चुनाव और नेताओं की हल्की बातें
हिमालय और गुजरात के चुनावों में हमने नेताओं की कुछ हल्की बातें देखी हैं। जब ‘हल्के’ लोगों को बड़ी जिम्मेदारी दी जाती है या वे हमारे द्वारा अपने नेता मान लिये जाते हैं तो उनसे ऐसी हल्की बातों की अपेक्षा की जा सकती है। हमारे नेताओं को कौन समझाये कि विकास कभी ‘पागल’ या ‘बदतमीज’ नहीं हो सकता। विकास तो विकास है और वह सदा अपनी सीमाओं में रहता है। दूसरे, दूसरे इस लोकतंत्र के चलते कभी भी हमारे देश में कोई ‘आम आदमी’ बड़ा पद नहीं ले सकता। यह भ्रम है कि हमारा लोकतंत्र आम आदमी का लोकतंत्र है। हमारे देश में ‘आम आदमी’ को खास आदमी न बनने देने के लिए बहुत बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी कर दी गयी हैं। उन्हें लांघना हर किसी के वश की बात नहीं है। पहली बात तो ये है कि ‘आम आदमी’ जब खास बनने की तैयारी करने लगता है-तभी वह देश की बड़ी जिम्मेदारी को पाता है। नरेन्द्र मोदी आज चाय बेचने वाले नहीं हैं और ना ही किसी चाय बेचने वाले को देश चलाने की जिम्मेदारी दी जा सकती है। चाय बेचने वाला ‘नरेन्द्र मोदी’ तो कब का समाप्त हो चुका है। जितनी देर उन्होंने चाय बेची उससे कई गुणा समय वह ‘खास व्यक्ति’ के रूप में व्यतीत कर चुके हैं। अब वह स्वयं को ‘चाय बेचने वाला’ कहकर केवल लोगों की सहानुभूति बटोर रहे हैं और विपक्ष उन्हें चाय बेचने वाला कहकर उनकी जनता के बीच विश्वसनीयता को और मजबूती दे रहा है।
हमारा मानना है कि लोकतंत्र ना तो आम आदमी का होता है और ना ही उसे ‘आम आदमी’ का होना चाहिए चाहिए। हां, उसे ‘आम आदमी’ को खास आदमी बनाने का हुनर अवश्य आना चाहिए। ‘आम आदमी’ को आप अचानक देश का प्रधानमंत्री नहीं बना सकते, ना ही उसे किसी नगरपालिका का चेयरमैन बना सकते हैं। इसके लिए एक प्रक्रिया है और उस प्रक्रिया को साधना की भट्टी कहा जा सकता है, जिसमें से निकलकर तपना पड़ता है। यह तप ही किसी व्यक्ति का ‘आम आदमी’ से खास आदमी बन जाना होता है। बड़े पदों को जब ये बड़े आदमी संभालते हैं तो उससे पद की गरिमा बढ़ती है। यदि किसी कारण से कोई ‘आम आदमी’ बड़े पद पर पहुंच भी जाए तो वह बड़ी जिम्मेदारी को निभा नहीं सकता। एच.डी.देवेगौड़ा देश के प्रधानमंत्री बने तो वह उस पद की जिम्मेदारियों का कितना निर्वाह कर पाये?-जिसके लिए वह स्वयं भी तैयार नहीं थे। जब कोई व्यक्ति बड़े पद की तैयारी ना कर रहा हो और उसे वह अचानक मिल जाए तो उसके विषय में समझना चाहिए कि वह एक ‘आम आदमी’ था और अब वह खास आदमी बनाया जा रहा है तो वह अपनी जिम्मेदारियां सही ढंग से निभा नहीं पाएगा। देवेगौड़ा की साधना छोटी थी-और पद बड़ा था। ऐसा कई लोगों के साथ हुआ है, जिनकी कद छोटा था और उन्हें जिम्मेदारी बड़ी दे दी गयी। कई राष्ट्रपति ऐसे बनाये गये हैं तो कई प्रधानमंत्री भी ऐसे बने हैं। यहां तक कि श्रीमती इंदिरा गांधी भी जब देश की पहली बार प्रधानमंत्री बनी थीं तो वह भी उस समय ‘पद की साधना’ के दृष्टिकोण से छोटी थीं। बड़े पद के लिए उनका कद छोटा था। यही कारण था कि जब वह प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने कई गलतियां कीं। देश में आपातकाल की घोषणा भी उन्होंने जिस प्रकार की थी-उससे उनकी हताशा का ही पता चलता है। ‘हताशा’ तपस्याविहीन लोगों की मानसिकता को दर्शाया करती है।
गुजरात और हिमाचल के चुनावों में हमने देखा कि नेताओं ने हर बार की भांति अपने विपक्षी पर व्यंग्यबाण चलाये। ‘बयानवीर’ नेताओं को लोकतंत्र एक दूसरे को व्यंग्यबाणों से घायल करने की छूट देता है। लेकिन साथ ही साथ यह एक सीमा रेखा भी खींचता है कि इन व्यंग्यबाणों में तेजाबी तीर ना हों। जिससे अगले व्यक्ति की मृत्यु न होने पाये। इस प्रकार लोकतंत्र कहता है कि विपक्षी को जीवित रखकर उससे संघर्ष करना है, उसे शस्त्रविहीन कर दो, पर किसी भी स्थिति में तुम्हें अपने ‘सुदर्शनचक्र’ का प्रयोग नहीं करना है। ‘सुदर्शनचक्र’ लेकर यदि चल दिये तो समझना कि आपने युद्घ के नियम का उल्लंघन कर दिया है। यह स्वस्थ लोकतंत्र की परम्परा है, जिसमें हर ‘कृष्ण’ यह शपथ उठाता है कि वह अपने ‘सुदर्शनचक्र’ का प्रयोग नहीं करेगा, पर यहां एक से एक बड़ा ‘भीष्म’ छिपा बैठा है जो कृष्ण को ‘सुदर्शनचक्र’ उठवा देने की शपथ उठाकर ही मैदान में उतरता है।
आज के समय में ये ‘भीष्म’ किसी भी पार्टी के युद्घ के रणनीतिकार होते हैं। कांग्रेस अच्छा चुनाव लड़ रही थी। वह गुजरात में अच्छे प्रदर्शन की ओर बढ़ रही थी। तभी उसकी ओर से एक ‘नीच’ बाण आया और उसने भाजपा के कृष्ण को ‘सुदर्शनचक्र’ उठाने के लिए विवश कर दिया। कांग्रेस ‘सुदर्शनचक्र’ का सामना नहीं कर पायी। इस ‘सुदर्शनचक्र’ ने उसे अपने गिरेबान में झांकने के लिए विवश कर दिया। ‘सुदर्शनचक्र’ का हमला इतना भारी था कि कांग्रेस बचाव की मुद्रा में आ गयी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब कांग्रेस को पाकिस्तानी राजनयिकों के साथ मणिशंकर अय्यर द्वारा की गयी बैठक पर घेरा तो कांग्रेस ने पहले तो इस प्रकार की किसी बैठक से इनकार किया, पर बाद में मणिशंकर अय्यर ने यह स्वीकार किया कि उन्होंने ऐसी बैठक की थी। पी.एम. का वार खाली नहीं गया। दूसरे, कांग्रेस के स्टार प्रचारक राहुल गांधी ने पाकिस्तानी जेल में बंद हाफिज सईद की रिहाई पर पीएम मोदी का ट्विट के माध्यम से उपहास उड़ाया, जिसे प्रधानमंत्री ने सही समय पर गुजरात चुनाव से लाकर जोड़ दिया। इस पर राहुल गांधी घिर गये-प्रधानमंत्री का निशाना फिर सही स्थान पर लगा और उसने कांग्रेस के बड़े योद्घा को ही घायल कर दिया। एक समय कांग्रेस के राहुल गांधी प्रधानमंत्री को जीएसटी को ‘गब्बर सिंह टैक्स’ कहकर घेर रहे थे, तो प्रधानमंत्री ने इसे उनका ‘ग्राण्ड स्टपिड थॉट’ कहकर प्रभावशून्य कर दिया, उस समय भी कांग्रेस के राहुल गांधी शस्त्रविहीन नजर आये। जीएसटी के विषय में कांग्रेस लोगों का मूर्ख बना रही थी, इसमें जितने भी संशोधन उसने चाहे वे सरकार ने किये। फिर कांग्रेस शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों ने इसे स्वीकार कर इस पर अपनी सहमति दी। बात साफ हो गयी कि इस पर सबकी सहमति थी। इसकी कमियों के लिए कांग्रेस भी उतनी ही जिम्मेदार है जितना सत्ता पक्ष है। तब यह ‘गब्बरसिंह टैक्स’ कैसे हुआ? यह तो ‘ग्राण्ड स्टपिड थॉट’ ही हुआ, कांग्रेस मुद्दाविहीन हो गयी और उसे अपना ‘ग्राण्ड स्टपिड थॉट’ पीछे हटाना पड़ा।
माना कि चुनावों के दौरान कुछ हल्की बातें हुईं पर देश की जनता ने यह भी देख लिया कि हल्की बातें होती क्या हैं? दूसरे देशों के राजनयिकों से आप इसलिए बात करेंगे कि हमारे देश के प्रधानमंत्री को हटाने में आप हमारी मदद करें या देश की सत्ता में हमें आने दो-फिर आतंकियों को खुला छोड़ देंगे, कश्मीर से सेना हटा लेंगे और ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करने या ‘डोकलाम’ को दोहराने की तो सोचना भी मत-तो निश्चय ही ये स्थितियां किसी भी कृष्ण को ‘सुदर्शनचक्र’ उठाने के लिए बाध्य किया था और फिर ‘सुदर्शनचक्र’ उठाकर अपनी ओर दौड़े आ रहे कृष्ण जी को देखकर ‘भीष्म पितामह’ बड़े सात्विक भाव से हाथ जोडक़र खड़े हो गये थे कि-लो कर लो शरसंधान?
गुजरात के महाभारत को हमने देखा कि कांग्रेस सात्विक भाव से तो नहीं पर नि:शस्त्र होकर भाजपा के ‘कृष्ण’ के सामने शीश झुकाकर खड़ी हो गयी और कहने लगी कि लो कर दो-शर संधान। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि ‘सुदर्शनचक्र’ का प्रयोग युद्घ के नियमों का उल्लंघन है। पर उसे यह पता नहीं था कि इसे उठाने के लिए तो उसने स्वयं ही परिस्थितियां बनायी थीं। कांग्रेस शीशे के महलों में रहकर दूसरों पर पत्थर उछाल रही थी। आज परिणाम भोग रही है।