देशभक्त राजाओं की सूची
हमारा मानना है कि इसके उपरांत भी हमें यह देखना चाहिए कि उस समय एक विदेशी आक्रमणकारी ने भारत पर भारी हमला किया, जिसका सामना मेवाड़ के इस महानायक और उसके साथी राजाओं ने मिलकर किया। इतना ही नहीं, अपने देश के सम्मान को सुरक्षित करने में भी ये लोग सफल हुए। कर्नल टॉड ने इस राणा खुमाण का शासन 812 ई0 से 836 ई0 तक माना है। कर्नल टॉड की बात को मानें तो यह राणा खुम्माण द्वितीय है। उस आक्रमणकारी के विरुद्ध जिन राजाओं ने राणा का साथ दिया था, उनमें से कुछ के नाम कर्नल टॉड ने उल्लिखित किए हैं:-
‘गजनी के गुहिलौत, असीर के टॉक, नादोल के चौहान, रहिरगढ़ के चालुक्य, सेतबंदर के जीरकेड़ा, मंदोर के खैरावी, मगरौल के मकवाना जेतगढ़ के जोडिय़ा, तारागढ़ के रीवर, नीरवड़ के कछवाहे, संजोर के कालुम, जूनागढ़ के यादव, अजमेर के गौड़, लोहादुरगढ़ के चंदाना, कसींदी के डोर, दिल्ली के तोमर, पाटन के चावड़ा, जालौर के सोनगरे, सिरोही के देवड़ा, गागरोन के खींची, पाटरी के झाला, जोयनगढ़ के दुसाना, लाहौर के बूसा, कन्नौज के राठोड़ छोटियाला के बल्ला, पीरनगढ़ के गोहिल, जैसलमेर के भाटी, रोनिजा के संकल, खेरलीगढ़ के सीहुर, मनलगढ़ के निकुम्प, राजौड़ के बड़ गूजर, फुरनगढ़ के चंदेल, सिकर के सिकरवार, ओमरगढ़ के जेनवा, पल्ली के पीरगोटा, खुनतरगढ़ के जारीजा, जरिगांह के खेर और कश्मीर के परिहार।’
इस सूची से हमें जहां अपने देश के तत्कालीन राजाओं की एकता का बोध होता है वहीं हमें यह भी पता चलता है कि उस समय गजनी के शासक ने भी राष्ट्रहित को सामने रखकर राणा का साथ दिया था। हमें इन पंक्तियों को हल्के से नहीं पढ़ना चाहिए अपितु इस बात पर विचार करना चाहिए कि उस समय का भारत गजनी तक हुआ करता था और गजनी के शासक भी अपने भारतवर्ष के प्रति उतने ही चिंतित थे जितने यहां के तत्कालीन शासक या लोग चिंतित थे। वे लोग भारत को अपनी पितृ भूमि और पुण्य भूमि के साथ-साथ पवित्र भूमि भी मानते थे। यही कारण था कि वे भारत के धर्म और भारत की संस्कृति से अपने आपको बंधा हुआ मानते थे। जिनकी रक्षा करना वे अपना स्वभाविक राष्ट्रीय कर्तव्य मानते थे।
रावल मत्तट राजगद्दी पर बैठा
मेवाड़ संबंधी इतिहास के स्रोतों से हमें पता चलता है कि सन् 773 ईसवी में रावल मत्तट राजगद्दी पर बैठा था। अतः खुमाण प्रथम की मृत्यु 773 ईसवी में हो गई होगी। अब थोड़ा सा इस बात पर भी विचार करते हैं कि खुमाण सिंह प्रथम,खुमाण सिंह द्वितीय और खुमाण सिंह तृतीय के बीच कितना अंतर है ?
