लेखक- पण्डित रघुनन्दन शर्मा
750 पृष्ठ 8″×10″ सजिल्द.
मूल्य ₹ 750 (डाक खर्च सहित)
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वर्तमान समय में ईश्वर, धर्म, वेद और मोक्ष ये सब असंगत बातें हैं। ऐसा कह कर आर्यसंस्कृति को महत्त्वहीन सिद्ध करने वालों को वैदिक सम्पत्ति में ये प्रतिपादित किया गया है कि, क्यों ईश्वर, धर्म और मोक्ष जैसे विषय अत्यन्त उपयोगी है। बिना ईश्वर में माने, बिना ईश्वर प्राप्ति का उपाय किये, बिना सदाचार का अनुष्ठान किये मानव सभ्यता की आर्थिक, सामाजिक और राष्ट्रिय जटिलता हल नहीं हो सकती। इन विचारों के बिना मनुष्य में समता, दया, प्रेम और त्याग के संस्कार संचित नहीं हो सकते, जिससे बर्बरता, व्यभिचार, ठगी जैसे कई अवांछित दुर्गणों को वेग मिलेगा।
जातिवाद, सम्प्रदायवाद और कौमवाद पर चोट करने के लिये और आर्यसभ्यता के वास्तविक स्वरूप को दर्शाने के लिये इस ग्रन्थ में सोदाहरण प्रयास किये गये हैं। भौतिकविज्ञान, जीवविज्ञान, पशुविज्ञान, शिक्षा इत्यादि विषयों पर आज भी सब प्रयास रत हैं, वहाँ वेद में उल्लिखित सटीक बातों को विस्तार से बताया गया है।
एक तरफ भारत सरकार ने ऋग्वेद को यूनेस्को के विश्व धरोहरों में शामिल कराया है तथा दूसरी तरफ इस वेद के बारे में NCERT की इतिहास की किताबों में एक भी पंक्ति नहीं है।
भारत पर सभ्यतागत आक्रमणों में एक बडा आक्रमण यहां की ज्ञान परंपरा पर किया गया था। भारतीय ज्ञान परंपरा का सबसे बडा आधार थे वेद। इसलिए अंग्रेजों सहित समस्त यूरोपीय बौद्धिक जगत ने वेदों को निरर्थक साबित करने के लिए एडी-चोटी एक कर दिया था। सबसे पहले कहा गया कि वेद तो चरवाहे के लिखे गीत मात्रा हैं, इनमें किसी प्रकार का कोई दर्शन या विज्ञान नहीं है। फिर वेदों के व्यर्थता को साबित करने के लिए इनका अनर्गल भाष्य करने और वैदिक साहित्य को हीनतर साबित करने के लिए वैदिक साहित्य पर विभिन्न प्रकार के आरोप लगाने जैसे प्रयास भी किए गए। वेदों में वर्णित प्रकृति के रहस्यों पर आधारित आलंकारिक कथाओं को मनुष्य इतिहास के रूप में दिखाने और उसके आधार पर वेदों में अश्लीलता, चरित्र हीनता और अनर्गल प्रलापों के भरे होने के दावे किए गए। स्वाभाविक ही था कि वेदों को परम प्रमाण मानने और उन पर गहरी आस्था रखने वाले वैदिक सनातन समाज पर यह एक गंभीर सभ्यतागत आक्रमण था। इस आक्रमण का वैदिक समाज ने जोरदार सामना किया और इन सभी आरोपों के खंडन और वेदज्ञान की श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए विपुल साहित्य की रचना की। ऐसी ही एक पुस्तक है वैदिक संपत्ति।
वैदिक संपत्ति में लेखक ने वेदों के ज्ञान का विशद वर्णन किया है। वेदों में वर्णित समाज व्यवस्था, राज्य व्यवस्था सहित अन्यान्य विषयों का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है। इसे पढने से वेदों का एक निर्भ्रांत और साफ चित्रा व्यक्ति के मन में उभरता है, अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा जागती है और भारत की सनातनता का विश्वास दृढ होता है। यह पुस्तक भारत के प्राचीन ज्ञान की एक जबरदस्त कुंजी है। यह भारतीय ज्ञान और वैदिक साहित्य पर लगाए गए समस्त आक्षेपों का निराकरण कर उनके सटीक उत्तर प्रस्तुत करती है
