ज्ञान कर्म पूर्व-प्रज्ञा ही, जाते जीव के साथ
बिखरे मोती-भाग 208
गतांक से आगे….
शिवपुराण में श्रद्घा के संदर्भ में कहा गया है-”मां की तरह हितकारिणी यदि कोई शक्ति मनुष्य के मानस में हो सकती है, तो वह शक्ति-श्रद्घा है।”
श्रद्घा के संदर्भ में ‘शतपथ-ब्राह्मण’ में कहा गया है-”आध्यात्मिक अथवा धार्मिक राह पर चलने के लिए सबसे अधिक जिस ऊर्जा अथवा शक्ति की आवश्यकता पड़ती है-वह श्रद्घा और प्रेम की प्रगाढ़ता है।”
श्रद्घा के संदर्भ में हिंदी साहित्य की इस सूक्ति का उद्घरण देना भी प्रासंगिक होगा-”केसर कश्मीर की मिट्टी में ही पैदा होता है, मालवा की मिट्टी में नहीं।” भाव यह है कि ज्ञान अथवा भक्ति का अंकुरण वहीं होता है, जहां श्रद्घा की मनोभूमि होती है, अश्रद्घा की ऊसर अथवा पथरीली भूमि पर नहीं। ऐसी भूमि में तो श्रम और ज्ञान दोनों ही अकारथ जाते हैं।
भक्ति अथवा प्रार्थना के लिए हृदय में अगाध श्रद्घा की मनोभूमि का होना नितान्त आवश्यक है। इसलिए हमेशा याद रखो, आपकी पूजा की थाली, तिलक, छाप, माला और नेवैद्य, हवन सामग्री घृत की आहुतियां प्रसाद एवं दान की गयी वस्तुएं अथवा रूपया पैसा, सुरीले भजन, कीर्तन तथा विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट मिष्ठान व सूखे मेवे, छप्पन प्रकार के भोग सभी यहीं रखे रह जाते हैं। ये परमपिता परमात्मा को न तो रिझा पाते हैं और न ही परमात्मा तक पहुंच पाते हैं। यदि प्रभु तक कुछ पहुंचता है तो आपके सरल हृदय का वह पवित्र भाव पहुंचता है-जिसमें परमपिता परमात्मा के प्रति असीम प्रेम, अगाध श्रद्घा और अटूट विश्वास होता है। श्रद्घा में अमोघ शक्ति है। इसीलिए कहा गया है-मोह-माया की रस्सी आत्मा को संसार से बांध देती है (आवागमन के क्रम में बंधती है) जबकि श्रद्घा की रस्सी से आत्मा-परमात्मा को बांध लेती है अर्थात वश में कर लेती है, अपने अंतिम गन्तव्य (मोक्ष) को प्राप्त कर लेती है। पूजा (भक्ति) की आत्मा श्रद्घा होती है। इसलिए हमें प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान को अगाध श्रद्घा से निष्पादित करना चाहिए।
आत्मा का निष्क्रमण और उसकी गतियां :-
ज्ञान कर्म पूर्व-प्रज्ञा ही,
जाते जीव के साथ।
शोध सके तो शोध ले,
ये आयु घटती जात। 1140।।
व्याख्या :-उपरोक्त दोहे की व्याख्या करने से पहले यह समझना प्रासंगिक होगा कि आत्मा शरीर से निकलता कैसे है? उसे कौन ले जाता है? वह कहां जाता है? उसके साथ क्या जाता है? ये ऐसे यक्ष प्रश्न हैं -जो प्राय: सभी सामान्य व्यक्ति जानने के इच्छुक रहते हैं। इस संदर्भ में पाठक यदि विस्तृत जानकारी लेना चाहें तो प्रश्नोपनिषद, तैत्तिरीय-उपनिषद, ऐतरेय उपनिषद, छान्दोग्य-उपनिषद तथा बृहदारण्यक-उपनिषद (2-1-19, 4-2-3, 4-3-20) को पढ़ें।
मनुष्य की जब मृत्यु सन्निकट होती है, तो उसके चेहरे पर मुर्दाई छाने लगती है। ऐसा इसलिए होता है कि आत्मा अपनी शक्तियों को एकीभूत करने लगता है, अर्थात समेटने लगता है। नाड़ी की धडक़न कम होती चली जाती है, हाथ पैर ठंडे होने लगते हैं, आवाज खामोश हो जाती है, आंखें अमुक व्यक्ति को पहचान नहीं पाती हैं, नासिका सूंघना बंद कर देती है और कान सुनना बंद कर देते हैं, क्योंकि आत्मा सभी ज्ञानेन्द्रियों और कमेन्द्रियों से अपनी शक्ति खींच रहा होता है-जैसे सूर्य जब छिपने को होता है तो अपनी किरणों को समेटना शुरू कर देता है, ठीक इसी प्रकार आत्मा भी अपनी ऊर्जा को समेटना शुरू कर देता है। जीव मरते समय सविज्ञान हो जाता है अर्थात जीवन का सारा खेल उसके सामने आ जाता है। क्रमश: