अतारिसो जाति जरान्ति मिति । ( वही , गाथा १०६० )
अर्थ – बुद्ध कहते हैं – ‘ मैं तुम्हें बताता हूँ कि वेदों का ज्ञाता विद्वान् मनुष्य सांसारिक मोह – माया को त्याग कर तृष्णारहित , पापरहित , इच्छारहित हो जाता है और वह जन्म , जरा , मृत्यु को जीतकर मुक्त हो जाता है । ‘ एक अन्य स्थल पर तो वेदमन्त्रों का स्वाध्याय न – करने को दोष कहा है।( असज्झायमला मन्ता , ‘ धम्मपद १८ . ७ ) ।
बौद्ध ग्रन्थों में श्लोक या गाथाएँ होती हैं , मन्त्र नहीं । होते । अत : यह कथन वेदमन्त्रों के लिए ही है । मनुस्मृति , महाभारत , उपनिषद् आदि शास्त्रों के अनेक उद्धरण बुद्ध . के प्रवचनों में मिलते हैं जिनका पालि भाषा में रूपान्तरण किया हुआ है । इस प्रकार बुद्ध के अनेक प्रवचन वैदिक शास्त्रों पर आधारित हैं ।