मनुष्य का जीवन व चरित्र उज्जवल होना चाहिये परन्तु आज ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है। जो जितना बड़ा होता है वह अधिक संदिग्ध चरित्र व जीवन वाला होता है। धर्म हो या राजनीति, व्यापार व अन्य कारोबार, शिक्षित व अशिक्षित सर्वत्र चरित्र में गड़बड़ होने का सन्देह बना रहता है। ऐसा होना नहीं चाहिये। इसके अनेक कारण हो सकते हैं जिसमें मुख्य दो प्रतीत होते हैं। वेदों पर आधारित सामाजिक जीवन का न होना और हमारी दण्ड व्यवस्था का कमजोर या लचर होना। वेद क्या हैं? यह मनुष्य को सत्य का ज्ञान कराकर संस्कार प्रदान करते हैं। वेदों के आधार पर ऋषि दयानन्द जी ने एक नियम दिया है कि ‘मनुष्य को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में सब स्वतन्त्र रहें।’ वेदों की सभी शिक्षायें ऐसी हैं कि इन्हें प्राप्त व धारण कर मनुष्य इन शिक्षाओं के अनुसार चलकर अपने जीवन व चरित्र को उज्जवल बनाता है। इसके लिए उदाहरण चाहिये तो एक नहीं अनेकों उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनमें सबसे उपर मर्यादा पुरुषोत्तम राम व योगेश्वर श्री कृष्ण जी का है। यह दोनों महापुरुष वैदिक शिक्षा व संस्कारों से दीक्षित थे और इनका चरित्र संसार के आज तक हुए मनुष्यों व महापुरुषों में आदर्श था। इसके बाद कुछ नया उदाहरण चाहिये तो हम स्वामी दयानन्द जी का दे सकते हैं। स्वामी जी अद्वितीय ब्रह्मचारी व ईश्वर के भक्त थे। उन्होंने जीवन में कभी कोई कुचेष्टा की हो, इसका वर्णन नहीं मिलता। स्वामी जी ने देश का जो उपकार किया है वह अन्य किसी व्यक्ति व महापुरुष ने नहीं किया। स्वामी दयानन्द महापुरुषों में शीर्ष स्थान पर हैं। महाभारत पर बन्द ऋषि परम्परा को उन्होंने पुनर्जीवित किया। उनके बाद सद्य: कोई ऋषि नहीं हुआ और न भविष्य में होने की सम्भावना है। वैदिक संस्कृति में आजीवन अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले वीर हनुमान और भीष्म पितामह का भी विश्व के इतिहास में शीर्ष स्थान है। इनमें से एक के जीवन व चरित्र को भी हम धारण कर लें तो हम मनुष्य नहीं महापुरुष बन सकते हैं। आजकल शिक्षा के दोषों के कारण भी समाज में चारित्रिक प्रदूषण व भ्रष्टाचार विद्यमान है। इसे दूर करने का एक ही उपाय है कि सर्वत्र वैदिक शिक्षा को प्रचलित किया जाये और उसका पालन न करने वालों को त्वरित गति से कठोर दण्ड दिया जाये।
वेद का इतना महत्व क्यों है? इसलिए कि यह किसी मनुष्य व महापुरुष द्वारा रचित ग्रन्थ व ज्ञान न होकर ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में परम पिता परमात्मा ने मनुष्यों के कल्याण के लिए उनके अन्त:करण में दिया था। महर्षि दयानन्द वेद मन्त्रों के द्रष्टा व जानकार थे। यही कारण था कि उन्होंने अन्य सभी मनुष्यकृत ग्रन्थों से कहीं अधिक परम प्रमाण वेदों को ही स्वीकार किया व उसका तर्क व युक्ति के द्वारा प्रचार किया। उनके अनुसार वेद स्वत: प्रमाण हैं और अन्य ग्रन्थ वेदानुकूल होने पर परत: प्रमाण की श्रेणी में आते हैं। वेद मनुष्य को ब्रह्मचर्ययुक्त जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देते हैं और इससे होने वाले शारीरिक व आध्यात्मिक लाभ भी बताते हैं। ऋषि दयानन्द जी के प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश और वेदभाष्य में इसका स्थान स्थान पर प्रकाश किया गया है। ब्रह्मचर्ययुक्त जीवन दीघार्यु होने के साथ स्वस्थ, बलवान, यशस्वी, बुद्धिमान, उन्नत वा प्रगतिशील होता है जबकि इसके विपरीत जीवन अल्पायु, रोगी व अपमानित जीवन होता है। आज समाज में इसका प्रत्यक्ष किया जा सकता है। वेदों में इतना ही नहीं है अपितु ईश्वर के सत्य स्वरूप का वर्णन व ज्ञान मिलता है। वेदों के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। इसी प्रकार से आत्मा का स्वरूप व गुण भी वेदों में बताये गये हैं। कुछ मुख्य गुण हैं कि यह चेतन, सूक्ष्म, ज्ञान व कर्म करने वाला, एकदेशी, अल्पज्ञ, ससीम, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अमर, अविनाशी, जन्म व मरण धर्मा आदि से युक्त है। वेद प्रकृति को जड़ व सूक्ष्म बताते हैं और कहते हैं कि यह स्थूल कार्य प्रकृति सूक्ष्म सत, रज व तम गुणों वाली प्रकृति का ही विकार है। वेदों में मनुष्यों के सभी कर्तव्यों का विधान और अकर्तव्यों का निषेध किया गया है। वेदों के ज्ञान में वह शक्ति व गुण है कि जिसे जानकर एवं धारण कर मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार कर जीवनमुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है जबकि यह ज्ञान संसार के अन्य धर्मग्रन्थों व मतों की पुस्तकों में प्राप्त नहीं होता। ऐसी अनेक विशेषतायें हैं जिनसे मनुष्य जीवन का कल्याण व उन्नति होती है और मनुष्य पतन से बच सकता है। ं
वेदों के इस महत्व के कारण ही वैदिक धर्म के अनुयायियों में श्री राम, श्री कृष्ण, श्री हनुमान, श्री भीष्म, युधिष्ठिर, अर्जुन, विदुर, चाणक्य, दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, आचार्य रामनाथ वेदालंकार जैसे महापुरुष हुए हैं। अन्य मतों के लोगों को हम देखते हैं तो इनके समान ज्ञानी व उच्च जीवन व चरित्र के महापुरुष हमें दृष्टिगोचर नहीं होते। देश का यह दुर्भाग्य रहा कि यहां के सत्तासीनों ने स्वामी दयानन्द के उज्जवल चरित्र को जनता के सामने नहीं आने दिया। इसका परिणाम ही आज का समाज है जहां भ्रष्टाचार, अनाचार, कदाचार व अनैतिक कार्यों का होना आम बात हो गई है और कानून होने पर भी लोग इससे डरते नहीं हैं।
वैदिक धर्म का एक सुविचारित एवं अकाट्य सिद्धान्त है ‘कर्मफल व्यवस्था।’ दूसरा ‘पुनर्जन्म’ का सिद्धान्त भी अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।
कर्मफल व्यवस्था का आधार हमारे शुभ व अशुभ अथवा पाप व पुण्य कर्म हैं। शुभ कर्म करेंगे तो सुख मिलेगा और अशुभ कर्म करेंगे तो ईश्वर की व्यवस्था से कर्ता को दु:ख मिलता है। इसी लिए हमें मनुष्य व किन्हीं को पशु व पक्षी आदि योनियों में जन्म मिला है। सभी प्राणियों में आत्मा एक समान है जो कर्मानुसार एक योनि से दूसरी योनि में आती जाती रहती है और इस कार्य को ईश्वर व उसकी व्यवस्था सम्पादित करती है। मनुष्य जीवन में जो दु:ख आते हैं उनमें से अधिकांश का कारण हमारे अतीत के अशुभ कर्म ही होते हैं। आज भी कदाचार व मिथ्याचार के अन्र्तत जो लोग जांच के दायरे में हैं व दण्ड भोग रहे हैं उसका कारण उनके अतीत के बुरे कर्म ही हैं। यही व्यवस्था परमात्मा की भी है।
अत: वेदों को जानकार व वैदिक शिक्षा में दीक्षित व्यक्ति पाप कर्मों से दूर रहता है और ईश्वरोपासना-सन्ध्या, यज्ञ-अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, बलिवैश्वदेवयज्ञ, अतिथियज्ञ, गोरक्षा व परोपकार आदि शुभ कर्मों के अनुरूप सुखों को पाता है। सभी मतों को अपना विलय व समावेश वैदिक धर्म में कर देना चाहिये। कम से कम वैदिक धर्म के कर्मफल सिद्धान्त, पुनर्जन्म व विधायक अच्छे कर्मो सन्ध्या वा ईश्वरोपासना व वायुशोधक यज्ञ आदि को तो अपना ही लेना चाहिये। ऐसा करके वह पाप से दूर होंगे और उनका जीवन आदर्श मनुष्य जीवन बन सकेगा और वह पाप व अनाचार तथा चरित्र प्रदूषण करने वाले कर्मों से बच सकेंगे। हमने बहुत संक्षेप में विचार प्रस्तुत किये हैं। वेद ज्ञान से अनन्त लाभ होते हैं। नमूने के तौर पर हमने कुछ की ही चर्चा की है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ3म् शम।