भारत दुनिया का शायद अकेला ऐसा देश है, जहां के आधिकारिक इतिहास की शुरुआत में ही यह बताया जाता है कि भारत में रहने वाले लोग यहां के मूल निवासी नहीं हैं भारत में रहने वाले अधिकांश लोग भारत के हैं ही नहीं. ये सब विदेश से आए हैं. वामपंथी इतिहासकारों ने बताया कि हम आर्य हैं. हम बाहर से आए हैं. कहां से आए? इसका कोई सटीक जवाब नहीं है. फिर भी बाहर से आए. आर्य कहां से आए, इसका जवाब ढूंढने के लिए कोई इतिहास के पन्नों को पलटे, तो पता चलेगा कि कोई सेंट्रल एशिया कहता है, तो कोई साइबेरिया, तो कोई मंगोलिया, तो कोई ट्रांस कोकेशिया, तो कुछ ने आर्यों को स्कैंडेनेविया का बताया. आर्य धरती के किस हिस्से के मूल निवासी थे, यह इतिहासकारों के लिए आज भी मिथक है. मतलब यह कि किसी के पास आर्यों का सुबूत नहीं है, फिर भी साइबेरिया से लेकर स्कैंडेनेविया तक, हर कोई अपने-अपने हिसाब से आर्यों का पता बता देता है. भारत में आर्य अगर बाहर से आए, तो कहां से आए और कब आए, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है. यह भारत के लोगों की पहचान का सवाल है. विश्वविद्यालयों में बैठे बड़े-बड़े इतिहासकारों को इन सवालों का जवाब देना है. सवाल पूछने वाले की मंशा पर सवाल उठाकर इतिहास के मूल प्रश्नों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है.
एनसीईआरटी से वैदिक इतिहास के हटाये जाने पर सरकार जबाब देना होगा यह दुनिया की सबसे पुरातन सभ्यता है. इतिहास में रुचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह आश्चर्य का विषय है कि जब ग्रीस, रोम और एथेंस का नामोंनिशान नहीं था, तब यहां के लोग विश्वस्तरीय शहर बनाने में कैसे कामयाब हो गए, टाउन-प्लानिंग का ज्ञान कहां से आया और उन्होंने स्वीमिंग पूल बनाने की तकनीक कैसे सीखी?
भारत के लोग जब अपने ही इतिहास को पढ़ते हैं, तो उन्हें गर्व की अनुभूति नहीं होती है. इसका कारण यह भी है कि देश के इन वामपंथी इतिहासकारों ने इस ढंग से इतिहास लिखा है कि जो एक बार पढ़ ले, तो उसकी इतिहास से रुचि ही ख़त्म हो जाती है.
भारतीय इतिहासकारों ने इन्हीं अंग्रेजों के लिखे इतिहास पर आर्यों और द्रविड़ों का भेद किया. बताया कि सिंधु घाटी में रहने वाले लोग द्रविड़ थे, जो यहां से पलायन कर दक्षिण भारत चले गए. अब यह सवाल भी उठता है कि सिंधु घाटी से जब वे पलायन कर दक्षिण भारत पहुंच गए, तो क्या उनकी बुद्धि और ज्ञान सब ख़त्म हो गया. वे शहर बनाना भूल गए, स्वीमिंग पूल बनाना भूल गए, नालियां बनाना भूल गए. और, बाहर से आने वाले आर्य, जो मूल रूप से खानाबदोश थे, कबीलाई थे, वे वेदों का निर्माण कर रहे थे. दरअसल, वामपंथी इतिहासकारों ने देश के इतिहास को मजाक बना दिया।
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