मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 4 (ख ) रानी पद्मिनी की योजना
रानी पद्मिनी की योजना
रानी पद्मिनी को जैसे ही यह समाचार मिला कि अलाउद्दीन खिलजी छल प्रपंच से उनके पति का अपहरण कर ले गया है तो वह तनिक भी निराश नहीं हुई। रानी ने वस्तुस्थिति की जानकारी होते ही तुरंत कूटनीतिक योजना बनाई। रानी रणनीति और कूटनीति में बहुत ही चतुर्थी। उन्होंने बहुत ही शांत भाव से अपनी योजना पर गंभीरता से विचार किया और एक बहुत ही सुंदर निष्कर्ष पर पहुंचने में उन्हें देर नहीं लगी। उन्होंने अलाउद्दीन खिलजी के लिए संदेश पहुंचा दिया कि वह स्वयं उसकी रानी बनने के लिए तैयार हैं, पर शर्त यह रहेगी कि वह अपनी राजपूत सहेलियों को अपने साथ लेकर आएगी। रानी की दूसरी शर्त यह थी कि जब वह अलाउद्दीन खिलजी के शिविर में प्रवेश कर रही होगी तो कोई भी मुस्लिम सैनिक उसकी स्वयं की और उसकी सहेलियों की डोली का निरीक्षण नहीं करेगा और ना ही किसी प्रकार से रानी की गरिमा को ठेस पहुंचायेगा। अलाउद्दीन खिलजी ने रानी की दोनों शर्तों को स्वीकार कर लिया। जब व्यक्ति पर वासना का भूत सवार हो जाता है तो वह बिना सोचे समझे कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। अलाउद्दीन खिलजी जैसा धूर्त शासक तो इस वासना का और भी अधिक बुरी तरह शिकार हो चुका था। हमारे ऋषि-मुनियों ने इसीलिए राजा का जितेंद्रिय होना अनिवार्य माना है। वे जानते थे कि यदि राजा जितेंद्रिय नहीं होगा तो वह वासना के वशीभूत होकर अधर्म से भरा हुआ कोई भी निर्णय ले सकता है । जिससे प्रजा और राष्ट्र दोनों का ही अहित होता है। सारे मुस्लिम शासक इसी प्रकार की दुर्बलताओं का शिकार रहे। यही कारण रहा कि उनके शासनकाल में राष्ट्र और प्रजा दोनों का ही अहित हुआ।
रानी ने योजना बनाई कि उनकी जिन सहेलियों को साथ ले जाने की स्वीकृति अलाउद्दीन खिलजी की ओर से आई है, उनके स्थान पर सशस्त्र राजपूत सैनिक पालकियों में बैठाए जाएंगे। पालकियों को कंधों पर उठाकर चलने वाले कहारों के स्थान पर छह -छह सैनिक उठाकर चलेंगे। इन सभी वीर योद्धाओं के शस्त्र पालकी के भीतर रखे जाएंगे। रानी शिविर में पहुंचने के पश्चात राजा से अंतिम बार मिलने की याचना खिलजी से करेगी और राजा से मिलकर उसे सारी योजना से अवगत कराते हुए छुड़ाने का कार्य पूर्ण किया जाएगा। अवसर और संकेत मिलते ही सैनिक राजा की पालकी को उठाकर चल देंगे। पालकियों के भीतर छिपे सैनिक योद्धा मिलकर तातार सेना का सामना करेंगे। इस सारी योजना को गोरा और बादल जैसे वीर पराक्रमी योद्धाओं के नेतृत्व में संपन्न करने का भी निर्णय लिया गया।
अभिनंदनीय साहस
आप तनिक कल्पना करें कि जब अलाउद्दीन खिलजी जैसे अत्याचारी और क्रूर बादशाह की बहुत बड़ी सेना किले के बाहर पड़ी हो तब रानी का अपने मुट्ठी भर सैनिकों के साथ उसकी सेना के शिविर में जाना कितना जोखिम भरा हुआ हो सकता था? इसके उपरांत भी देश के सम्मान के लिए और अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए रानी ने अपने प्राणों को संकट में डाल कर उस योजना पर कार्य किया। इसके लिए न केवल रानी का बौद्धिक चातुर्य अभिनंदनीय है,वरन हमारे उन सभी वीर सैनिकों का साहस और शौर्य भी अभिनंदन का पात्र है जिन्होंने अपने प्राणों को संकट में डाल कर इस अभियान में हिस्सा लिया। शत्रु को उसके शिविर में जाकर मारना या अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपने प्राणों को संकट में डालकर शत्रु के मुंह में अपने आप को अपने आप ही डाल देना यह केवल भारत के वीर योद्धा से ही सीखा जा सकता है। देश की अस्मिता के लिए मर मिटने की ऐसी अमिट भावना हमें विश्व इतिहास में अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। अपने सिर पर केसरिया साफा बांधकर युद्ध के लिए निकलने वाले हमारे वे वीर योद्धा यह भली प्रकार जानते थे कि वहां से उनका लौटना कितना कठिन हो सकता है ? इसके उपरांत भी उन्होंने अपने आपको आग में धकेल दिया। निश्चित रूप से हमें उनके साहस को दाद देनी चाहिए, जिसके कारण हम अपनी संस्कृति की रक्षा करने में अनेक अवसरों पर सफल हुए।
