मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 2( क) 24 युद्धों का विजेता : रावल खुमाण सिंह

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24 युद्धों का विजेता : रावल खुमाण सिंह

बप्पा रावल ने शौर्य और साहस के साथ मां भारती की सेवा करते हुए और अपने राष्ट्रभक्ति पूर्ण कार्यों का कीर्तिमान स्थापित किया था। बप्पा रावल ने ऐसा करके मानो आने वाले भविष्य का आगाज दे दिया था। उसके परिश्रम और पुरुषार्थ का ही परिणाम था कि इस शौर्य संपन्न राजवंश में एक से बढ़कर एक हीरा आगे चलकर हमें प्राप्त होता रहा। जिन्होंने अपने अपने समय में देश की अप्रतिम सेवा की। वास्तव में जैसा बीज होता है वैसा ही पेड़ बनता है। कहा भी जाता है कि जैसा बोओगे वैसा काटोगे।

जैसा डाला बीज है, वैसा ही फल होय।
करनी का फल ही मिलै, टाल सके ना कोय।।

बप्पा रावल यदि महाराणा वंश का मूल बीज था तो उस बीज से वैसे ही वृक्ष का निर्माण होना स्वाभाविक था। वास्तव में महाराणा वंश के लिए बप्पा रावल क्रांतिवीर था। जिसने सदियों के लिए क्रांति के फल देने वाला वृक्ष बनकर देश की सेवा की। जैसे जौहरी को हीरे की परख होती है, वैसे ही अनुभवी, पारखी और देशभक्त लोगों को क्रांति बीज की परख होती है। जो फल को देखकर उसके मूल को पहचान लेते हैं। जितनी ऊंची साधना होती है उतना ही ऊंचा व्यक्तित्व बनता है और जितना ऊंचा व्यक्तित्व बनता है उसका उतना ही व्यापक प्रभाव होता है।  यह रामचंद्र जी की साधना है कि वे युगों के गुजर जाने के उपरांत भी आज तक हमारे आदर्श बने हुए हैं। बस , यही बात हमें बप्पा रावल जैसे लोगों के बारे में समझनी चाहिए कि उनकी भी साधना ऊंची ही थी, जिसके कारण सदियों तक उनके वंश वृक्ष से देशभक्ति के फल हमें मिलते रहे।

रावल खुमाण

इतिहासकारों की मान्यता है कि 753 ई0 के लगभग बप्पा रावल ने संन्यास ग्रहण कर लिया था। उनके उपरांत इस राजवंश के शासन की बागडोर एक बहुत ही प्रतापी शासक रावल खुमाण के हाथों में आई। इतिहासकारों को रावल खुमाण के बारे में कोई स्पष्ट उल्लेख किसी प्रकार का नहीं मिलता । ना ही किसी स्थान से उनके शासन काल के सिक्के या कोई शिलालेख  प्रमाण के रूप में मिले हैं। इनके बारे में 'खुमाण रासो' नाम का एक ग्रंथ अवश्य मिलता है। उसमें भी तीन खुमाण राजाओं के बारे में उल्लेख किया गया है। जिससे इतिहासकारों के सामने पुनः यह समस्या खड़ी हो जाती है कि इस पुस्तक का लेखक कौन से खुमाण की बात कर रहा है ?

‘खुमाण रासो’ के लेखक का नाम दलपति विजय है। इस बात से असहमति व्यक्त करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है कि शिवसिंह सरोज के कथनानुसार एक अज्ञात नामा भाट ने ‘खुमाण रासो’ नामक ग्रंथ लिखा था।
हमारा मानना है कि जब सब इस बात पर सहमत हैं कि बप्पा रावल के पश्चात देश के महानायक के रूप में रावल खुमाण सामने आए तो हमें उन्हीं की महानता और देशभक्ति पर अपने आप को केंद्रित करना चाहिए। हमें इतने से ही संतोष कर लेना चाहिए कि जब हमारे पास में एक नायक है तो अपने उस नायक के विषय में अधिक से अधिक जानकारी हम अपनी युवा पीढ़ी को दें। यह तब और भी आवश्यक है कि जब अपने ऐसे महानायकों के इतिहास को सम्मानित करना समय की आवश्यकता हो चुकी है।
मेवाड़ के महाराणा परिवार में एकलिंग जी की पूजा पर विशेष बल दिया गया है। एकलिंग महात्म्य में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो इस राजवंश के बारे में प्रमाणिक माना जा सकता है। इस ग्रंथ के अवलोकन से पता चलता है कि बप्पा रावल का संन्यास 753 ई0 में ही हुआ । बप्पा रावल ने जब सन्यास लिया होगा तो उस समय उन्होंने यह भी अच्छी प्रकार समझ व परख लिया होगा कि उनका उत्तराधिकारी उन सभी गुणों से विभूषित है या नहीं जो इस समय देश के लिए आवश्यक हैं ? ऐसे में ‘खुमाण रासो’ का लेखक कौन से रावल खुमाण की ओर संकेत कर रहा है ? यह रहस्य अपने आप सुलझ जाता है। विशेष रुप से तब जब हम यह देखते हैं कि बप्पा रावल के पश्चात रावल खुमाण ने बप्पा रावल की परंपरा को और उनकी विजय पताका को झुकने नहीं दिया था।

रावल खुमाण के बारे में कर्नल टॉड का मत

कर्नल टॉड के वर्णन से हमको पता चलता है कि काल भोज के पीछे खुम्माण नामक शासक राजसिंहासन पर बैठा। कर्नल टॉड ने यह भी लिखा है कि इस शासक का नाम मेवाड़ के इतिहास में बड़ा प्रसिद्ध है। इसके समय में बगदाद के खलीफा अलमामून ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की थी। यह आक्रमण बड़ा भयंकर था। निश्चित रूप से यह आक्रमण भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा को नष्ट करने और भारत का इस्लामीकरण करने के लिए किया गया था। लूट, हत्या, डकैती, बलात्कार सभी कुछ इस आक्रमण के एक आवश्यक भाग थे। यदि इस प्रकार की मानसिकता से ग्रसित होकर यह आक्रमण तत्कालीन खलीफा ने किया था तो हमें इसके संदर्भ में यह भी समझ लेना चाहिए कि मां भारती का सच्चा सेवक रावल खुम्माण इस आक्रमण का प्रतिशोध करने के लिए पूरी तैयारी के साथ सीना तान कर खड़ा था।
बस, यही वह बात है जो हमें अपने इतिहास के इस महानायक के प्रति सम्मान भाव से भरती है। अत्यंत विषम परिस्थितियों में विदेशी आक्रमणकारी को सबक सिखाने के लिए तैयार रहना और देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर देना भारत के वीर नायकों की परंपरा रही है। उसी परंपरा के निर्वाह के लिए खुमाण ने अपने आप को उस समय समर्पित किया। जिससे देश की संस्कृति और धर्म की रक्षा हो पाना संभव हुआ।
वास्तव में रावल खुम्माण जैसे महावीर हमारी इतिहास परंपरा के ज्योति स्तंभ हैं। इन ज्योति एस स्तम्भों से देश की आने वाली पीढ़ियां ऊर्जा लेती रहेंगी। इतिहास का लोकपथ जिन बीहड़ जंगलों से निकलता हुआ आया है, उस पर अनेक प्रकार के संकट समय-समय पर आए हैं। उन संकटों के बीच इन ज्योति स्तंभों ने ही हमें मार्ग दिखाया है, हमारा मार्ग प्रशस्त किया है।

विदेशी हमलावर और रावल खुमाण

   जब खुम्माण पर विदेशी क्रूर हमलावर खलीफा की विशाल सेना ने आक्रमण किया तो रावल तनिक भी विचलित नहीं हुए। उनके भीतर निडरता, निर्भीकता और देशभक्ति की त्रिवेणी बहती थी। उन्होंने एक शूरवीर देशभक्त की भांति उस हमला का सामना किया। हमारे देश में जिस फूट का रोना रोया जाता है कि एक राजा पिट रहा था तो दूसरे ने उसकी सहायता नहीं की, इस भ्रांति को हमने एक बार नहीं अनेक बार तोड़ने का प्रशंसनीय कार्य किया है। 

उस समय भी इस विदेशी आक्रमणकारी के विरुद्ध मेवाड़ के महानायक को अपनी सहायता देकर अनेक राजाओं ने राष्ट्रभक्ति पूर्ण कार्य किया। उन्होंने यह दिखाया कि अपने पूर्वाग्रह या राजनीतिक मतभेद हमारे लिए बाद में हैं ,देश हमारे लिए पहले है। राष्ट्र प्रथम का यह पवित्र भाग ही हमें प्रत्येक विदेशी हमलावर के विरुद्ध एक होकर काम करने के लिए प्रेरित करता रहा। माना कि कई बार ऐसे अवसर भी आए जब हमारी शक्ति बिखर गई पर इसे राष्ट्रीय भावनाओं की कमी न समझ कर राजनीति का दुर्गुण मानना चाहिए, जिसमें निहित स्वार्थ कभी-कभी व्यक्ति के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाते हैं।
जब भारत की इस राष्ट्रीय सेना ने विदेशी आक्रमणकारी का मिलकर सामना किया तो परिणाम भी वैसे ही आए जैसी अपेक्षा थी अर्थात उस समय हम अपने देश के सम्मान की रक्षा करने में सफल हुए और विदेशी हमलावर चित्तौड़ का बाल भी बांका नहीं कर पाया। दलपत विजय नामक कवि के द्वारा लिखे गए इस वर्णन से हमें अपने तत्कालीन नेतृत्व पर निश्चय ही गर्व करना चाहिए। इतिहासकारों में इस ग्रंथ के आधार पर घटनाओं की तिथियों के निर्धारण को लेकर मतभेद है। इसका कारण यह है कि यह ग्रंथ बहुत बाद में लिखा गया है।
इसमें खुम्माण नामक तीन राजाओं का वर्णन किया गया है। अतः कई बार स्पष्ट नहीं हो पाता है कि ग्रंथ का लेखक कौन से खुम्माण के बारे में बात कह रहा है ?

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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