मेवाड़ के शासक और नेपाल
मेवाड़ के शासक खुमाण सिंह तृतीय ने 878 ई0 से 903 ई0 तक शासन किया। इसके पश्चात कई पीढ़ियों तक मेवाड़ के शासक सामान्य रूप से शासन कार्य चलाते रहे अर्थात उनके द्वारा कोई ऐसा प्रतापी कार्य संपन्न नहीं हुआ जो इतिहास को नई दिशा देने वाला हो या समकालीन परिस्थितियों में खड़ी हुई चुनौतियां के सामने चुनौती बनकर खड़ा होने की क्षमता रखने वाला हो। कुल मिलाकर यह मेवाड़ का शांति काल था। जिसमें एक प्रकार से हम यथास्थितिवाद को देखते हैं। ना कोई बड़ा ऐतिहासिक कार्य हुआ और ना ही कोई ऐसी स्थिति आई जिससे मेवाड़ के राजवंश को कोई गंभीर संकट उत्पन्न हो ?
इस स्थिति में भी मेवाड़ के शासक शांति पूर्वक अपना शासन चलाते रहे।
हमें इतिहास में मुगलों के उत्तरवर्ती कमजोर शासकों का भी उल्लेख मिलता है। जिसमें वे एक दूसरे के रक्त के प्यासे हो गए थे। सत्ता स्वार्थों के कारण राजदरबार में अनेक प्रकार के घटिया प्रयोग होते देखे गए। मुगल कालीन भारत में सारी व्यवस्था विषय भोग में डूबी हुई दिखाई देती है। जबकि हमारे मेवाड़ के राजवंश में इस काल में भी मुगलों जैसी कोई स्थिति दिखाई नहीं देती । यही कारण रहा कि कुछ कालोपरांत यह वंश फिर से हीरे उगलने लगा। जिनका उल्लेख हम आगे यथास्थान करेंगे।
903 ई0 से 951 ई0 तक मेवाड़ का शासक भर्तभट्ट द्वितीय रहा। इसके पश्चात के शासकों की सूची इस प्रकार है :- अल्लट 951 से 971 ई0, नरवाहन 971 से 973 ई0, शालीवाहन 973 से 977 ई0, शक्ति कुमार 977 से 993 ई0 ,अंबा प्रसाद 993 से 1007 ई0, शुचि वर्मा 1007 से 1021 ई0 ,नर वर्मा 1021 से 1035 ई0, कीर्ति वर्मा 1035 से 1051 ई0 , योगराज 1051 से 1068 ई0, वैरठ 1068 से 1088 ई0, हंस पाल – 1088 – 1103 ई0, वैरी सिंह – 1103 – 1107 ई0, विजय सिंह – 1107 – 1127 ई०, अरि सिंह – 1127 – 1138 ई०, चौड सिंह – 1138 – 1148 ई०, विक्रम सिंह – 1148 – 1158 ई0, रण सिंह ( कर्ण सिंह ) – 1158 – 1168 ई0, क्षेम सिंह – 1168 – 1172 ई0 , सामंत सिंह ( इन्हीं का नाम समर सिंह भी था, जो कि पृथ्वीराज चौहान के बहनोई थे और पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गौरी के विरुद्ध युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। ) – 1172 – 1179 ई0।
बताया जाता है कि क्षेम सिंह के दो पुत्र सामंतसिंह और कुमार सिंह थे । ज्येष्ठ पुत्र सामंत मेवाड की गद्दी पर सात वर्ष रहे क्योंकि जालौर के कीतू चौहान ने मेवाड़ पर अधिकार कर लिया। मेवाड़ के इतिहास की अब तक की यह बहुत बड़ी घटना थी, जब चित्तौड़ को पहली बार किसी दूसरे शासक ने अपने अधिकार में कर लिया था। जिस चित्तौड़ की ओर कोई दूसरा शासक आंख उठाकर देखने तक का साहस नहीं कर पाता था वह अब एक दूसरे शासक के अधीन हो गई।
कीर्तिपाल चौहान
विद्वानों की मान्यता है कि जालौर शब्द दो शब्दों ‘जाल’ व ‘लौर’ से मिलकर बना है। जाल एक ‘पेड़’ होता है जो कि इस क्षेत्र में बहुत अधिक पाया जाता है और लौर का अर्थ ‘सीमा’ होता है अर्थात् जाल के पेड़ों के क्षेत्र की सीमा वाला क्षेत्र जालौर कहलाता है। 10वीं सदी के अंत में धार के परमार शासक मुञ्ज ने जालौर क्षेत्र पर अधिकार किया। कालांतर में यहाँ पर परमार शासक कुंतपाल और वीर नारायण का शासन रहा। इनके एक दहिया सरदार ने इनके साथ विश्वासघात करके कीर्तिपाल चौहान के द्वारा इनके शासन को समाप्त करवा दिया।
कीर्तिपाल चौहान नाडौल के चौहान शासक अल्हण का सबसे छोटा पुत्र था। कीर्तिपाल चौहान को उसके पिता ने 12 गाँव जागीर के रूप में दिए। कीर्तिपाल एक महत्त्वाकांक्षी शासक था। इसीलिए कीर्तिपाल परमार वंशीय गुर्जर शासकों को समाप्त कर जालौर का शासक बना। कीर्तिपाल जालौर शाखा के ‘चौहान वंश का संस्थापक’ कहलाता है। कीर्तिपाल के बारे में महणौत नैणसी ने ‘महणौत नैणसी री ख्यात’ में ‘कितू एक महान राजा’ कहकर पुकारा है। कीर्तिपाल ने 1174 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण कर वहाँ के शासक सामंत सिंह को पराजित कर चित्तौड़ पर अपना अधिकार स्थापित किया। प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम ‘जाबालिपुर’ तथा किलों का नाम ‘सुवर्णगिरि’ मिलता है। जिसका अपभ्रंश शब्द ‘सोनगढ़’ कहलाता है। इसी पर्वत के नाम से चौहान की एक शाखा ‘सोनगरा’ कहलाई। ‘