कर्नल टॉड से हमें पता चलता है कि "नियत दिन को सही समय पर सात सौ बंद पालकियां चित्तौड़ से निकलकर बादशाह के शिविर की ओर रवाना हुईं। प्रत्येक पालकी के छह- छह कहार थे और वे अपने वस्त्रों में लड़ने के लिए हथियार लाए थे। उन पालकियों में चित्तौड़ के शूरवीर सशस्त्र सपूत बैठे थे। चित्तौड़ से निकलकर पालकियां बादशाह के शिविर के सामने पहुंच गईं। बादशाह ने उनके लिए एक बड़ा शिविर लगा दिया था और उस शिविर के चारों ओर एक द्वार बनाकर कनातें लगा दी गई थीं। एक-एक करके सभी पालकियां शिविर के भीतर पहुंच गईं।"
रानी ने दिया तुर्की व तुर्की प्रति उत्तर
रानी के निवेदन पर अलाउद्दीन खिलजी ने उसे राणा रतन सिंह से मिलने का समय दे दिया। उचित समय पर योजना के अनुरूप कार्य करते हुए राजा को एक पालकी में बैठा कर चित्तौड़ के वीर योद्धा लेकर चल दिए। कुछ ही समय में अलाउद्दीन को समझ आ गया कि उसके साथ क्या हो चुका है ? और क्या हो जाना चाहिए था ? रानी ने तुर्की सुल्तान को तुर्की ब तुर्की प्रति उत्तर दे दिया था। अब अलाउद्दीन खिलजी के शिविर में हमारे वीर देशभक्त योद्धा अलाउद्दीन खिलजी के सैनिकों की भयंकर मारकाट मचा रहे थे। चारों ओर तलवारें बज रही थीं। हक्के बक्के अलाउद्दीन खिलजी के सैनिक समझ नहीं पा रहे थे कि यह सब क्या हो गया? हमारे वीर योद्धाओं ने जी भरकर तातार सैनिकों को समाप्त किया। कुछ दूर पर खड़े एक विशेष घोड़े से राणा को चित्तौड़ के किले की ओर दौड़ा दिया गया।
किले की ओर सरपट दौड़ते हुए राणा का पीछा कुछ मुस्लिम सैनिकों ने किया। यह मुस्लिम सैनिक किले के द्वार तक पहुंच गए। जहां गोरा और बादल रानी पद्मिनी की बनाई गई पूर्व योजना के अनुसार किले की रक्षा के लिए अपनी विशेष सैनिक टुकड़ी के साथ खड़े हुए थे। वहां पर मुस्लिम सैनिकों और गोरा - बादल के बीच भयंकर युद्ध हुआ। बताया जाता है कि बादल की अवस्था उस समय केवल 12 वर्ष की थी। इसके उपरांत भी उस वीर योद्धा बालक ने अनेक यवनों को मृत्यु लोक पहुंचा दिया। उसकी तलवार आज यह नहीं देख रही थी कि पलक झपकते ही कितने शत्रुओं का सिर धरती पर गिर रहा है ? आज उसे केवल अपना लक्ष्य दिखाई दे रहा था। वह वीर बालक देश भक्ति का जीता जागता प्रमाण बन चुका था। शत्रु उसकी वीरता के समक्ष दांतो तले उंगली दबा रहा था। युद्ध करते हुए वीरता और देशभक्ति के प्रतीक गोरा ने भी आज युद्ध में अपना उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। उसकी तलवार से भी अनेक शत्रुओं का संहार हुआ। अंत में युद्ध करते हुए ही गोरा को वीरगति प्राप्त हो गई।
गोरा की पत्नी का बलिदान
युद्ध का वर्णन करते हुए कर्नल टॉड ने लिखा है कि "सैकड़ों जख्मों से क्षत-विक्षत बालक बादल चित्तौड़ पहुंचा। उसके साथ गोरा नहीं था। यह देखते ही गोरा की पत्नी युद्ध के परिणाम को समझ गई। उसने अपने गंभीर नेत्रों से बादल की ओर देखा। उसकी सांसों की गति तीव्र हो चुकी थी । वह बादल के मुंह से तुरंत सुनना चाहती थी कि बादशाह के सैनिकों के साथ उसके पति गोरा ने किस प्रकार वीरता से युद्ध किया और शत्रुओं का संहार किया। वह बादल के कुछ कहने की प्रतीक्षा न कर सकी और उतावले उनके साथ उससे कह बैठी बादल ! युद्ध का समाचार सुनाओ। प्राणनाथ ने आज शत्रुओं से किस प्रकार युद्ध किया ? बादल में साहस था ,उसमें बहादुरी थी। अपनी चाची और गोरा की पत्नी को उत्तर देते हुए उसने कहा - 'चाचा की तलवार से आज शत्रुओं का खूब संहार हुआ। सिंहद्वार पर डटकर संग्राम हुआ। चाचा की मार से शत्रुओं का साहस टूट गया। बादशाह के खूब सैनिक मारे गए। सिसोदिया वंश की कीर्ति को अमर बनाने के लिए शत्रुओं का संहार करते हुए चाचा ने अपने प्राणों की आहुति दी।"
इतना सुनते ही गोरा की पत्नी ने कहा “अब मेरे लिए देर करने का समय नहीं है। प्राणनाथ को अधिक समय तक मेरी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। यह देखकर वीरांगना गोरा की पत्नी ने (पहले से ही तैयार की गई ) जलती हुई चिता में कूदकर अपने प्राणों का अंत कर दिया।”
कैसे लोग थे वे? जिन्हें अपने प्रियतम के मरने पर भी आंखों में आंसू नहीं आते थे। उनकी कैसी देशभक्ति थी ? कैसी मर मिटने की उत्तुंग भावना थी उनकी ? यह सब सोचकर अनायास ही उनके सामने सर झुक जाता है। ऐसे अद्भुत शौर्य से संपन्न अपने देश के वीर वीरांगनाओं पर हमें गर्व करने का पूर्ण अधिकार है।
भी डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत समाचार पत्र
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