अथर्ववेद (7/109/6) में राज्य के अधिकारियों और कर्मचारियों के कत्र्तव्य बताये गये हैं। कहा गया है कि ये लोग प्रजा की स्थिति का अध्ययन करके राजा को उससे अवगत कराएंगे तदुपरान्त राजा जो नीति निर्धारित करे उसको लागू कराने हेतु ये लोग योजना बनायें, राजा जो कार्य दे-उसे नीचे तक अपने सहयोगियों में बांट दें। सहयोगियों को देखते रहें कि वे दिये गये कार्य को पूर्ण समन्वय स्थापित करके कर रहे हैं, या नहीं? जो धन इस कार्य को पूर्ण करने के लिए दिया गया है उसका विनियोजन करना (कहीं ऐसा तो नहीं है कि ऊपर से तो एक रूपया चले और नीचे 15 पैसे ही पहुंचें) राजा की योजना से जो फल प्राप्त हुए-उसकी सूचना राजा को देना। इस सारे कार्य के लिए राजा के अधिकारी और कर्मचारीगण अर्थात भ्रात्य वर्ग के लोग राजा से वेतन प्राप्त करते हैं। उन्हें प्रजा के लिए दिये गये धन में से ना तो चोरी (कमीशनखोरी) करनी है और ना ही प्रजा का काम करने की एवज में प्रजाजनों से किसी प्रकार की घूस लेनी है।
यजुर्वेद प्र. 30/5 में राज्य के अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति के विषय में स्पष्ट किया गया है। वहां पर राज्य कर्मचारियों की नियुक्ति का आधार योग्यता को माना गया है। कहा गया है कि अध्यात्म तथा शैक्षणिक प्रवाह के मुख्य संचालक शूर, इषव्य, अतिव्याधी और महारथी-फौज में तथा योग्य लोग शासनकत्र्ता के रूप में, यातायात और वितरण कार्यों में वैश्य वृत्तिवाले, परिश्रमशील लोग उत्पादनादि में लगाये जाएं। तस्कर व्यक्ति अर्थात अंधेरे में से गुप्त सूचनाएं प्राप्त करने वाले लोगों को पहचानकर उन्हें ऐसे ही कार्यों के लिए नियुक्त किया जाए। अपराध नियंत्रण के लिए पुलिस विभाग, यातायात नियंत्रक, व्यभिचार नियंत्रक, ऐसे प्रचारक जो क्रूर कार्यों के विरूद्घ जनमत बना सकें, ऐसे लोगों को योग्यता के आधार पर नियुक्ति दी जाए। मनुस्मृति, महाभारत, शुक्रनीति और रामायण जैसे ग्रंथों में राजा के अधिकारियों और कर्मचारियों के नैतिक चरित्र के विषय में भी हमें उल्लेख मिलता है कि वे उच्च चरित्र के स्वामी हों।
भारत का शासन बहुत देर तक विदेशी क्रूर आततायी आक्रान्ताओं और उनके वंशजों या उत्तराधिकारियों के हाथों रहा। जिस कारण भारत का प्राचीन राज्यतन्त्र लगभग नष्टभ्रष्ट हो गया। उस स्थिति से उभारकर लोक के प्रति उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए वीर सावरकर जी ने ‘राजनीति का हिन्दूकरण’ करने की बात कही थी। राजनीति का हिन्दूकरण करने का अभिप्राय राजनीति में लगे लोगों को और अधिकारीगण को ऐसा पाठ पढ़ाना था जो उन्हें हर स्थिति में जनता के प्रति उत्तरदायी बनाये। वे लोग अपने कत्र्तव्य कर्म को जानते हों और घूसखोरी या कमीशन खोरी को अपराध मानते हों। सावरकरजी ने देखा था कि लंबे काल तक घूसखोरी और कमीशनखोरी जैसी कई ‘खोरियां’ शासन-प्रशासन में पैठ जमा चुकी थी। उनकी दृष्टि में ये सारी ‘खोरियां’ विदेशी शासन की कमजोरियां थीं और उसका कुसंस्कार थीं। जिन्हें अपनाना देश के लिए घातक होना था।
देश की आजादी के पश्चात शासन सत्ता जिन लोगों के हाथ में आयी-उन्होंने सावरकरजी के परामर्श को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। उनका कहना था कि यह परामर्श या प्रस्ताव तो साम्प्रदायिक है, क्योंकि इसमें ‘हिन्दू’ शब्द लगा है। सावरकर जी से गलती ये हुई कि उन्होंने ‘राजनीति का इस्लामीकरण’ करने की बात नहीं कही, अन्यथा उसे मान लिया जाता।
अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो सावरकरजी के विचारों के सर्वाधिक निकट हैं। उनसे अपेक्षा है कि वे राजनीति का हिन्दूकरण करें। उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के साथ बहुत ही सुंदर समन्वय बनाया और उन्हें ‘पिता तुल्य’ सम्मान देकर सिद्घ किया कि उनमें भारतीय हिंदू वैदिक राजनीति के गहरे संस्कार हैं। बड़े पदों पर विराजमान दो शीर्ष पुरूषों में सुंदर सामंजस्य होना ही चाहिए। इसके पश्चात अब उन्होंने फिर एक बड़ी गम्भीर बात कही है कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के बीच समन्वय होना चाहिए। इनमें तकरार होने से देशहित नहीं सधता। जबकि हम देशहित को साधने के लिए शीर्ष पदों पर भेजे जाते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी देश के अधिकारी वर्ग को खुला छोडऩे के समर्थक रहे हैं। वह इस बात को अपने मंत्रियों और पार्टी के पदाधिकारियों, सांसदों व विधायकों को भी कहते हैं कि अधिकारियों को खुला छोड़ो, उन्हें काम करने दो। प्रथम दृष्टया तो प्रधानमंत्री की बात उचित लगती है। उनकी नीयत पर भी संदेह नहीं किया जा सकता। पर व्यवहार में जनता को उनकी अधिकारियों के प्रति अपनायी गयी इस नीति के कुपरिणाम भुगतने पड़ रहे हैं।
हमारे प्रधानमंत्री को पता करना चाहिए कि क्या उनके सभी अधिकारी भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन-अधिशासन देने के प्रति कृतसंकल्प हैं? क्या वे सरकार की नीतियों को सही प्रकार से क्रियान्वित कर रहे हैं? क्या वे नीचे तक के कर्मचारियों से समन्वय बैठाते हैं? क्या वे जनहित में शासन की नीतियों को पूरा करके उसकी विधिवत सूचना सरकार को देते हैं? इत्यादि। इन सब प्रश्नों के उत्तर नहीं में हैं। कारण ये है कि ये सारे अधिकारी उस शासन व्यवस्था की फलश्रुति हैं-जो हमें विदेशियों से मिली है। इनका जनकल्याण या भारत कल्याण के प्रति समर्पण है ही नहीं। इनमें से अधिकांश कामचोर, बातून, व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी, अनाचारी, दारू, सिगरेट पीने वाले, दुराचारी, घमण्डी अधिकारी प्रशासन में बैठे हैं। जनता के किसी व्यक्ति का साहस नहीं कि ‘साहब’ की चिक उठाकर इनके कार्यालय में घुस जाए। शाम होते ही इनमें से अधिकांश कहां जाते हैं, और क्या करते हैं?- कुछ पता नहीं। इनके मोबाइल पर यदि आम आदमी फोन करे तो उसका फोन कभी नहीं उठ सकता। ऐसी सामंती सोच के अधिकारियों को प्रधानमंत्री खुला छोडऩे की बात कह रहे हैं। इसका क्या अर्थ लगाया जाए?
अच्छा हो कि पहले इन अधिकारियों का ‘हिन्दूकरण’ किया जाए, इन्हें मानवीय बनाया जाए। इन्हें जनता के प्रति उत्तरदायी शासन की स्थापना करने के गुर सिखाये जाएं। इन्हें सोते से जगाया जाए कि देश अब आजाद है-अब इसे लूटने का समय नहीं है, अब तो इसके संवारने का समय है। जब इनकी एक पीढ़ी इस सांचे में ढलने के पश्चात बीत जाए और ये देशहित में काम करने के स्वाभाविक अभ्यासी हो जाएं-तब इन्हें खुला छोड़ा जाए। अब तो ये देश के लोगों की बड़े आराम से चमड़ी उधेड़ रहे हैं। क्योंकि ‘चमड़ी उधेडऩा’ इन्हें विदेशी शासन सत्ता से संस्कार के रूप में मिला है। ये ऐसी नीतियां बनाते हैं जो अधिक खर्चीली हों और इन्हें अधिक से अधिक ‘कमीशन’ दिलाती हों। अत: अभी तो इनसे सावधान रहने की आवश्यकता है। लोगों को मोदीजी की नीयत में संदेह नहीं है, पर अधिकारियों की लूट से वह आहत है। सर्वत्र भ्रष्टाचार यथावत है। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार भी अधिकारियों को खुला छोडऩे की बात कह रही है। जिससे अधिकारी वर्ग निरंकुश हो रहा है। कार्यालयों में उनकी उपस्थिति कम हो रही है, आम आदमी से मिलना दुर्लभ हो रहा है। ‘साहबों’ का दरवाजा ऑफिस आते ही लग जाता है। आम आदमी को एक अदना सा कर्मचारी साहब के गेट से ही भगा देता है या भाग जाने के लिए विवश कर देता है। ‘मन की बात’ में पीएम को लोगों के ‘मन की बात’ पर भी विचार व्यक्त करने चाहिएं। लोग उनके शासन को चाहते हैं, पर प्रशासन को नहीं? अंतत: बात क्या है? दर्द पर चोट होनी चाहिए।
मुख्य संपादक, उगता भारत