@ कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार
सरल और टिकाऊ विकास के लिए ‘ग्लोबल साउथ’ का वैश्विक एजेंडा क्या होना चाहिए, इस पर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी काफी गम्भीर दिखाई देते हैं और वे चाहते हैं कि तीसरी दुनिया के विकासशील देश भी उनके साथ कदमताल भरें। वैसे तो विकसित देशों के सामने वो अक्सर विकासशील देशों से जुड़े विभिन्न मुद्दों को वो उठाते आए हैं। लेकिन हाल ही में ‘वायस ऑफ ग्लोबल साउथ शिखर सम्मेलन’ को संबोधित करते हुए उन्होंने तीसरी दुनिया के जिन कुछ साझा चिंताओं को प्रकट किया और यह कहा कि अगर हम साथ मिलकर काम करते हैं तो वैश्विक एजेंडा तय कर सकते हैं, उनका दूरगामी महत्व है।
देखा जाए तो प्रधानमंत्री मोदी के इस कथन के गम्भीर मायने हैं, जिन्हें समय रहते ही तीसरी दुनिया के विकासशील देश यदि समझ गए तो 21 वीं सदी में उनकी वैश्विक भूमिका एकदम से बदल जाएगी। सच कहा जाए तो 21 वीं सदी उनकी अपनी होगी। कहना न होगा कि जिस तरह से संयुक्त राष्ट्र संघ, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसी वैश्विक संस्थाओं और जी-7, जी-20 जैसे अहम वैश्विक संगठनों द्वारा अबतक विकासशील यानी तीसरी दुनिया के देशों की उपेक्षा की जाती है, उससे इन देशों में धन, शिक्षा, स्वास्थ्य, ऊर्जा, भोजन, काम-धंधों, परिवहन के साधनों आदि की भारी किल्लत है, जिसे दूर किये जाने की जरूरत है। यह तभी सम्भव होगा, जब नीतिगत भेद-मतभेद दूर किये जाएंगे।
कमोबेश आज दुनिया जिस तरह से अमेरिका और रूस के खेमे में बंटी हुई है और दोनों एक-दूसरे को बर्बाद करने पर उतारू हैं, वह सबके लिए चिंताजनक है। तीसरी दुनिया के देशों के लिए तो और भी अधिक। वहीं, भारत को भी अपने पाले में करने के लिए पश्चिमी देशों के द्वारा जो तिकड़में लगाई जा रही हैं, उससे देर-सबेर तीसरी दुनिया के देशों के आम हित भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। इसलिए ग्लोबल साउथ के सभी देश मिलकर यदि भारत के नेतृत्व में अपने सामूहिक हित की भाषा बोलने लगे तो देर सबेर उन सबका भला हो जाएगा।
देखा जाए तो दुनिया की अहम समस्याओं के पीछे विकसित देशों की स्पष्ट भूमिका है, लेकिन इसकी कीमत हमेशा से ही विकासशील देश चुकाते आये हैं। ग्लोबल वर्मिंग, पर्यावरण प्रदूषण, जल संकट, आतंकवाद आदि ने विकासशील देशों का जीना मुहाल कर रखा है। इसलिए अब इस स्थिति को बदलना होगा। भारत इसके लिए तीसरी दुनिया के देशों को नेतृत्व देने के लिए खुद को तैयार कर चुका है। अब सभी देशों का वह साथ पाना चाहता है, ताकि सबकी जरूरतें पूरी होती रहें और ग्लोबल सप्लाई चेन बना रहे। इसलिए इसे समझना और समझाना दोनों बहुत जरूरी है।
दरअसल, समकालीन वैश्विक परिस्थितियों में दुनियावी मंचों पर भारत जिस तरह से विकासशील देशों यानी तीसरी दुनिया के देशों के अहम मुद्दों यानी खाद्यान्न आपूर्ति और ऊर्जा जरूरतों आदि को स्वर देता आया है, उससे इन देशों में सरल और टिकाऊ विकास को लेकर कुछ नई उम्मीदें भी जगी हैं। गत दिनों ‘वायस ऑफ ग्लोबल साउथ शिखर सम्मेलन’ को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो कुछ भी महत्वपूर्ण बातें कही है, उसके गहरे निहितार्थ हैं। मसलन, दुनिया के संकट को रेखांकित करते हुए और फिर उसके सर्वमान्य समाधान को लेकर पीएम मोदी ने जो खरी-खरी बातें कही हैं, उससे साफ है कि यदि ग्लोबल साउथ के देशों में सरल और टिकाऊ विकास पर जोर दिया जाए तो ग्लोबल नार्थ के देशों की मंदी भी दूर हो सकती है, जिसके लिए वो लोग काफी चिंतित नजर आते हैं।
सही कहते हैं कि नेता वही होता है जो कमजोरों की आवाज को बुलंद करता है। इस लिहाज से देखें तो विभिन्न वैश्विक मंचों पर तीसरी दुनिया के देशों के हकहुक़ूक़ के सवाल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह से मुखर होकर बोलते रहते हैं, उससे स्पष्ट है कि वो भी इनके एकछत्र नेता बन चुके हैं, जिससे निकट भविष्य में भारत को काफी रणनीतिक लाभ मिलने की उम्मीद है। गाहे-बगाहे यानी विभिन्न मौकों पर जिस तरह से वो विकासशील देशों, खासकर तीसरी दुनिया के देशों के समग्र हितों की वकालत करते दिखते हैं, उससे स्पष्ट है कि इन देशों को भी भारत के रूप में एक अच्छा और सच्चा रहनुमा मिल चुका है।
तीसरी दुनिया के देशों की पीड़ा को स्वर देते हुए पीएम मोदी जब यह कहते हैं कि “यह वर्ष नई उम्मीदें और नई ऊर्जा लेकर आया है। हमने पिछले वर्ष के पन्नों को पलटा है, जिसमें युद्ध, संघर्ष, आतंकवाद और भू-राजनीतिक तनाव को देखा। खाद्य, ईंधन और उर्वरकों की बढ़ती कीमतें, कोविड-19 वैश्विक महामारी के दूरगामी आर्थिक प्रभावों के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन से उतपन्न आपदाएं भी देखी, जो अब सबकी चिंता का सबब बन चुकी हैं। इसलिए इनसे पार पाने के लिए सरल और टिकाऊ विकास आवश्यक है।”, तो एक नई उम्मीद जगती है।
आगे पीएम मोदी जब यह कहते हैं कि “स्पष्ट है कि दुनिया संकट की स्थिति में है। एक तिहाई आबादी का भविष्य दांव पर है। इसलिए बेहतर विश्व के लिए खाद्य, ईंधन की कीमतें, काबू करनी होंगी।” तो एक उम्मीद जगती है कि कोई तो है जो उनके दुःख-दर्ज को समझ रहा है
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