गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-31
गीता का पांचवां अध्याय और विश्व समाज
वह इनके बीच में रहता है, पर इनके बीच रहकर भी इनके दुष्प्रभाव से या पाप पंक से स्वयं को दूर रखने में सफल हो जाता है। श्रीकृष्णजी अर्जुन से कह रहे हैं कि जो कर्मयोगी नहीं है, वह कामना के वशीभूत होकर फल की आसक्ति के फेर में पड़ जाता है और उसे कर्मबन्धन अपने शिकंजे में कस लेता है। अभिप्राय ये है कि संसार में रहने वाले लोगों को मन से कर्म त्याग के लिए तैयारी करनी चाहिए। उन्हें मन से कर्मफल की कामना का त्याग करना सीखना होगा। जो कर्मयोग की इस शर्त को पूरा कर देता है। वह महान साधक कहलाता है, वह ज्ञानयोगादि से भी श्रेष्ठ हो जाता है। ऐसा महान साधक इस (आठ चक्रों वाली और) नौ द्वारों वाली (अयोध्यापुरी) नगरी में आनन्दपूर्वक वास करता है। ऐसा व्यक्ति संसार को एक सराय मानता है। इस सराय को वह साक्षी भाव से या दृष्टा भाव से देखता है और इसी भाव से इसका उपभोग करता है। तब उसे इस सराय में कोई आसक्ति इसलिए नहीं होती कि वह अपने अहम को या अहंकार को मार चुका होता है। यह अहंकार ही उसे चैन से नहीं रहने देता और इसी के कारण पर वह कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो पाता। वह स्वयं को कत्र्ता मानता रहता है। जबकि परमपिता परमेश्वर ने न तो किसी को कत्र्ता बनाया है और ना ही कोई कर्म बनाया है। ईश्वर ने कर्मफल के साथ संयोग अर्थात उसके प्रति आसक्ति भी नहीं बनायी है। मनुष्य अपने स्वभाव और अज्ञान के कारण अपने आपको कत्र्ता मान बैठता है। यदि संसार के लोग स्वयं को कत्र्ता न मानें तो कर्म अपने आप ही निष्काम हो जाता है।
अज्ञान का पर्दा ज्ञान पर पड़ा हुआ हे पार्थ !
इसे हटाने के लिए दूर करो निज स्वार्थ।।
योगेश्वर श्रीकृष्णजी के द्वारा गीताकार अपनी बात को आगे बढ़ाता है और कहता है कि संसार में ज्ञान पर अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है, संसार के लोग इस अज्ञान की रात्रि में चारों ओर मारे मारे फिर रहे हैं अर्थात भटक रहे हैं। मोहपाश में पड़े रहकर दु:ख के बंधनों में जकड़े जाते हैं और लाख उपाय करने के उपरान्त भी उससे बच नहीं पा रहे हैं। अन्त में मृत्युपाश में जकडक़र स्वयं को अपने आप ही मृत्यु का ग्रास बना रहे हैं। लोगों को भ्रम है कि मृत्यु उनकी ओर आ रही है (यह अज्ञान है) और उन्हें खा जाएगी, पर वास्तव में सच ये है कि लोग ही मृत्यु की ओर भागे जा रहे हैं। वह स्वयं ही मोहपाश में बंधे होकर और कर्मयोग का या निष्कामभाव का रास्ता न पकडऩे के कारण स्वयं को मृत्यु की भेंट चढ़ा रहे हैं। इसी से संसार में मृत्यु को लेकर नित्य प्रति का कारूण-क्रन्दन व चीत्कार देखने को मिलती हैं। मृत्यु को आते हुए देख कर भी लोग रोते हैं और जब वह किसी को यहां से लेकर चल देती है तो उस जाने वाले के लिए भी राते हैं।
निष्काम कर्म योगी इस पर आने वाली मृत्यु को देखकर रोता नहीं है। वह तो उसका एक अतिथि के रूप में स्वागत करता है। कहता है कि ”मैं आपके ही इंतजार में था। चलो! कहां लेकर चलना है मुझे?” यह जो मृत्यु है, ना ये जितनी बहादुर दीखती है, उतनी है नहीं। इससे जिसने यह कहने का साहस कर लिया कि-‘चलो! कहां लेकर चलना है मुझे? मैं तुमसे डरने वाला नहीं हूं।’- यह उसे छोडक़र चल देती है। कह देती है कि-‘तुझे मैंने अमरत्व दिया, जा तू उसी की अर्थात अमरत्व की गोद में चला जा।’ ऐसा कहने वाले को मोक्ष मिल जाता है जहां मृत्यु की भी मृत्यु हो जाती है।
भारत मृत्यु की मृत्यु करने की साधना करने वाला देश रहा है। यह संसार मृत्यु को देखकर रो रहा है और मेरा भारत मृत्यु को देखकर हंसता रहा है। अपने इसी दिव्य और अलौकिक गुण के कारण भारत विश्वगुरू रहा है। इसी गुण के कारण शेष संसार में भारत को आश्चर्य और कौतूहल भरी दृष्टि से देखा है।
संसार को मृत्यु मिटाती जा रही है और भारत मृत्यु पर विजय प्राप्त कर उसे परास्त करता जा रहा है। भारत वही है जो अमरत्व के प्रकाश (भा) में अर्थात आभा में रत रहता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण जी भारत की इसी आभामयी संस्कृति के व्याख्याकार प्रणेता और प्रचेता आप्तपुरूष हैं। वह भारत को अपने विश्वगुरू के पद से फिसलने देना नहीं चाहते, और इसी के लिए वह अर्जुन को युद्घ के लिए प्रेरित कर रहे हैं। अर्जुन को वह ‘भारत’ कहकर बुलाते हैं तो उसका अर्थ अर्जुन का ‘भरतवंशी’ होना तो है ही साथ ही यह भी है कि ”तू भारत है अर्थात अमरत्व की आभा में, प्रकाश में रत रहने वाला है। तू मृत्यु को देखकर भागे मत, अपितु इसका स्वागत कर और इसे बता कि संसार में अज्ञानान्धकार को फैलाने वाली शक्तियों का संहार जैसे तू करती है वैसे ही आज मैं भी करने को उद्यत हो रहा हूं। इन्हें मिटाकर मैं तेरा काम करूंगा और अपने ‘भारत’ होने का प्रमाण दूंगा।”
श्रीकृष्णजी पांचवें अध्याय में कह रहे हैं कि जिनका ज्ञान से अज्ञान नष्ट हो जाता है, उनका ज्ञान सूर्य के प्रकाश की भांति उस परमब्रह्म को प्रकाशित कर देता है।
अज्ञान को काटना है या नष्ट करना है तो वह ज्ञान से ही काटा जा सकेगा। ज्ञानपूर्वक यत्न करते रहने से अज्ञान का पाश कट जाएगा और जैसे ही अज्ञान कटेगा वैसे ही अहंकार आदि सांसारिक दोष भी हमसे दूर हो जाएंगे। इसके लिए अपनी बुद्घि को उस परमब्रह्म में रमाना पड़ता है। बुद्घि को ब्रह्मनिष्ठ बनाना पड़ता है। ऐसा होते ही पापों के प्रति बुद्घि दूरी बनाने लगती है। इसे गीताकार ने पापों का ज्ञान से धुल जाना कहा है। ऐसी अवस्था में साधक को अपने आप अपने आप ही दीखने लगते हैं। उन पर पड़ा अज्ञान का पर्दा हट जाता है। तब साधक पाप से बचने के लिए तड़प उठता है। इस तड़पन से वह और अधिक पाप करने से बचने लगता है। जब व्यक्ति पाप से बचने लगता है तो इसे ही ‘ईश्वरीय कृपा’ कहा जाता है।
कर्मयोगी के लक्षण
जब कोई व्यक्ति ब्रह्म में लीन हो जाता है, उसकी बुद्घि जब परमब्रह्म में रम जाती है, उसका अंत:करण परमब्रह्म मेें रंग जाता है, भीग जाता है अर्थात उसके अंत:करण में सर्वत्र उस प्यारे प्रभु का नूर अर्थात उसका दिव्य प्रकाश प्रकट हो जाता है-बिखर जाता है, तब वह ‘ब्रह्मनिष्ठ’ हो जाने के कारण पंडित हो जाता है। उसका सारा अज्ञान-अंधकार मिट जाता है। उसे सर्वत्र अपने परम ब्रह्म का ही नाद गुंजित होता हुआ, सुनाई देने लगता है। उसका अज्ञान मिट जाने से वह समदर्शी हो जाता है। वह सबको एक दृष्टि से देखने लगता है। वह ‘गाय’ हाथी, कुत्ता, चाण्डाल आदि कहकर उनमें अपनी बुद्घि को भ्रमित नहीं करता, अपितु उन सबमें वह एक ही आत्मा के दर्शन करता है। सोचता है कि जैसा आत्मा मुझमें है-वैसा ही इन सब में भी है। ऐसे समदर्शी महामानवों के विषय में श्रीकृष्णजी की मान्यता है कि वे इस संसार को जीत लेते हैं। अभिप्राय है कि वे संसार के वास्तविक विजेता बन जाते हैं।
संसार को जीतने की कितनी सरल रीति कृष्ण जी ने बता दी है। इसके लिए आज का संसार सिकन्दर, नैपोलियन, अलाउद्दीन खिलजी, और अकबर आदि तानाशाहों या बादशाहों को विश्व विजेता बनने का सपना देखने वाला कहकर उनका महिमामंडन करता है, पर वास्तव में ये तो किसी भी ढंग से या स्तर से ‘विश्व विजेता’ नहीं थे। हां, अपने इस सपने को साकार करने के लिए इन लोगों ने हजारों लाखों लोगों के प्राण अवश्य ले लिये। इसलिए ये संसार के लिए दानव तो कहे जा सकते हैं, पर इन्हें कभी भी देवता नहीं कहा जा सकता। संसार मानवता के हत्यारों को ‘विश्व विजेता’ मान रहा है और इसीलिए दु:खी है। क्योंकि इसी राह को पकडऩे वाले अगले ‘विश्व विजेता’ उत्पन्न होते जा रहे हैं। ये जितने भर भी आतंकी संगठन हैं-इनका लक्ष्य भी अपने मजहब को विश्व का मजहब बनाकर विश्व विजेता बनने का है। इधर भारत की गीता है जो कह रही है कि समदर्शी विद्वान ही वास्तविक विश्व विजेता हैं।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत