टिकाऊ विकास की उर्जा
रमेश सर्राफ धमोरा
भारत में हर साल चौदह दिसंबर को राष्ट्रीय ऊर्जा संरक्षण दिवस मनाया जाता है। भारत सरकार ने वर्ष 2001 में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम लागू किया था। इस अधिनियम में ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्रोतों को इस्तेमाल में लाने के लिए बड़े पैमाने पर तैयारी करना, पारंपरिक स्रोतों के संरक्षण के लिए नियम बनाना आदि शामिल था। भारत में राष्ट्रीय ऊर्जा संरक्षण दिवस मनाने का मकसद लोगों को ऊर्जा के महत्त्व के साथ ही ऊर्जा की बचत के प्रति भी जागरूक करना है। ऊर्जा संरक्षण का सही अर्थ है ऊर्जा के अनावश्यक उपयोग को कम करके ऊर्जा की बचत करना। कुशलता से ऊर्जा का उपयोग भविष्य में उपयोग की खातिर इसे बचाने के लिए बहुत जरूरी है। ऊर्जा संरक्षण की दिशा में अधिक प्रभावी परिणाम प्राप्त करने के लिए हर इंसान के व्यवहार में ऊर्जा संरक्षण की फिक्र निहित होनी चाहिए। ऊर्जा उपयोगकर्ताओं को ऊर्जा की खपत कम करने के लिए प्रोत्साहित करने के साथ ही कुशल ऊर्जा संरक्षण के लिए जागरूक करने के उद््देश्य से विभिन्न देशों की सरकारों ने ऊर्जा और कार्बन के उपयोग पर कर लगा रखे हैं।
देश के ऊर्जा स्रोतों को बनाए रखने के लिए भारत की संसद द्वारा पारित ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001 ऊर्जा दक्षता ब्यूरो द्वारा लागू किया गया है, जो भारत सरकार का एक स्वायत्तशासी निकाय है। यह अधिनियम पेशेवर, योग्य ऊर्जा लेखापरीक्षकों तथा ऊर्जा प्रबंधन, वित्त-व्यवस्था, परियोजना प्रबंधन और कार्यान्वयन में कुशल प्रबंधकों का एक कैडर बनाने का निर्देश देता है। ऊर्जा संरक्षण में ऊर्जा के कम या न्यूनतम उपयोग पर जोर दिया जाता है और इसके अत्यधिक या लापरवाही-भरे उपयोगों से बचने के लिए कहा जाता है। दूसरे शब्दों में ऊर्जा दक्षता का अभिप्राय समान परिणाम प्राप्त करने के लिए कम ऊर्जा खर्च करना है।
भारत एक ऐसा देश है जहां पूरे साल सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा का इस्तेमाल किया जा सकता है। भारत में साल भर में लगभग तीन सौ दिन तेज धूप खिली रहती है। भारत भाग्यशाली है कि सौर ऊर्जा के लिए खिली धूप, उपलब्ध भूमि, परमाणु ऊर्जा के लिए थोरियम का अथाह भंडार तथा पवन ऊर्जा के लिए लंबा समुद्री किनारा उसके पास नैसर्गिक संसाधन के तौर पर उपलब्ध हैं। जरूरत है तो बस उपयुक्त प्रौद्योगिकी का विकास करने तथा ऊर्जा के अक्षय संसाधनों के दोहन की। अपने देश में ऊर्जा की मांग और आपूर्ति में बहुत बड़ा अंतर है। बिजली कम मिलने की शिकायत देश के लगभग हर हिस्से में सुनाई देती है। लिहाजा, बिजली का उत्पादन बढ़ाना जरूरी है। पर अब उत्पादन बढ़ाना ही लक्ष्य नहीं हो सकता। हमें यह भी देखना होगा कि बिजली उत्पादन में सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा का हिस्सा किस तरह लगातार बढ़ाया जाए। ये ऊर्जा के अक्षय स्रोत तो हैं ही, इनसे मिलने वाली ऊर्जा बिना प्रदूषण के मिलती है। इसकी तकनीकी लागत थोड़ी अधिक हो सकती है, लेकिन पर्यावरण के मद्देनजर हमें यह लागत चुकाने को तैयार रहना चाहिए। फिर, निरंतर इस दिशा में हो रहे शोध यह भरोसा दिलाते हैं कि गैर-पारंपरिक ऊर्जा सर्वसुलभ होने के साथ ही एक दिन किफायती भी हो सकती है। यह ऐसी ऊर्जा है जिसे छोटी से छोटी इकाई से हासिल किया जा सकता है और जिसमें आम लोग भी अपनी भूमिका निभा सकते हैं। फिर, यह ऊर्जा उत्पादन की ऐसी विधि है जिसमें किसी भी स्तर पर दुर्घटना के अंदेशे नहीं होते।
तरक्की का रास्ता ऊर्जा से ही होकर जाता है। अब वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर गंभीरता से विचार करते हुए ऊर्जा बचत के हरसंभव उपाय अपनाने पड़ेंगे। इस मायने में सूर्य की किरणों से प्राप्त होने वाली ऊर्जा अत्यंत महत्त्वपूर्ण विकल्प है। सौर ऊर्जा प्रदूषण-रहित, निर्बाध गति से मिलने वाला सबसे सुरक्षित ऊर्जा स्रोत है। अपने देश में यह लगभग बारहो मास उपलब्ध है। विडंबना यह है कि सौर ऊर्जा के लिए हमारे देश में अनुकूल स्थितियां होने के बावजूद इसके तकनीकी विकास आदि के मामले में वे देश आगे रहे हैं जहां धूप कम मिलती है।
लेकिन अब हम हवा और सूरज जैसे अक्षय स्रोतों से बिजली का उत्पादन बढ़ाने के अनिवार्य तकाजे की कतई अनदेखी नहीं कर सकते, क्योंकि भारत के शहरों में वायु प्रदूषण दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है और अब इस हद तक पहुंच गया है कि इसकी वजह से स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो रही हैं। इसके कारण जीवन प्रत्याशा भी घट सकती है। नन्हे बच्चों का मस्तिष्क वायु प्रदूषण की वजह से अविकसित रह जा सकता है। बुजुर्गों के लिए तो हर तरह से मुसीबत है। पर्यावरण-रक्षा आज का सबसे बड़ा युगधर्म है। आज इससे कोई भी व्यक्ति कन्नी नहीं काट सकता।
पर समस्या यह है कि हमें पर्यावरण संरक्षण और विकास के बीच द्वंद्व दिखाई देता है, और हम हर बार विकास के नाम पर पर्यावरण की बलि चढ़ाते रहे हैं। लेकिन अब जो हालात हैं उनमें यह चल नहीं सकता। इसलिए विकास की परिभाषा, विकास का मॉडल और विकास की नीति बदलनी होगी। काफी समय तक पश्चिमी दुनिया में ऊर्जा की प्रतिव्यक्ति खपत को किसी देश के विकास का पैमाना माना जाता रहा। पर अब वह मापदंड अप्रासंगिक ही नहीं, घातक भी हो चुका है। हमें टिकाऊ विकास की अवधारणा को व्यापक रूप से अपनाना होगा। इस अवधारणा में ऐसे विकास को स्वीकार्य माना जाता है जो पारिस्थितिकी को और प्राकृतिक संसाधनों को भावी पीढिय़ों के लिए बचाए रखे। भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में स्वाभाविक ही ऊर्जा की मांग भी विशाल है। पर इस मांग को तर्कसंगत बनाना होगा। ऊर्जा के विलासितापूर्ण इस्तेमाल पर रोक लगनी चाहिए। बिजली की कमी की सबसे बड़ी वजह शायद यही है कि देश की आबादी का एक छोटा-सा हिस्सा बिजली की विलासितापूर्ण खपत करता है। महात्मा गांधी कहते थे कि धरती मानव जाति की सारी जरूरतों को पूरा कर सकती है, पर एक व्यक्ति के भी लालच को पूरा नहीं कर सकती। गांधीजी का कथन टिकाऊ विकास की भी कुंजी है और वैकल्पिक ऊर्जा नीति की भी।
आज हम ऊर्जा के जिन स्रोतों का इस्तेमाल कर रहे हैं वे दरअसल हमारे पूर्वजों द्वारा हमें दिए गए उपहार नहीं बल्कि आने वाले कल से हमारे द्वारा मांगा गया उधार है। जिस तेजी के साथ हम प्राकृतिक स्रोतों का हनन कर रहे हैं उस रफ्तार से आज से चालीस साल बाद हो सकता है हमारे पास तेल और पानी के बड़े भंडार खत्म हो जाएं। उस स्थिति में हमें ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्रोतों यानी सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा पर निर्भर होना पड़ेगा ही। तो क्यों न हम इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाएं। ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्रोतों को इस्तेमाल करना थोड़ा मुश्किल है, पर इस क्षेत्र में कार्य निरंतर प्रगति पर है। इस दिशा में दुनिया भर में वैज्ञानिक शोध चल रहे हैं, क्योंकि जलवायु संकट से सारी दुनिया चिंतित है।
अगर हमने अभी से ऊर्जा संरक्षण की परवाह नहीं की, तो हालात बहुत बुरे हो सकते हैं। आज विश्व का हर देश कागजी स्तर पर तो ऊर्जा संरक्षण की बड़ी-बड़ी बातें करता है लेकिन यही देश अकसर ऊर्जा की बर्बादी में आगे नजर आते हैं। दूसरी तरफ वैश्विक जलवायु सम्मेलनों में पर्यावरण संरक्षण के संकल्प लेने और घोषणापत्र जारी करने में कभी पीछे नहीं रहते। उनकी बातों और व्यवहार के बीच गहरी खाई है, जिसे पाटे बिना पर्यावरण को नहीं बचाया जा सकता।