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महर्षि दयानन्द ठहरे थे फर्रुखाबाद में गंगा के तट पर । उनसे थोडी ही दूर एक और झोपडी में एक दूसरा साधु भी ठहरा हुआ था । प्रतिदिन वह देव दयानन्द की कुटिया के पास आकर उन्हें गालियाँ देता रहता था । देव दयानन्द सुनते और मुस्करा देते । कोई भी उत्तर नहीं देते थे । कई बार उनके भक्तों ने कहा—“महाराज ! आपकी आज्ञा हो तो इस दुष्ट को सीधा कर दे ।”
महाराज सदा कहते—“नहीं, वह स्वयं ही सीधा हो जाएगा ।”
एक दिन किसी सज्जन ने फलों का एक बहुत बडा टोकरा महर्षि के पास भेजा । महर्षि ने टोकरे से बहुत अच्छे-अच्छे फल निकाले, उन्हें एक कपडे में बाँधा और एक व्यक्ति से बोले—“ये फल उस साधु को दे आओ, जो उस परली कुटी में रहता है, जो प्रतिदिन यहाँ आकर कृपा करता है ।”
उस व्यक्ति ने कहा—“परन्तु वह तो आपको गालियाँ देता है ???”
महर्षि बोले—“हाँ, उसी को दे आओ ।”
वह सज्जन फल लेकर उस साधु के पास गए । जाकर बोले—“साधु बाबा, ये फल स्वामी दयानन्द ने आपके लिए दिए हैं ।”
साधु ने दयानन्द का नाम सुनते ही कहा—“अरे ! यह प्रातःकाल किसका नाम ले लिया तूने ? पता नहीं, आज भोजन भी मिलेगा या नहीं । चला जा यहाँ से । मेरे लिए नहीं, किसी दूसरे के लिए भेजे होंगे । मैं तो प्रतिदिन उसे गालियाँ देता हूँ ।”
उस व्यक्ति ने महर्षि के पास आकर यही बात कही ।
महर्षि बोले—“नहीं, तुम फिर उसके पास जाओ । उसे कहो कि आप प्रतिदिन जो अमृत-वर्षा करते हो, उसमें आपकी पर्याप्त शक्ति लगती है । ये फल इसलिए भेजे हैं कि इन्हें खाइए, इनका रस पीजिए, जिससे आपकी शक्ति बनी रहे और आपकी अमृत-वर्षा में कमी न आ जाए ।”
उस व्यक्ति ने साधु के पास जाकर वही बात कह दी—“सन्त जी महाराज, ये फल स्वामी दयानन्द ने आप ही के लिए भेजे हैं और कहा है कि आप प्रतिदिन जो अमृत-वर्षा उन पर करते हैं, उसमें आपकी पर्याप्त शक्ति व्यय होती है । इन फलों का प्रयोग कीजिये, जिससे आपकी शक्ति बनी रहे और आपकी अमृत-वर्षा में न्यूनता न आए ।”
साधु ने यह सुना तो घडों पानी उसके ऊपर पड गया । निकला अपनी कुटिया से, दौडता हुआ पहुँचा महर्षि के पास । उनके चरणों में गिर पडा, बोला—“महाराज ! मुझे क्षमा करो । मैंने आपको मनुष्य समझा था, आप तो देवता हैं !!”
यह है सहनशीलता का जादू ! जिसमें यह सहनशीलता उत्पन्न हो जाती है, उसके जीवन में एक अनोखी मिठास, एक अद्भुत सन्तोष और एक विचित्र प्रकाश आ जाता है ।
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