गुणवत्ता के नाम पर राजनीति कितनी उचित कितनी अनुचित
ऋषभ कुमार मिश्र
‘असफल विद्यालय’ का तर्क देकर सरकार अपने दायित्व से पीछा नहीं छुड़ा सकती। विद्यालयों की स्वायत्तता निजी हाथों में सौंपने से पहले अपनी विरासत को याद करना जरूरी है। महात्मा गांधी एक आत्मनिर्भर और स्वायत्त विद्यालय की परिकल्पना में विश्वास करते थे। एक ऐसा विद्यालय जिसका प्रबंधन स्थानीय समुदाय के पास हो और जिसकी पाठ्यचर्या हाथ, हृदय और मस्तिष्क के संयोजन पर बल देती हो, वह भी वैज्ञानिक ज्ञान से समझौता किए बगैर। क्या सरकारें ऐसा कर पाएंगी।
राजस्थान सरकार ने विद्यालयी शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) का रास्ता चुना है। सरकार का मानना है कि इस मॉडल द्वारा गैर-उपादेय (नॉन-परफॉर्मिंग) विद्यालयों में पढऩे-पढ़ाने की संस्कृति में सुधार किया जा सकता है। गैर-उपादेयता से सरकार का मतलब क्या है? यह समझना भी जरूरी है। सरकार ने जो श्रेणी तय की है उसके हिसाब से ऐसे विद्यालय जिनका परीक्षा परिणाम खराब हो। देखा गया कि ऐसे ज्यादातर विद्यालय ग्रामीण क्षेत्र में है। सर्वेक्षण में पाया गया कि इस कोटि में आने वाले सभी विद्यालय सरकार द्वारा संचालित हैं। यानी सरकार यह मानती है कि निजी विद्यालयों की गुणवत्ता सरकारी स्कूलों की तुलना में ठीकठाक है। सरकार का मानना है कि ऐसे विद्यालय दूर-दराज के क्षेत्रों में हैं। सोचने वाली बात यह है कि दूरस्थ इलाकों में सरकारी विद्यालय ही समाज के वंचित वर्ग के लिए औपचारिक शिक्षा का एकमात्र माध्यम हैं।
उल्लेखनीय है कि कुछ माह पहले केंद्र सरकार ने भी इसी तरह कुछ विश्वविद्यालयों को नॉन-परफॉरमिंग घोषित कर दिया था। लगता है कि सरकारें इस मुद्दे पर काफी गंभीर हो रही हैं। लेकिन इस गंभीरता में विरोधाभास यह है कि ‘परफारमेंस’ को वे या तो सजा देकर ठीक करना चाहती हैं- जैसे कि, विश्वविद्यालयों के संदर्भ में अनुदान आदि की कटौती करके या जो नॉन-परफॉरमिंग है, उससे पल्ला झाड़ कर। जैसे- राजस्थान में इस तरह के विद्यालयों को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी चल रही है। इस तरह की योजनाओं में नवउदारवाद के लक्षण साफ दिखाई दे रहे हैं। सरकार निजी क्षेत्र को एक भरोसेमंद साझीदार मान रही है जिसका राज्य के उद्देश्यों से कोई मतलब नहीं है। इसके साथ, सरकार का बाजार पर भी गहरा भरोसा। वह मानती है कि बाजार की प्रक्रियाएं और प्रकृति, उत्पाद (जो कि यहां शिक्षा है) की गुणवत्ता, प्रबंधन और प्रदर्शन को बनाए रखेगी। सरकार को लगता है कि लोक वस्तुओं और सार्वजनिक सेवाओं पर किए जा रहे व्यय में कटौती होगी, जिससे सरकार का वित्तीय बोझ कम होगा। सरकार मानती है कि उसके पास ‘कानून’ द्वारा नियंत्रण करने का अधिकार है, इसलिए निजी क्षेत्र कोई अनाधिकार चेष्टा नहीं करेंगे।
अब सवाल है कि शिक्षा जैसी अतिआवश्यक लोकवस्तु के संदर्भ में यह मॉडल कितना कारगर होगा? सरकार ने पीपीपी का जो मसविदा तैयार किया है, उसके अनुसार निजी क्षेत्र से जो साझेदार इन सरकारी विद्यालयों के उद्धार का जिम्मा उठाना चाहते हैं वे सरकार को पचहत्तर लाख रुपए प्रति विद्यालय का भुगतान करेंगे। सरकार सोलह लाख रुपए प्रतिवर्ष की दर से सात वर्ष में इसकी प्रतिपूर्ति करेगी। इस धन का प्रयोग आधारभूत संसाधनों के विकास के लिए किया जाएगा। इस तरह से सरकार पर आर्थिक बोझ कम पड़ेगा। इस गुलाबी तर्क के बरक्स पहला सवाल है कि एक विद्यालय के संचालन के लिए इतनी बड़ी धनराशि का भुगतान कौन करेगा? अधिकांश गैरलाभकारी संगठन किसी औद्योगिक घराने की तरह न तो आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ है न ही वे बैंक या किसी अन्य माध्यम से उधार लेकर इतना बड़ा जोखिम उठाना चाहेंगे। स्वाभाविक है कि जो निजी निवेशक इस निवेश के लिए आकर्षित होगें, वे बड़े औद्योगिक घराने होंगे। किसी बड़े लाभ के अभाव में वे इतना बड़ा निवेश क्यों करेंगे जबकि ऐसा करने के बावजूद विद्यालय का मालिकाना हक सरकार के पास होगा।
