गीता का पांचवां अध्याय और विश्व समाज
ये चारों बातें कर्मयोगियों के भीतर मिलनी अनिवार्य हैं। यदि कोई व्यक्ति द्वैधबुद्घि का है, अर्थात द्वन्द्वों में फंस हुआ है तो वह हानि-लाभ, सुख-दु:ख, यश-अपयश आदि के द्वैध भाव से ऊपर उठ ही नहीं पाएगा। वह इन्हीं में फंसा रहेगा और इन्हीं में फंसा रहकर जीवन पार कर जाएगा। उसके भीतर यह भाव आ ही नहीं सकता कि सब भूत अर्थात वाणी आत्मवत हैं। मेरे ही जैसे हैं। वह ‘मैं और तू’ के चक्कर में पड़ा रहेगा। वह शरीरों की सत्ता मानेगा और इस प्रकार जो नाशवान है उसी को पूजनीय मानता रहेगा। इसलिए उसके पाप कभी क्षीण नहीं हो पाएंगे। ना ही वह अपने आप को कभी संयम में ढाल सकेगा-उसका तप कभी ऊंची साधना के योग्य नहीं बन सकता, और अन्त में वह प्राणियों के हित में रत भी नहीं हो पाएगा।
कृष्ण जी के अनुसार यति विदितात्मा को कहा जाता है। विदितात्मा अर्थात जिसने आत्मा को जान लिया हो। जो ‘काम’ और ‘क्रोध’ से रहित हो गये हैं। जब कोई साधक अपनी प्राणोपासना करता है तो उसे विद्वान लोग सर्वप्रथम नासिका से चल रहे श्वांस-प्रश्वांस को देखते रहने या अनुभव करते रहने का अभ्यास कराते हैं। इससे धीरे-धीरे अपने मन रूपी बिगडै़ल घोड़े को नियंत्रण में लेने में सफल हो जाते हैं।
भारत की यह प्राचीन योग प्रणाली है, योग की प्रथम सीढ़ी है। पर जो इस सीढ़ी पर मजबूती से कदम रखकर आगे बढऩे में सफल हो जाता है-उसे सफलता मिलना असंदिग्ध हो जाती है। आज के विश्व के लोगों की समस्या ये है कि इनके श्वासों की गति बिगड़ी पड़ी है। अत: हृदय रोगों से लोग अधिक मर रहे हैं। सारे संसार के लोग हृदय रोगों के शिकार हैं। अधिकांश लोग अपने श्वांस-प्रश्वास पर ध्यान ही नहीं देते। जिससे उनका शारीरिक स्वास्थ्य भी खराब हो रहा है। उन्हें नहीं पता कि श्वास और ग्रास का मानव जीवन और स्वास्थ्य से गहरा सम्बन्ध है। आयु भी श्वांस और ग्रास को शुद्घ बना लेने से बढ़ायी जा सकती है, यही कारण है कि भारत की चिकित्सा पद्घति आयुर्वेद में श्वांस और ग्रास की शुद्घता व पवित्रता पर विशेष बल दिया गया है।
श्वास ग्रास की शुद्घता जो मानव अपनाय।
स्वस्थ रहै आयु बढ़ै जीवन सफल हो जाय।।
योगेश्वर श्री कृष्ण जी भी भारत की इसी प्राचीन योग प्रणाली की ओर संकेत करते हुए कह रहे हैं कि पार्थ! बाह्य विषयों के स्पर्श को बाहर करके, दृष्टि को भौहों (भृकुटि) के बीच में जमाकर अर्थात वहां टिकाकर नासिका में से आ जा रहे प्राण और अपान को समान करके अर्थात उनकी अस्त-व्यस्त हुई गति को ठीक करके, व्यवस्थित करके, इन्द्रियों और अपने मन व बुद्घि को वश में करने वाला व्यक्ति मोक्ष पाने के लिए कटिबद्घ, इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित जो मुनि है-वह सदा ही मुक्त है।
जो मन को मारने लगे-वह मुनि है। जो मन पर धीरे-धीरे इसे पुचकारते हुए अपना आधिपत्य जमाने लगे-वह मुनि है। ऐसे मुनि लोगों का मन से नित्यप्रति प्रेमपूर्ण वात्र्तालाप होता है। वे इससे मन भरकर बतियाते हैं। धीरे-धीरे उन्हें ऐसा अभ्यास हो जाता है कि उनका मन उनके सामने हथियार फेंक देता है। जो मन कभी चौबीसों घंटे थकता ही नहीं था, और जो उनसे चौबीसों घंटे उल्टे सीधे काम कराता रहता था-वही मानव उनके सामने सींग तोडक़र बैठने लगता है। इस अवस्था को पाकर हमारे मुनि लोग इतराते नहीं थे-ना ही किसी प्रकार के घमंड में आते थे। इसके विपरीत वे लोग अत्यन्त विनम्र होते जाते थे। क्योंकि वे जानते थे कि मन को अनुशासित करने पर यदि किसी प्रकार का अहंकार किया तो यह पुन: अनियंत्रित होकर उछल पड़ेगा। वे जानते हैं कि इस प्रकार दुबारा उछले हुए अनियंत्रित मन को पुन: नियंत्रित करना असम्भव हो जाएगा। अत: उचित यही है कि जब यह शान्त होने लगे तो व्यक्ति स्वयं भी इसके साथ शान्त और निभ्रान्त होने लगे। इसे धीरे-धीरे अभ्यास से ही मारा जा सकता है।
इसी अभ्यास की ओर श्रीकृष्णजी यहां संकेत कर रहे हैं। यह अभ्यास आज के रोगी संसार के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्घ हो सकता है। आज का विश्व भारत में आयी योग क्रान्ति को बड़े कौतूहल से देख रहा है। उसने इसे अपनाया है तो लोगों को आशातीत सफलता भी मिली। फलस्वरूप भारत के योग के प्रति संसार के लोगों में आशातीत झुकाव देखा जा रहा है। यही कारण है कि देखते ही देखते भारत का योग विश्व के लगभग दो सौ देशों के द्वारा अपना लिया गया है। एक प्रकार से यह योग क्रांति कृष्ण के गीता उपदेश की क्रांति है, जो सारे विश्व को निरोग बनाकर और उसे कर्मयोग के निष्काम भाव से जोडक़र देवताओं की पुरी (वसुधैव कुटुम्बकम्) बना देना चाहती है।
इस अध्याय के अन्तिम श्लोक में श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि जो मेरे (ईश्वर) विषय में यह जानता है कि मैं यज्ञ हूं और तप का भोक्ता हूं, सब लोकों का हूं, सब प्राणियों का सुहृदय हूं-वह ऐसा महेश्वर जानकर शान्ति को प्राप्त होता है।
प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग
संसार के विषयों की ओर आकर्षण को गीताकार ने प्रवृत्ति मार्ग कहा है, और परमात्मा की ओर आकर्षण को निवृत्ति मार्ग कहा है। इस विषय पर प्रकाश डालते हुए सत्यव्रत सिद्घान्तलंकार जी लिखते हैं-”प्रवृत्ति मार्ग को कर्मयोग तथा निवृत्ति मार्ग को ‘कर्म त्याग योग’ कह सकते हैं। इस प्रकरण में योग का अर्थ है मार्ग, रास्ता। गीता में प्रवृत्तिमार्ग (कर्म) तथा निवृत्तिमार्ग (त्याग संन्यास) के लिए दूसरे शब्द हैं ‘योग’ तथा सांख्य प्रवृत्ति मार्ग तथा योग का एक ही अर्थ है-निवृत्तिमार्ग। सांख्य का भी एक ही अर्थ है, इस प्रकरण में योग का अर्थ कर्मयोग हो जाता है। गीता में सांख्य के लिए ‘संन्यास’ ज्ञानमार्ग तथा योगमार्ग के लिए कर्ममार्ग या कर्मसंन्यासमार्ग का भी प्रयोग किया गया है।
……’ज्ञान’ तथा कर्म सांख्य तथा योग ये दोनों मार्ग एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं, जिस किसी मार्ग से भी हम चलें ठीक लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। परन्तु इन दोनों में ज्ञान मार्ग कठिन है। कर्म मार्ग सरल है, हम सब के व्यवहार में आ सकता है। परन्तु कौन सा कर्म मार्ग? मीमांसकों का कर्म काण्ड नहीं, परन्तु ऐसा कर्म मार्ग जिस पर संन्यास की, ज्ञान की, अकर्म की छाप लगी हो।”
कृष्णजी अर्जुन को संकेत कर रहे हैं कि संसार के यज्ञ को ज्ञानयोग से ही चलाया जा सकता है। जो राक्षस प्रवृत्ति के लोग संसार यज्ञ में विघ्न डालते हैं-यदि उनका अन्त हो जाए तो संसार का ज्ञानयोग रचाने वाले द्विजों की पंडितों और ज्ञानी महात्माओं की रक्षा अपने आप हो जाएगी। ऐसे में तुझे दुर्योधन और उसका साथ देने वाले लोगों का अन्त करने के लिए हथियार उठा लेने ही चाहिएं। क्योंकि ये लोग इस समय संसार के भद्र पुरूषों के ज्ञानयोग को सुचारू रूप से चलने देने में बाधक बन रहे हैं। जिससे संसार की गति बाधित हो रही है। भद्रपुरूषों के उद्घार और दुष्ट पुरूषों के विनाश का सन्देश गीता का शाश्वत सन्देश है। जिस पर हम पूर्व में भी यथास्थान प्रकाश डाल चुके हैं।
क्रमश: