बिखरे मोती-भाग 207
गतांक से आगे….
जर्मनी का महान कवि ‘गेटे’ ”हे परमात्मन! आप मेरी आत्माओं को सत्य और सौंदर्य से अर्थात अपने प्यार और स्नेह से भर दो, मेरे अंतर (हृदय) के पट खोल दो, मेरे मन और वाणी का अंतर मिटा दो।”
सिकंदर महान का गुरू-महान विचारक अरस्तु यूनान का विश्वविख्यात दार्शनिक सुकरात दिन में लालटेन लेकर चलता था। लोग उनसे पूछते थे-आप दिन में लालटेन लेकर क्यों चलते हो? प्रत्युत्तर में सुकरात कहता था ‘लोग सोचते कुछ हैं, कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं, सब अपना होश खोये हुए हैं, बेहोशी में हैं और अपने केन्द्र से अर्थात परमात्मा से दूर हो गये हैं। मुझे ये सब ऐसे लगते हैं जैसे मुर्दे सांस ले रहे हैं। ये बेहोशी की नींद में हैं। अत: मैं उन लोगों को ढूंढ़ रहा हूं, जो अपने आत्मस्वरूप को जानते हैं, जाग्रत पुरूष हैं और परमात्मा के समीप हैं। इसीलिए सुकरात सडक़ों पर चीख-चीखकर कहता था Know thyself, Know thyself, अर्थात अपने आत्मस्वरूप को पहचानो और परमात्मा को जानो।
स्तुति उपासना और प्रार्थना के संदर्भ में महर्षि देव दयानंद का दृष्टिकोण देखिये-”स्तुति से ईश्वर में प्रीति बढ़ती है, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपना स्वभाव सुधारने की प्रेरणा मिलती है। प्रार्थना से निरभिमानता अर्थात अहंकारशून्यता, उत्साह और सहाय का मिलन होता है, जबकि उपासना से परमब्रह्म से मेल और साक्षात्कार होता है। अब प्रश्न यह उठता है कि प्रार्थना कैसी हो? ध्यान रहे, मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। इसलिए प्रार्थना मन से होनी चाहिए, इंद्रियों से नहीं। इस संदर्भ में संत रविदास कहते हैं-
”हरि सिमरै सोई संत बिचारो”
सारांश यह है कि जो जन सांसारिक जीवन में सफलता के शिखर पर पहुंचना चाहते हैं, अर्थात मानव जीवन को सफल एवं सार्थक बनाना चाहते हैं, वे महापुरूषों के जीवन से प्रेरणा लें, उनका अनुकरण करें और पुरूषार्थ के साथ- साथ प्रार्थना मन से करें, श्रद्घा से करें। प्रार्थना ऐसी करो कि तुम्हें अपनी सुध समय और स्थान का ध्यान बेखुदी छा जाए ऐसी कि तू खुद को भूल जाए। उसको पाने का तरीका, अपने को खाने में है।
पूजा की आत्मा श्रद्घा होती है
पूजा की थाली सजा,
किसको रहयो रिझाय।
एक श्रद्घा का भाव ही,
नारायण तक जाए।। 1139।।
व्याख्या:-
उपरोक्त दोहे का केन्द्रीय भाव-श्रद्घा, है। इसलिए यहां गीता, रामायण, पुराण तथा अन्य मनीषियों के विचारों का उद्घरण देना प्रासंगिक रहेगा। श्रद्घा गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं-”श्रद्घावान लभ्यते ज्ञानम्” हे अर्जुन! श्रद्घावान व्यक्ति ही ज्ञान को प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त गीता में ही प्रसंगवश भगवान कृष्ण कहते हैं-”श्रद्घा के बिना किया गया अग्निहोत्र (यज्ञ) तप, दान, तीर्थ और प्रार्थना व्यर्थ रहते हैं।”
‘रामचरितमानस’ के उत्तरकाण्ड में महाकवि तुलसीदास कहते हैं-
श्रद्घा बिना धरम नहीं होई।
बिन महि गंध कि पावइ कोई।।
अर्थात जिस प्रकार पृथ्वी तत्व के बिना गंध को नहीं पाया जा सकता है ठीक इसी प्रकार श्रद्घा के बिना कोई धार्मिक कार्य अथवा धार्मिक अनुष्ठान पूरा नहीं होता है।
क्रमश: