योगेंद्र योगी
आबादी की सुनामी के खतरों को अनदेखा कर रहे हैं राजनीतिक दल
देश के राजनीतिक दल वोट बैंक की राजनीति के नुकसान-फायदे के लिए आबादी की सुनामी के खतरों को अनदेखा कर रहे हैं। विश्व में अभी तक चीन जनसंख्या वृद्धि के मामले में सर्वोपरि था। चीन ने कठोर नीति से जनसंख्या को नियंत्रित करते हुए वृद्धि दर में लगाम लगा दी। चीन ने 1980 में वन चाइल्ड पॉलिसी को लॉन्च किया था। चीन में पिछले साल 2022 के अंत में 1.41 अरब लोग थे, जो 2021 के अंत की तुलना में 850,000 कम थे। इसके विपरीत भारत में जनसंख्या वृद्धि बेलगाम है। भारत इस साल चीन को पीछे छोड़ते हुए विश्व में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा। चीन की 1.426 अरब की तुलना में भारत की जनसंख्या 2022 में 1.412 अरब है।
अनुमान लगाया जा रहा है कि 2050 में भारत की जनसंख्या 1.668 अरब हो जाएगी, जो चीन की उस समय की वर्तमान जनसंख्या से 1.317 अरब ज्यादा होगा। आबादी बढ़ने की देश को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही जनसंख्या के कारण देश गंभीर रूप से बेकारी और गरीबी जैसी समस्याओं से लंबे अर्से से त्रस्त है। देश के प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ती आबादी का जबरदस्त दवाब पड़ रहा है। 130 करोड़ की आबादी के लिए गुणवत्ता युक्त सुविधाएं तो दूर बुनियादी सुविधाएं जुटाने में ही सरकारों के पसीने छूट रहे हैं। सीमित आर्थिक संसाधनों से केंद्र और राज्य सरकारें जन कल्याणकारी योजनाओं के लिए बजट में इंतजाम करने के लिए हर बार जूझती हैं।
विश्व की कुल जनसंख्या की 17.5 प्रतिशत जनसंख्या भारत में निवास करती है, किन्तु भारत के पास पृथ्वी के धरातल का मात्र 2.4 प्रतिशत भूभाग ही है। जनसंख्या वृद्धि की वज़ह से गरीबी, भूख और कुपोषण की समस्या को प्रभावी ढंग से दूर करने और बेहतर स्वास्थ्य एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में बाधा आ रही है। स्थिर जनसंख्या वृद्धि के लक्ष्य के मामले में बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य पिछड़े हुए हैं। देश में लैंगिक अनुपात में गिरावट और लड़कियों के प्रति भेदभाव काफी अधिक है। देश में करोड़ों लोगों के पास आज भी रहने का स्थायी ठिकाना नहीं है। दुनिया की सबसे अधिक मलिन बस्तियाँ भारत में ही हैं। दिन प्रतिदिन पैट्रोलियम पदार्थों, रसोई गैस, भोजन समाग्री या अन्य वस्तुओं के मूल्य बढ़ते जा रहे हैं। सभी का मूल कारण जनसंख्या का दबाव है।
भारत में जनसंख्या नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन योजना कारगर साबित नहीं हो सकी। विगत दिनों जनसंख्या नियंत्रण के लिए प्रभावी कानून लाए जाने की मांग वाली याचिका सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दी कि यह कोर्ट का काम नहीं है। ये नीतिगत मसला है। अगर सरकार को जरूरत लगेगी तो सरकार फैसला करेगी। केंद्र में रही सरकारों ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए सिर्फ चिंता करने के अलावा कभी गंभीर प्रयास नहीं किए। वोट बैंक की राजनीति इस मुद्दे पर भी हावी रही है। यही वजह है कि राजनीतिक दल इस मुद्दे पर कठोर उपाय करने से बचते रहे हैं।
जनसंख्या के बढ़ने से जैविक ईंधनों की खपत बढ़ गई है। अब स्थिति यहाँ तक आ गई है कि ना तो प्राकृतिक रूप से शुद्ध वायु उपलब्ध है और ना ही जल और भोजन इत्यादि। पर्यावरण को शुद्ध रखने के लिए भूमि पर कम से कम 33 प्रतिशत भूभाग पर वनों का विस्तार होना अतिआवश्यक है। भारत में “15वीं भारत वन स्थिति रिपोर्ट के अनुसार कुल वनावरण एवं वृक्षावरण 8,02,088 वर्ग किमी है। देश में कुल वनावरण 7,08,273 वर्ग किमी है जो कि कुल भौगोलिक क्षेत्र का मात्र 21.54 प्रतिशत है। इसी तरह से जल संसाधन (धरातलीय, भूमिगत), वायु संसाधन, मृदा संसाधन, खनिज संसाधन इत्यादि का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। धरातल के अंदर दबे खनिज पदार्थों को दोहन करके पृथ्वी को खोखला करने, प्राकृतिक नदियों पर विनाशकारी बांध का निर्माण करने, पर्वतों के चट्टानों को तोड़-तोड़ कर गगनचुम्बी इमारतों, उद्योगों, संचार के साधनों का निर्माण करने, वनों का विनाश करके मानव बस्तियाँ बसाई गयी हैं। कृषि योग्य भूमि का विकास किया गया है। जिससे धरातल पर असंतुलन उत्तपन्न हो गया है। इन सभी कारणों से प्राकृतिक आपदाएँ (भूकंप, बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि, चक्रवात, वैश्विक तापन, सुनामी, ज्वालामुखी इत्यादि) की बारम्बारता का प्रतिशत बढ़ गया है। उत्तराखंड के जोशीमठ में आई प्राकृतिक आपदा के पीछे भी ऐसे ही मानव जनित कारण रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र की द वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रोस्पेक्ट्स 2019 की रिपोर्ट के एक अनुमान के अनुसार भारत में युवाओं की बड़ी संख्या मौजूद होगी, लेकिन आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों के अभाव में इतनी बड़ी आबादी की आधारभूत आवश्यकताओं जैसे- भोजन, आश्रय, चिकित्सा और शिक्षा को पूरा करना भारत के लिये सबसे बड़ी चुनौती होगी। उच्च प्रजनन दर, बुजुर्गों की बढ़ती संख्या और बढ़ते प्रवासन को जनसंख्या वृद्धि के कुछ प्रमुख कारणों के रूप में बताया गया है।
यूएन की एक तंज़ीम वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम के मुताबिक एक तरफ़ जहां दुनिया की आबादी 8 अरब का आंकड़ा पार कर चुकी है, तो वहीं दूसरी तरफ़ रोज़ाना कऱीब 83 करोड़ लोग ख़ाली पेट सोने को मजबूर हैं, यही नहीं साल 2019 में जहां कऱीब 13.5 करोड़ लोग गंभीर अनाज संकट का सामना कर रहे थे। अर्थात भुखमरी जैसे हालात का सामना कर रहे थे। तीन साल के अंदर यह आंकड़ा बढ़ कर करीब साढ़े 34 करोड़ तक पहुंच गया है। रिपोर्ट के मुताब़िक दुनिया भर में जितने लोग इसका सामना कर रहे हैं, उसमें कऱीब दो तिहाई यानी 66 फ़ीसद लोग अफ्रीक़ा से हैं और कोरोना के बाद इसमें और इज़ाफ़ा हुआ है।
संयुक्त राष्ट्र के 2019 के वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुसार इस समय पूरी दुनिया में कुल 1.3 अरब गरीब हैं जिसमें से भारत में गरीब आबादी 64 करोड़ से घटकर 37 करोड़ रह गई है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की रिपोर्ट में यह कहा गया है कि भारत में बेरोजगारी दर 2017-18 में 45 साल के उच्च स्तर यानि 6.1 पर पहुंच गई है। मतलब रोजगार के लिए तैयार हरेक 100 व्यक्ति में से 6.1 व्यक्ति बेरोजगार है। देश में जनसंख्या वृद्धि विस्फोटक स्थिति में पहुंच चुकी है। सवाल यही है कि आखिर सरकारों की तंद्रा भंग कब होगी। बेहतर होगा कि राजनीतिक दल इस मुद्दे पर राजनीति करने की बजाए आपसी समन्वय से ऐसी राष्ट्रीय नीति बनाएं, जिससे आबादी के बढ़ते संकट को रोका जा सके, अन्यथा भारत को चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों से जूझने के अलावा और कई तरह की घरेलू मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा।
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