मान लीजिए वे लोकोपकार (फिलान्थ्रोपी) के नाम पर जोखिम उठा भी लेते हैं तो इस तरह के प्रबंधन द्वारा विद्यालय के संचालन में न दिखने वाले प्रभावों और संदेशों को संज्ञान में लेने की जरूरत है। इस मॉडल में जब विद्यार्थी हमेशा इन पूंजीपतियों का महिमामंडन देखेगा तो उस पर यही प्रभाव होगा कि उद्योग ही तरक्की का एकमात्र विकल्प है। अधिकांश विद्यालय ग्रामीण अंचलों में हैं । इसका मतलब यह है कि कृषि और भूमि जैसे अन्य संसाधन भी इसमें झोंके जाएंगे। संसाधन और सीखने के संबंध को केंद्र में रखकर समस्या का विश्लेषण किया जाए तो समझ में आता है कि वित्त के अभाव में विद्यालयों को निजी हाथों में सौंपने की क्या कीमत चुकाई जाएगी? पीपीपी मॉडल में विद्यालय पढ़ाई के केंद्र बनें या नहीं, लेकिन कारोबार का केंद्र जरूर बन जाएंगे। कहने के लिए सरकार का अप्रत्यक्ष नियंत्रण होगा, लेकिन व्यवहार में निजी तंत्र ही इन विद्यालयों को चलाएगा। विद्यालय प्रबंधन लागतों को कम करने की कोशिश करेंगे लेकिन क्रेता के सम्मुख उसे ‘अधिक’ बनाकर प्रस्तुत करेंगे। यहां से वह श्रमशक्ति तैयार होगी जो बाजार के नियमों को मानव के मूल्यों पर श्रेष्ठ समझेगी। इन विद्यालयों में पढऩे वाले बच्चे कम से कम बारह वर्ष में इतना तो सीख ही जाएगें कि वही कार्य महत्त्वपूर्ण है जिसका बाजार में मूल्य होता है। यानी मानव पूंजी तो तैयार हो जाएगी लेकिन क्या मानव मन भी तैयार हो पाएगा?
देखा जाए तो सरकार एक गलत पटरी पर चल रही है। वह यह जानने में व्यस्त है कि कौन वित्त दे रहा है? कौन प्रबंध कर रहा है? जबकि उसे दिलचस्पी इसमें होनी चाहिए कि इस मॉडल से शिक्षा की गुणवत्ता पर क्या असर पड़ेगा? ग्रामीण क्षेत्र में जो बच्चे कम शुल्क देकर अभाव में रह कर भी शिक्षा हासिल कर लेते हैं और अगर निजी प्रबंधन इसमें पूंजी लगाएगा तो क्या वह शुल्क का मॉडल पहले जैसा रहने देगा? अगर शिक्षा महंगी हो जाएगी तो शिक्षा अधिकार कानून और निशुल्क शिक्षा का क्या मतलब रह जाएगा?
सरकार मानती है कि बच्चे पढ़ते नहीं, शिक्षक आते नहीं,आते हैं तो पढ़ाते नहीं। सरकार इन्हीं तर्कों का बहाना बना रही है और पीपीपी मॉडल को रामबाण इलाज मान रही है। आखिर निजी क्षेत्र ऐसा क्या करेगा कि बच्चे पढऩे के लिए अभिप्रेरित हो जाएं, शिक्षक आएं और पढ़ाएं। यह तो एक ही दशा में संभव है यानी भय कायम करना। अब बस एक व्यवस्था बाकी है कि विद्यालयों में भी एचआर की नियुक्ति हो जो ‘रखो-निकालो’ प्रणाली को निर्दयता पूर्वक लागू करे। इसके विपरीत शिक्षा का अधिकार कानून विद्यालय प्रबंधन का एक लोकतांत्रिक मॉडल सुझाता है यानी विद्यालय प्रबंध समिति द्वारा विद्यालय का प्रबंधन। दिल्ली के सरकारी विद्यालयों के प्रबंधन में इस मॉडल की सफलता आजकल सुर्खियां बटोर रही है। इसी तरह राजनीतिक इच्छाशक्ति और नीतियों के सुव्यवस्थित निष्पादन का एक अन्य उदाहरण रवांडा जैसे छोटे अफ्रीकी देश में भी देखने को मिल सकता है। वहां जहां सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता के कारण निजी विद्यालय बंद होने के कगार पर आ चुके हैं।
भारत में कुछ पहलकदमी हुई है। जैसे कि उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने राज्य सरकार के अधिकारियों को आदेश दिया था कि वे अपने पाल्यों का प्रवेश पड़ोस के सरकारी विद्यालय में कराएं। ऐसे ही उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने भी राज्य सरकार को आदेश दिया था कि जब तक राज्य के प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षण अधिगम के न्यूनतम संसाधनों का प्रबंध नहीं हो जाता, राज्य सरकार अपने लिए कोई आरामदायक वस्तु (लक्जरी गुड) न खरीदे।
निहितार्थ यह है कि शिक्षा जैसी लोकवस्तु की सेवा आम जनता को उपलब्ध हो यह तय करना सरकार का दायित्व है। ‘असफल विद्यालय’ का तर्क देकर सरकार अपने दायित्व से पीछा नहीं छुड़ा सकती। विद्यालयों की स्वायत्तता निजी हाथों में सौंपने से पहले अपनी विरासत को याद करना जरूरी है। महात्मा गांधी एक आत्मनिर्भर और स्वायत्त विद्यालय की परिकल्पना में विश्वास करते थे। एक ऐसा विद्यालय जिसका प्रबंधन स्थानीय समुदाय के पास हो और जिसकी पाठ्यचर्या हाथ, हृदय और मस्तिष्क के संयोजन पर बल देती हो, वह भी वैज्ञानिक ज्ञान से समझौता किए बगैर। क्या सरकारें ऐसा कर पाएंगी।