खुमाण सिंह प्रथम के पश्चात मत्तट ने 773 ईस्वी से 793 ई0 तक अर्थात 20 वर्ष शासन किया। इसके पश्चात भर्तभट्ट प्रथम राजगद्दी पर बैठा। जिसने 793 ई0 से 813 ई0 तक शासन किया। इसके पश्चात रावल सिंह का शासनकाल आरंभ होता है, जिसने 813 ई0 से 828 ई0 तक शासन किया था। इस रावल सिंह के पश्चात खुमाण सिंह द्वितीय का राज्यारोहण होता है। जिसने 828 ई0 से 853 ई0 तक शासन किया। बहुत संभव है कि कर्नल टॉड जिस खुमाण सिंह के बारे में वर्णन कर रहे हैं वह यही खुमाण सिंह हों। यदि इस दृष्टिकोण से देखा जाएगा तो स्पष्ट हो जाता है कि विदेशियों को 24 बार युद्ध में पराजित करने वाला खुमाण सिंह प्रथम न होकर
खुमाण सिंह द्वितीय था। खुमाण सिंह द्वितीय के पश्चात राणा महायक ने 853 ईसवी से 878 ईसवी तक शासन किया। राणा के पश्चात खुमाण सिंह तृतीय का राज्यारोहण हुआ। जिसने 878 ई0 से 903 ई0 तक शासन किया।
कर्नल टॉड लिखता है-‘मेवाड़ के इतिहास में राणा खुमाण का नाम बहुत प्रसिद्घ है। उसी के शासनकाल में मुसलमानों ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया और आक्रमणकारियों ने चित्तौड़ को घेर लिया। चित्तौड़ की रक्षा करने के लिए अनेक राजपूत राजा (राणा खुमान के नेतृत्व में राजपूत राजाओं ने अपना संघ बनाया और विदेशी आक्रामक को खदेडऩे के लिए युद्घ के मैदान में आ डटे) युद्घ के मैदान में युद्घ करने हेतु आ उपस्थित हुए। राजा खुमान ने आक्रमणकारी सेना का सामना बड़ी बुद्घिमानी के साथ किया। मुस्लिम सेना की पराजय हुई। उसके बहुत से सिपाही मारे गये, और जो शेष रहे, वे युद्घ से भाग गये। राजा खुमान ने अपनी सेना के साथ उनका पीछा किया और शत्रु सेना के सेनापति महमूद को गिरफ्तार कर लिया। उसके पश्चात उसे राजपूत सैनिक चित्तौड़ ले गये।’
निश्चय ही यह राणा उस समय भारत के स्वाभिमान का प्रतीक बन गया था। इस युद्ध में भारत ने अपनी वीरता और शौर्य का परिचय देते हुए विदेशी शत्रु को भागने के लिए विवश कर दिया था। निश्चित रूप से यह सारा कार्य है राणा खुमाण सिंह के नेतृत्व में संपन्न हुआ। हमारे लिए यह बहुत ही प्रसन्नता का विषय है कि जिस समय इस्लाम भारत पर निरंतर हमलावर
होकर बार-बार आक्रमण कर रहा था , उस समय हमारे यहां पर एक से बढ़कर एक देशभक्त वीर योद्धा देश की रक्षा के लिए इन हमलावरों का मुंहतोड़ उत्तर देने के लिए तत्व पर खड़ा था।
युद्ध निर्णायक रूप से लड़ा गया
कर्नल टॉड द्वारा लिखे गए इस विवरण से पता चलता है कि यह युद्ध बड़ा निर्णायक रहा था और इससे भारत की वीरता और देशभक्ति की धाक जम गई थी। राणा के यश में अभिवृद्धि हुई थी । इसके साथ साथ हमारे राष्ट्रीय चरित्र को भी संसार ने समझा और विशेष रुप से इस्लामिक आक्रमणकारियों को यह पता चल गया कि भारत को हाथ लगाना कितना महंगा पड़ता है? देशभक्ति से भरे इन पुण्य कार्यों के कारण मेवाड़ के राणा परिवार के प्रति वंश के प्रति लोगों की आस्था और भी अधिक गहरी हो गई। देर तक लोग इस राज वंश के शासकों की ओर इस अपेक्षा से देखते रहे कि विदेशी आक्रमणकारियों को अपनी रणनीति के जाल में फंसा कर चित्त करना केवल इसी वंश के शासक जानते हैं।
कर्नल टॉड ने इस विदेशी आक्रमणकारी का नाम महमूद या मामून लिखा है। अब प्रश्न यह आता है कि यह महमूद कौन था? इसका निराकरण कर्नल टॉड ने यह कहकर किया है कि हारूं अलरशीद ने खलीफा बनने पर अपने विशाल राज्य को अपने बेटों में बांटा और उसने अपने दूसरे पुत्र अलमामून को खुरासान, जबूलिस्तान, सिंध और हिंदुस्तानी राज्य दिये। हारूं की मृत्यु के पश्चात अलमामून अपने भाई को पदच्युत करके हिजरी 78 सन 813 ई. में खलीफा बन गया। राणा खुमाण द्वितीय बहुत संभव है कि इसी खलीफा का समकालीन हो। उसी के शासनकाल में अलमामून ने जबूलिस्तान से आकर चित्तौड़ पर आक्रमण किया था। ऊपर चित्तौड़ के आक्रमण में जिस महमूद का नाम लिखा गया है और जिसे चित्तौड़ के राजा खुमान ने पराजित करके कैद कर लिया था, वह यही मामून था जिसका नाम लिखने वालों की भूल से महमूद लिखा गया है।’
कर्नल टॉड हमें बताते हैं कि इस आक्रमण के पश्चात बीस वर्ष तक मुसलमानों ने भारत में कहीं पर भी आक्रमण नही किया। उनका प्रभाव भारत के छुटपुट विजित क्षेत्रों पर भी निरंतर ढ़ीला पड़ता जा रहा था, क्योंकि भारत उन्हें निरंतर चुनौती दे रहा था और यहां उनके लिए स्थायी रूप से शांतिपूर्वक शासन करना निरंतर कठिन हो रहा था। इसलिए जिन क्षेत्रों पर मुस्लिम आक्रांताओं ने अधिकार भी कर लिया था, उनसे भी उन्हें भागने के लिए विवश होना पड़ा। कर्नल टाड हमें बताता है-‘सिंध को छोड़कर शेष सभी देश मुस्लिम आक्रांताओं के अधिकार से निकल गये थे। इन्हीं दिनों में हारूं अलरशीद का पोता मोताविकेल बगदाद के शासन का स्वामी बना। यह समय सन 850 ई. का था। मोताविकेल के पश्चात उसका पैतृक राज्य निर्बल पडऩे लगा। उस समय के पश्चात बगदाद सौदागरों के एक बाजार के अतिरिक्त और कुछ न रह गया।’
कर्नल टॉड हमें यह भी बताते हैं कि चित्तौड़ के राणा खुमान को 24 बार विदेशियों से युद्घ करना पड़ा था। उन युद्घों में राणा खुमाण ने अपने जिस शौर्य का परिचय दिया था, वह रोम के सम्राट सीजर की भांति राजपूतों के लिए अत्यंत गौरवपूर्ण है। उसके शौर्य और प्रताप ने भारत के इतिहास में राजपूतों का नाम अमर कर दिया।
राणा खुमाण ने अपने शौर्य से स्पष्ट किया कि स्वतंत्रता केवल बलिदानों को ही नही चाहती है, अपितु स्वतंत्रता को सूझबूझ भरी नेतृत्व क्षमता और पारस्परिक एकता की भी आवश्यकता होती है। इसलिए राणा ने केवल बलिदानों के लिए बलिदान देने की भूल नही की, अपितु बलिदानों को अमर बनाने के लिए अपने सुयोग्य नेतृत्व का भी परिचय दिया। जब बलिदानों के उपरांत भी स्वतंत्रता की रक्षा संभव ना हो सके, तो उस समय ऐसे बलिदान मात्र बलिदानों के लिए बलिदान ही माने जाते हैं। क्योंकि ऐसे बलिदानों के पीछे अदम्य साहस तो होता है परंतु उस अदम्य साहस के साथ-साथ सूझबूझ नही होती। जिससे अदम्य साहस भी केवल अहंकार को तो पूजनीय बना जाता है, परंतु उन्हें व्यर्थ भी बना देता है। बलिदानों की ऐसी दुर्गति का काल भी भारत में आया जब केवल मरने के लिए रण रचे गये।
हमें अपने इन महानायक वीर योद्धाओं के संबंध में व्याप्त भ्रान्तियों का निवारण करते हुए उनके काल के सही निर्धारण को शोधात्मक ग्रंथों के माध्यम से शुद्ध करना चाहिए और इनके महान कार्यों को आज की युवा पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत करने में देर नहीं करनी चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत