भारत की अंतश्चेतना में सहनशक्ति का अनन्त ऊर्जा स्रोत उपलब्ध है। सचमुच भारत जैसी सहनशक्ति विश्व के किसी अन्य देश में देखने को नहीं मिलती। यह भारत ही है जिसने महात्मा गांधी और नेताजी सुभाषचंद्र बोस को भी अपशब्द बोलने वाले और 1962 के युद्घ में चीन का साथ देने वाले कम्युनिस्टों को सहन किया है और न केवल सहन किया है, अपितु उन्हें सत्ता में भागीदारी देकर देश के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ खिलवाड़ करने का भी अवसर प्रदान किया है।
देश के कम्युनिस्टों ने प्रारम्भ से ही देश के राष्ट्रीय मूल्यों को धत्ता बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं जिन लोगों ने देश में राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता को मजबूत करने का कार्य किया, कम्युनिस्टों ने उन्हें अपना जन्मजात शत्रु माना। यही कारण रहा कि जब देश 1947 में एक युगान्तरकारी घटना का साक्षी बन रहा था तो उस समय भी कम्युनिस्टों ने देश की स्वतन्त्रता का विरोध और विभाजन का समर्थन किया था। उस समय देश की एकता और अखण्डता के लिए काम करने वाले वल्लभभाई पटेल को कम्युनिस्टों ने पसन्द नहीं किया था।
कम्युनिस्टों का यह संस्कारबीज आज तक कार्य कर रहा है कि देशभक्ति दिखाने वाले संगठनों या व्यक्तियों को आज भी सहन नहीं करते हैं। केरल में आरएसएस के कार्यकर्ताओं पर जिस प्रकार चुन-चुनकर हमले हो रहे हैं-वे इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। वास्तव में भारत की असीम असहिष्णुता को भी कम्युनिस्ट सहन नहीं कर पा रहे हैं, उन्हें इससे भी अधिक कुछ चाहिए। वह अपने ‘पापों का प्रायश्चित’ करने के बजाए पापों से ही देश को नष्ट करने पर तुले हुए लगते हैं। वे भारत को चीन के दृष्टिकोण से देखते हैं और चीन को भारत की अपेक्षा अपने निकट कहीं अधिक पाते हैं। इसके उपरान्त भी वे भारत में इस्लामिक आतंकवाद को अपने ही ढंग से देखते हैं। चीन जैसे इस्लामिक आतंकवाद से अपने देश में निपट रहा है-उसे सभी जानते हैं। चीन ने अपने देश में इस्लाम के मानने वालों को कुरान रखने तक की अनुमति नहीं दी है। चीन का मानना है कि कुरान आतंक का पाठ पढ़ाती है। इसलिए कुरान की सभी प्रतियों वहां सरकारी कार्यालयों में जमा करा ली गयी हैं। इसके अतिरिक्त इस्लामिक ढंग से कपड़े पहनने, दाढ़ी रखने, नमाज अदा करने, अजान देने पर भी वहां प्रतिबंध लगा दिया गया है। इस प्रकार मजहब को अफीम की संज्ञा देने वाले कम्युनिस्ट चीन ने ‘मजहबपरस्ती’ को परास्त करने की हर प्रकार की कठोरता को अपनाया है। इसके उपरान्त भी चीन ने बौद्घ धर्म के प्रति उदारता दिखायी है। जो उसके देश के बहुसंख्यकों का धर्म है।
इधर भारत में कम्युनिस्टों की दूसरी सोच है। यहां वे बहुसंख्यक हिंदू धर्म को ही मिटाने की किसी भी गतिविधि को अनुचित नहीं मानते हैं। इसके विरोध में वे इस्लामिक आतंकवाद को भी उचित मानते हैं। उनकी योजना लगती है कि पहले बहुसंख्यकों का विनाश हो, बाद में मुसलमानों से निपटा जाएगा-इसके लिए चाहे उन्हें किसी को भी थपकी मारनी पड़े-तो वह मारेंगे। यही कारण है कि हिंदू के मुकाबले हर स्थान पर कम्युनिस्ट मुसलमानों का पक्ष लेते दिखायी देंगे। पश्चिमी बंगाल में इन लोगों ने जितनी देर भी शासन किया उतनी देर तक वहां के मुस्लिम समाज को भारत विरोधी बनाते रहे और अब केरल में यही कर रहे हैं। इसके बावजूद इन्हें भारत में असहिष्णुता की बीमारी के बढऩे के खतरे सता रहे हैं। इन्हें हर तरह से सहन करो और देश टूटता है तो टूटने दो, यदि इस पंक्ति पर आप कार्य करेंगे तो देश में सहिष्णुता मानी जाएगी अन्यथा देश को ये लोग असहिष्णुता से ग्रसित होने के कारण बीमार घोषित कर देंगे। देश तोडऩे वालों से गठबंधन इस देश के लिए लठबंधन सिद्घ होता रहा है। देश को तोडऩे वाले वही लोग होते हैं जो इस देश की मूल संस्कृति और मूल धर्म को तोडऩे में सफल हो जाते हैं। आज देश में कम्युनिस्ट, ईसाई, मिशनरीज और मुस्लिम कठमुल्ले तीनों मिलकर इसकी मूल संस्कृति और इसके मूल धर्म को मिटाने में लगे हैं।
पूर्वोत्तर भारत और बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा, दक्षिण भारत के राज्यों में यह कार्य तेजी से हो रहा है। मुस्लिम कट्टरपंथी भी अब उत्तर भारत से अधिक दक्षिण में अपनी गतिविधि बढ़ा रहे हैं। इन तीनों के गठबंधन के परिणामों पर विचार करने की आवश्यकता है। आज ये मोदी सरकार को असफल करने के नाम पर हो रहा है-पर कल को ये 1947 को दोहराने की तैयारी भी हो सकती है। खतरे कहकर नहीं आते हैं। कभी-कभी ये इतने धीमे-धीमे आते हैं कि इनकी आहट तक भी सुनाई नहीं देती है, चौबीसों घण्टे सजग रहने की आवश्यकता है।
देश के कश्मीर के पत्थरबाजों पर सरकार नियंत्रण स्थापित करने में कुछ सीमा तक सफल रही है। नक्सलवाद की कमर तोडऩे में भी सरकार ने प्रशंसनीय कार्य किया है। पर मौन ‘पत्थरबाजों’ और ‘नक्सलवादियों’ पर भी नकेल कसने की आवश्यकता है। अच्छा हो कि मोदी सरकार देश में धर्मांतरण को पूर्णत: गैरकानूनी घोषित करे, पर ‘घर वापसी’ का रास्ता खुला छोड़ा जाए।
व्यापक सावधानी बरतने के उपरान्त भी देश के कई क्षेत्र आज भी ऐसे हैं जहां हिंदू कुछ भी बोल नहीं पा रहा है। इसमें पश्चिमी बंगाल की स्थिति तो अत्यधिक दयनीय है, विस्फोटक है। यह इसीलिए हो सका है कि इस प्रांत में हमने समय रहते धर्मांतरण पर प्रतिबंध नहीं लगाया और यहां कम्युनिस्टों को खुलकर खेलने दिया। कहीं ऐसा ना हो कि सावरकर जैसी विभूतियों के कारण जिस पश्चिमी बंगाल को हिंदू बहुल होने के कारण हम 1947 में बचाने में सफल रहे थे उसे ही 21वीं शताब्दी में मुस्लिम बहुल हो जाने पर पुन: खो बैठे। तब क्या यह माना जाए कि 1947 में पश्चिमी बंगाल इतनी देर तक ही अपने पास हमने रखने का वचन पू. पाकिस्तान को दिया था कि जब तक यह मुस्लिम बहुल न हो जाए तब तक हम अपने पास रखते हैं और जब यह काम पूर्ण हो जाएगा तो हम स्वयं ही तुम्हें दे देंगे? माना कि ऐसा कोई लिखित करार या समझौता नहीं हुआ होगा पर कार्यशैली और कुछ लोगों की नीतियां तो यही बता रही हैं कि सब कुछ ठीकठाक नहीं है-
राही के दिल की हलचल को कदम बयां करते हैं।
देश की दिशा को हुकूमत के सलीके बयां करते हैं।।
हिन्दोस्तां में सहिष्णुता दिखाने वाले अय पैरोकारो!
तुम्हारी करतूतों को तुम्हारे तरीके बयां करते हैं।।
पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी संजय भंसाली को खुला आमंत्रण दे रही हैं-कि तुम ‘पद्मावती’ को बंगाल में चलाओ। उनके इस आमंत्रण का अर्थ क्या निकाला जाए? पाठक स्वयं अनुमान लगायें।
मुख्य संपादक, उगता भारत