फिर से लिया गया चित्तौड़गढ़
उस समय के मेवाड़ के शासक सामंत सिंह अहाड की पहाडियों पर चले गये थे। इन्होने बडौदे पर आक्रमण कर वहां का राज्य हस्तगत कर लिया। मेवाड़ के इस पराजित योद्धा के लिए यह बहुत बड़ी सफलता थी। इसके उपरांत भी चित्तौड़ का उनके हाथ से निकल जाना उनके लिए बहुत बड़े दुख का कारण था। इस घटना से न केवल चित्तौड़ की गरिमा भंग हुई अपितु इस वंश की परंपरा पर भी एक दाग लग गया।
वास्तव में बडौदे को जीतने की घटना राणा सामंत सिंह के लिए डूबते को तिनके का सहारा वाली बात थी। इसी समय उनका भाई कुमार सिंह चित्तौड़ को हाथ से निकल जाने की घटना को लेकर अत्यंत आवेश में था। वह इस प्रकार की योजनाएं बना रहा था जिससे चित्तौड़ को फिर से प्राप्त किया जा सके। राजा सामंत सिंह के लिए या एक सुखद समाचार ही था कि इनके भाई कुमार सिंह ने पुनः मेवाड पर अधिकार कर लिया।
कुमार सिंह की यह सफलता भी निश्चित रूप से उल्लेखनीय है। उसने बहुत शीघ्रता से मेवाड़ के मस्तक पर लगे कलंक को धो दिया। इससे पता चलता है कि वह एक पराक्रमी शासक था।
कुमार सिंह ( 1179 – 1191 ई0) ने इसके पश्चात लगभग 12 वर्ष तक शासन किया। कुमार सिंह के शासन के पश्चात शासकों का क्रम इस प्रकार रहा: – मंथन सिंह – 1191 – 1211 ई0, पद्म सिंह – 1211 – 1213 ई0, जैत्र सिंह – 1213 – 1261 ई0, तेज सिंह -1261 – 1273 ई0। इन सभी शासकों के शासनकाल में भी कोई विशेष कार्य नहीं हुआ। यही कारण है कि इनके शासन के बारे में बहुत अधिक उल्लेख में नहीं मिलता।
राणा परिवार और नेपाल का राजवंश
इसके पश्चात मेवाड़ का शासक समर सिंह बना। इस राजा ने 1273 से 1301 ईसवी तक अर्थात 28 वर्ष तक शासन किया। राणा समर सिंह का एक पुत्र रतन सिंह अपने पिता के पश्चात उसका उत्तराधिकारी बना। जबकि राणा समर सिंह का एक दूसरा पुत्र कुंभकरण भी था जो किन्ही कारणों से उस समय नेपाल चला गया था। इस कुंभकरण नामक राजकुमार ने नेपाल में जाकर एक नए राजवंश की स्थापना की। जो अब से कुछ समय पहले तक वहां पर राजशाही के रूप में काम करता रहा है। इस प्रकार नेपाल के राजवंश और मेवाड़ के राजवंश का निकट का संबंध है। दोनों एक ही कुल परंपरा से संबंध रखते हैं।
नेपाल जहां हमारा धर्म का भाई है, वहीं हमारे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का एक अभिन्न भाग भी है। पिछले सैकड़ों वर्ष से वहां पर जो राजशाही काम करती रही है, वह भी भारत से गई हुई राजशाही ही रही है। यदि भारत स्वाधीनता के उपरान्त नेपाल को उसके और अपने सांझा अतीत के साथ जोड़ता और बड़े भाई का धर्म निभाते हुए उसे अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का एक अंग बनाता तो निश्चय ही नेपाल आज भारत के लिए सिरदर्द नहीं बना होता।
यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि अपने आप को ‘एक्सीडेंटल हिंदू’ कहने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू देश के ‘हिंदू गौरव’ के प्रति कोई अधिक रुचि नहीं रखते थे । उन्हें भारतवर्ष का कोई आर्य – हिंदू – वैदिक अतीत दिखाई ही नहीं देता था। यही कारण था कि उनके सामने जब नेपाल के तत्कालीन महाराजा ने भारत के साथ विलय का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया था।
