चोरों के हाथ में ज्ञान मन्दिर
गुरूग्राम स्थित ‘रेयान इण्टर नेशनल स्कूल’ में एक अबोध बालक प्रद्युम्न की जिस प्रकार हत्या की गयी है, वह निश्चय ही रोंगटे खड़े करने वाली घटना है। इसके साथ ही पूर्वी दिल्ली के एक स्कूल में कर्मचारी द्वारा विगत 9 सितंबर को अबोध बच्ची से हुआ दुष्कर्म का मामला भी कम दु:खदायक नहीं है। ज्ञान के मंदिरों में ऐसी दुर्घटनाओं का होना बताता है कि हमारे समाज की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है, स्वास्थ्य खराब है और उसकी सोच में दानवता समा चुकी है।
अभी पिछले दिनों (10 सितंबर को) उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ब्रह्मलीन महंत अवैद्यनाथ जी की श्रद्घांजलि सभा में बोलते हुए गोरखपुर में कहा है कि केवल कर्मकाण्ड व प्रवचन का नाम ही धर्म नहीं है। धर्म इससे कुछ आगे है। योगी आदित्यनाथ के इस कथन को ज्ञानमंदिरों में हो रहे अपराधों के साथ समन्वित करके देखने की आवश्यकता है। सचमुच धर्म कर्मकाण्ड व प्रवचन से बहुत कुछ आगे की चीज है। यदि धर्म वास्तव में मानव का मार्गदर्शन करने लगे तो वह स्कूलों के प्रबंधन को अभिभावकों की जेब पर डाका डालने की अनुमति नहीं देगा। वह उन्हें बताएगा कि मानवता की सेवा अभिभावकों को लूटना न होकर सुसंस्कारित बच्चों का निर्माण करना है। जिसके लिए आवश्यक है कि स्कूल खोलने वाला या चलाने वाला प्रबंधन तंत्र व उसके अध्यापक/अध्यापिकाएं आदि कर्मचारीगण भी उच्च मानवीय गुणों से सुशोभित हों। हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली ने अध्यापक/अध्यापिकाओं की योग्यता को उनकी डिग्रियों से मापना आरंभ कर दिया है। उनकी नियुक्ति के समय यह नहीं देखा जाता है कि उनके भीतर कौन से संस्कार हैं और वह धर्म की पवित्र भावना से कितने परिचित या अभिभूत हैं? वह उच्च मानवीय गुणों को अपनाते भी हैं या नहीं?- वह स्वयं धूम्रपान, मद्यपानादि की दुष्प्रवृत्तियों से दूर भी हैं या नहीं? हमने शिक्षा क्षेत्र में इन गुणों की उपेक्षा करके शिक्षा को चोर उचक्कों व लफंगों के हाथों में सौंप दिया है। इन चोरों ने समाज में यह भ्रम उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त कर ली है कि मैं व्यक्तिगत जीवन में कैसा हूं-इस बात को छोडिय़े बस मैं सूट-बूट से कैसा लगता हूं?- यह देखिये। मानो सूटबूट पहनकर ये किसी सौंदर्य प्रतियोगिता में जा रहे हों? यदि सूटबूट की सौंदर्य प्रतियोगिता को विद्यालयों में इस प्रकार आयोजित कराया जाएगा और अध्यापक/अध्यापिकाओं के निजी चरित्र को इन सूटबूटों की चमक की या इत्रादि की वासनात्मक सुगंध के बोझ तले दबाया जाएगा तो समझो कि धर्म मर जाएगा और मरा हुआ धर्म विद्यालयों में यही उत्पात मचवाएगा जो उक्त दोनों उदाहरणों से स्पष्ट होता है।
शिक्षा को जब वैदिक संस्कृति की मानव-निर्माण योजना वाली शिक्षा पद्घति से जोडऩे की मांग की जाती है तो कुछ लोगों के पेट में पीड़ा होने लगती है। यह कार्य उन्हें शिक्षा का मानवीयकरण कम और भगवाकरण होता अधिक दीखता है। आश्चर्य की बात है कि कलंक के सिपाही भी एक दूसरे को ‘पप्पूवादी’ या ‘मोदी के चाटुकार’ कहकर संबोधित करने लगे हैं। उनका भाषासंयम बिगड़ चुका है और एकदूसरे पर कटाक्ष कर अपने विषय में ही यह स्पष्ट कर रहे हैं कि मेरा खेमा अमुक है और तेरा खेमा अमुक है। ‘बुद्घिवाद’ को भी यदि खेमों में विभाजित करने की इस दुष्प्रवृत्ति पर रोक न लगायी गयी तो परिणाम और भी बुरे देखने को मिलेंगे। बुद्घिवाद तो खेमों में बंटी राजनीति को सही दिशा दिखाने का नाम है और सामाजिक विकृतियों व विसंगतियों को झेल रहे समाज को नई और उचित दिशा देने का नाम है। यदि बुद्घिवाद लोगों को कम्युनिस्ट, भगवावादी, कांग्रेसी या समाजवादी बनाने लगेगा तो समझिये कि मानव-निर्माण के अपने धर्म को बुद्घिवाद भूल गया है।
वास्तव में ‘बुद्घिवाद’ इस समय देश में अपने मानव निर्माण के धर्म से दूर हट चुका है। बुद्घिवाद इस समय अवसरवादी हो चुका है, यह प्रवृत्ति घातक है। बहती गंगा में हाथ धोने की बुद्घिवाद की इस प्रवृत्ति पर इस समय अंकुश लगाने की आवश्यकता है।
बुद्घिवाद अपनी सीमाओं का उस समय अतिक्रमण करता है जब वह शिक्षा के ज्ञानमंदिरों में दी जाने वाली नैतिक शिक्षा को अनुपयोगी बताता है या यदि कहीं वैदिक नैतिक शिक्षा दी जा रही है तो वहां तुरंत यह मांग करता है कि ऐसी शिक्षा एक पंथनिरपेक्ष देश में दी जानी असंवैधानिक है। इस पर रोक लगे और यदि यह दी जाती है तो अन्य मजहबों की शिक्षा भी दी जानी चाहिए। ज्ञान में आरक्षण और तुष्टिकरण और यही स्थिति है जहां विद्यालयों में ‘धर्म’ लंगड़ा करके बैठाया जाता है और उसकी सोच को साम्प्रदायिक बनाने के लिए उसे दबाव में लिया जाता है। मानव को मानव से जोडऩे की आवश्यकता है-इसे शिक्षा से नजरअंदाज किया जाता है। फलस्वरूप एक ‘न्यूनतम सांझा कार्यक्रम’ बनाया जाता है कि शिक्षा को रोजगार प्रद बनाओ और उसे नैतिकता से दूर कर दो। इसी ‘न्यूनतम सांझा कार्यक्रम’ बनाने की हमारी मूर्खता ने हमारी शिक्षा प्रणाली को हृदयहीन और संवेदनाशून्य बनाकर रोजगार प्रद बना दिया है। इसका परिणाम ये आया है कि विद्यालयों मेें धोती कुत्र्ता पहनकर जाने वाले आचार्य या शिक्षक अब दिखायी नहीं देेते, जिनकी सादगी, ईमानदारी और उच्च सच्चरित्रता उनके चेहरों से ही झलका करती थी। वे ‘देवपुरूष’ विद्यालयों में पढऩे वाली बच्चियों को अपनी पुत्री मानते थे और बच्चों को अपना पुत्र मानते थे। इनदोनों को अर्थात अपनी पुत्रियों व पुत्रों को परस्पर भाई-बहन के रूप में जीवन जीने की प्रेरणा दिया करते थे। उस सात्विक परिवेश में सादगी झलकती थी, वासना या श्रंगार का कहीं नाम तक नहीं होता था। जिसका प्रभाव बच्चों पर पड़ता था और हमारे विद्यालय संस्कारशाला के रूप में पूजे जाते थे मंदिर के रूप में लोग उनका सम्मान करते थे। तब वह आज के स्कूलों की भांति अध्यापक-अध्यापिकाओं की ‘सौंदर्य प्रतियोगिता’ का अखाड़ा नहीं होते थे। घर अध्यापक, अध्यापिका के निजी उच्च चारित्रिक गुणों की छाप उसके राष्ट्रनिर्माण के रूप में देखते थे। अपवादों को नमन करते हुए आज के संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि आज तो चोरों के हाथ में शिक्षा तंत्र है। व्यभिचारियों के हाथ में हमारी बच्चियों का शील है और वासनात्मक परिवेश में राष्ट्र का यौवन बार-बार रपट-रपटकर गिर रहा है।
हम परिणामों की चिंता किये बगैर अंधेरी गुफा में घुसते ही जा रहे हैं। अच्छा हो कि राजनीति अपने राष्ट्रधर्म को पहचाने, बुद्घिवाद अपने धर्म को पहचाने और ज्ञान मंदिर अपने धर्म को पहचानें। तभी ‘रेयान इटरनेशनल स्कूल’ की पुनरावृत्ति को रोका जा सकता है और तभी हर बच्ची की सुरक्षा हम कर पाने में सफल हो जाएंगे।
मुख्य संपादक, उगता भारत