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू यह भूल गए थे कि इतिहास और इतिहास की परंपराएं हमें बड़ी गहराई से जोड़ती हैं। जब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात चलती है तो यह तो और भी अधिक गहरे संबंध बनाने में सहायक होती है। जिन्हें आत्मीय संबंध कहा जा सकता है। इस प्रकार के आत्मीय संबंधों से ही राष्ट्र का निर्माण होता है। यह अदृश्य रूप में अटूट श्रृंखला के ऐसे सूत्र होते हैं, जो दिखाई नहीं देते , पर एक दूसरे को बड़ी मजबूती से जोड़ने का काम करते हैं । नेपाल और भारत के सांस्कृतिक संबंधों को इसी संदर्भ में देखने की आवश्यकता है।
भारत और नेपाल के इन संबंधों के मर्म को समझने के लिए यह भी आवश्यक है कि जब मेवाड़ का एक राजकुमार यहां से वहां गया था तो उसने मेवाड़ के अधीन नेपाल में एक नए राज्य की स्थापना नहीं की थी और ना ही एक स्वतंत्र देश बनाने की दिशा में नेपाल को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया था। इसके विपरीत उसने नेपाल में जाकर व्यवस्था बनाने के लिए राजशाही स्थापित की और भारतीय राष्ट्रवाद का एक अंग बनाकर वहां पर सहज रूप में शासन करने लगा। उसकी पीढ़ियों ने भी अपने पितृ पूर्वज के इसी संस्कार को लेकर नेपाल में शासन किया। कुल मिलाकर कहने का अभिप्राय यह है कि नेपाल स्वाभाविक रूप से भारत का एक अंग बने रहकर काम करता रहा।
नेपाल को भारतीय राष्ट्र और राष्ट्रवाद के साथ जोड़े रखने में मेवाड़ की वंश परंपरा ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मेवाड़ के राणा नेपाल को अपना घर मानते रहे और नेपाल के राजवंश के शासक पूरे भारतवर्ष को अपना ही घर मानते रहे। इतना ही नहीं उन्होंने वैवाहिक संबंध भी भारत के ही विभिन्न राजघरानों से स्थापित किए। उनकी भारत के प्रति इस प्रकार की लगाव की भावना से पता चलता है कि वे भारत को अपना मानते रहे।
नेपाल का भारत के प्रति इस प्रकार का समर्पण किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से सोनिया गांधी को रुचिकर नहीं लगा। सोनिया गांधी के संकेत पर ही 2008 में नेपाल से राजशाही को समाप्त करवाया गया। यह बात हमको नेपाल स्थित पशुपतिनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी अर्जुन प्रसाद बस्तोला से उनके दिल्ली प्रवास के समय पता चली थी। उन्होंने हमें बताया था कि 2008 से पहले सोनिया गांधी पशुपतिनाथ मंदिर में देव दर्शन करने गई थीं , परंतु उनके कागजात पर उनका मजहब (धर्म) ईसाई लिखा हुआ था। अतः उन्हें पशुपतिनाथ मंदिर में देव दर्शन नहीं करने दिए गए थे। इसी बात से चिढ़कर उन्होंने नेपाल से राजशाही को समाप्त करवाया। राजशाही के समाप्त होते ही नेपाल का भारत से आत्मिक संबंध समाप्त हो गया। जिस रक्त संबंध का सम्मान करते हुए नेपाल का राजवंश भारत को अपना मानता था, वह बात अब समाप्त हो गई थी। इस घटना का उल्लेख हमने यहां पर इसलिए किया है कि रक्त संबंध बहुत देर तक और दूर तक शर्म और सम्मान के भाव को बनाए रखता है। इस प्रकार नेपाल से राजशाही को समाप्त करवा कर सोनिया गांधी ने अच्छा नहीं किया था।
महाभारत काल में शकुनि नाम के एक विदेशी ने देश में आग लगा दी थी और महाभारत का भयंकर युद्ध करवा दिया था। उसकी ऐसी कलुषित भावनाओं को देखकर ही हमारे देश में महामती चाणक्य जैसे लोगों ने यह व्यवस्था की कि विदेशी को कभी भी देश की शासन व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करने देना चाहिए। विदेशी बहू के पुत्र को भी देश का राजा नहीं बनने देना चाहिए। जब तक भारत अपनी इस परंपरा पर काम करता रहा तब तक कोई समस्या नहीं आई। पर स्वाधीनता के पश्चात जब ‘नया भारत’ बसाये जाने की धुन ‘एक्सीडेंटल हिंदू’ पर सवार हुई तो उसने भारत को भारत के ही अनुभवों से काटना आरंभ कर दिया। उस ‘एक्सीडेंटल हिंदू’ के नए भारत में एक ‘विदेशी बहू’ ने ऐसा बहुत कुछ कर दिया जो नहीं होना चाहिए था, दुर्भाग्य से अब उसके बेटे को देश का प्रधानमंत्री बनाने की वकालत भी कई लोग करते देखे जाते हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत