गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज
गीता का छठा अध्याय
कर्म के विषय में महर्षि दयानन्द जी महाराज ने ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’ में लिखा है-
”जो मन, इन्द्रिय और शरीर में जीव चेष्टा करता है वह कर्म कहाता है। शुभ, अशुभ और मिश्रित भेद से तीन प्रकार का है।”
कर्म के विषय में वैदिक सिद्घान्त यह है कि हर व्यक्ति को या प्राणधारी को उसका कर्मफल उसे जाति, आयु और भोग के रूप में प्राप्त होता है। इसे ऐसे कहा जा सकता है व्यक्ति को जाति, आयु और भोग उसके पूर्व कर्मों के आधार पर ही मिलते हैं। कर्म के विषय में वैदिक संस्कृति का यह पहला सिद्घान्त है। दूसरा है कि प्रत्येक जीव कर्म करने में स्वतंत्र है। वह जैसा चाहे कर्म कर सकता है, पर फल पाने में वह परतंत्र है। अर्थात फल को वह जैसा चाहे वैसा नहीं पा सकता। यदि जीव फल पाने में भी स्वतंत्र हो जाएगा तो फिर ईश्वरीय व्यवस्था भंग हो जाएगी तब न तो कोई ईश्वर होगा और न ईश्वरीय व्यवस्था होगी। तब सर्वत्र अराजकता होगी। अराजकता होने से सृष्टि क्रम आगे चल ही नहीं सकता। जिन घरों में वृद्घजनों की बात को टालने और काटने या न मानने की प्रवृत्ति लोगों में आ जाती है-उन घरों का विनाश हो जाता है।
तीसरा सिद्घांत है कि परमात्मा अपने आप में सर्वशक्तिमान सत्ता है और वह जीवों को उनका कर्मफल प्रदान करने में किसी की सहायता नहीं लेता। यदि ईश्वर को जीवों के कर्मफल प्रदान करने में किसी के सहाय की आवश्यकता पड़ेगी तो उसके न्याय में वैसे ही दलाल और बिचौलिये घुस जाएंगे जैसे कि सांसारिक न्यायाधीशों से न्याय खरीदवाने में दलाल या बिचौलिये घुस जाते हैं। संसार के न्यायाधीश दलालों और बिचौलियों से बिक सकते हैं पर ईश्वर किसी दलाल या बिचौलिए से काम नही लेता।
दलाल बिचौलिया ना मिलें ऐसा न्यायाधीश।
सर्वत्र उसी का राज है ये कहते धर्माधीश।।
अत: ईश्वर से न्याय दिलाने के लिए या लोगों को उसकी कृपा का पात्र बनाने के लिए संसार में जितने ढोंगी बाबा, पंडे-पुजारी, मुल्ले, मौलवी अपनी-अपनी दुकानें खोले बैठे हैं-वे सब झूठी हैं। ये सारी दुकानें दुनिया के बाजार की चीजें हैं, परमेश्वर के बाजार में इनका कोई मोल नहीं है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि उस परमपिता परमेश्वर के दरबार में ऐसे किसी दुकानदार या तथाकथित धर्माधीश या मठाधीश की आवश्यकता उस परम न्यायकारी को न्याय करने के लिए नहीं पड़ती।
चौथा सिद्घांत है कि जीवों को कर्मफल प्रदान करने में ईश्वर उनके कर्मों को ही आधार बनाता है। वह कोई राग-द्वेष नही पालता। जीवों के कर्मों के अनुसार ही कर्मफल देता है, उसमें रंचमात्र भी न्यूनता या अधिकता नहीं होती। जीव द्वारा किये गये सभी शुभ या अशुभ कर्मों का फल उसे स्वयं को ही भोगना पड़ता है, उसके स्थान पर किसी अन्य को वह फल भोगना पड़ जाए-यह संभव नहीं है। ना ही किसी एक अपराधी के स्थान पर किसी दूसरे को बलात् फंसवाकर जेल में डालने की चेष्टा उसके दरबार में किसी की चल सकती है। ऐसे ओच्छे कार्यों को हम इस संसार के न्यायालयों में अक्सर होते देखते हैं कि वास्तविक दोषी को दंडित न करके उसके स्थान पर किसी अन्य को दंडित कर दिया जाता है। यह सारा खेल इस संसार के न्यायालयों का हो सकता है-पर उस विधाता के दरबार में ऐसे खेल नहीं खेले जाते। वहां तो जिसने जैसा कर्म किया है उसे वैसा ही फल देना ईश्वरीय व्यवस्था का एक नियम है। इस नियम का कोई भंग नहीं हो सकता। वेद का कर्म के विषय में चिन्तन है-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोअस्ति न कर्म लिप्यते नरे।। (यजु: 40-2)
महर्षि दयानंद जी महाराज इस मंत्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं-”हे मनुष्य! इस संसार में धर्मयुक्त वेदोक्त निष्काम कर्मों को करता हुआ ही सौ वर्ष जीवन की इच्छा कर।”
बस, वेद के इसी सिद्घांत को दृष्टिगत रखते हुए श्रीकृष्ण जी गीता का उपदेश कर रहे हैं। उन्होंने वेद के सनातन सत्य को आगे बढ़ाया है और उस सत्य को गीता के रूप में लोगों ने अपने लिए अमृतमयी दुग्ध समझकर सुरक्षित रखा है। इसलिए गीता एक मार्गदर्शक ग्रंथ बन गया। एक अमृतमयी भोजन बन गया, जिसे थोड़ा सा चखो और आनन्द के अनन्त कोषों के स्वामी बन जाओ। यद्यपि इससे वेद की महिमा कम नहीं हो जाती है। समुद्र से कोई दो चार बूंद ले आए और फिर उन बूंदों से स्वकल्याण कर ले तो इसका अभिप्राय यह नहीं कि वे बूंद की सागर थीं। बूंद बूंद है और सागर सागर है। यह अंतर समझकर ही चलना चाहिए।
गीता की बूंदों से भटकती मानवता की छाती की जलन ठीक हो सकती है-इसमें दो मत नहीं। पर ध्यान रखना चाहिए कि गीता में जो कुछ भी तर्कसंगत, न्यायसंगत, बुद्घिसंगत और विज्ञान सम्मत है वह उसे वेद की ही देन है। वेद के कर्म सम्बन्धी सिद्घांत को गीताकार ने जितनी उत्तमता से हमारे सामने स्पष्ट किया है और संसार को निष्काम कर्म का जिस प्रकार उपदेश किया है -उससे सारी मानवता लाभान्वित हो सकती है।
गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज
अब गीता के छठे अध्याय पर आते हैं, गीता के कुल 18 अध्यायों में से पहले छह अध्यायों को गीताकार ने ‘कर्मयोग’ के लिए समर्पित किया है।
संसार में कुछ लोग कर्ममार्गी होते हैं उनके लिए कर्म ही पूजा होती है तो कुछ लोग भक्ति मार्गी होते हैं उनके लिए जीवन का कल्याण भक्ति मार्ग से ही हो पाना संभव है। जबकि कुछ लोग ज्ञानमार्गी होते हैं। उनके लिए जीवन का कल्याण ज्ञानमार्ग से ही हो पाना संभव है। गीता इन तीनों ही मार्गों को बताकर व समझाकर चलने वाला गं्रथ है।
कर्मयोगी और ज्ञान योगी एक ही हैं
छठे अध्याय का शुभारम्भ करते हुए श्रीकृष्णजी कहते हैं कि पार्थ! जो व्यक्ति अपने कत्र्तव्य कर्म को करते हुए कर्मफल पर आश्रित नहीं रहता अर्थात कर्म के फल की आसक्ति को त्यागकर कत्र्तव्यभाव से ही कर्म करता है-वह एक साथ संन्यासी भी है और योगी भी है। श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं कि योगी होने के लिए संन्यस्त होने की या कपड़ा रंगने की आवश्यकता नहीं है, जिसका मन रंग गया वह योगी हो गया। बहुत ही छोटी सी बात में श्रीकृष्णजी बड़ी बात कह दी है कि जिसका मन रंग गया वह योगी हो गया। मन के रंगते ही जीवन पर रंगत आने लगती है।
यह समझना कि जिसने अग्निहोत्रादि कर्मों को छोड़ दिया या जिसने सारे ही कर्म छोड़ दिये वह संन्यासी हो गया-गलत है। संसार में लोगों ने स्वयं को संन्यासी दिखाने के लिए बड़े-बड़े ढोंग और बड़े-बड़े पाखण्ड रचे हैं। गीता के नाम पर ही निठल्लावाद और पाखण्डवाद बढ़ाने वालों की भी कमी नहीं रही है। बड़े-बड़े महल और राजभवनों को मात देने वाले ऐश्वर्य सम्पन्न दरबार इन लोगों ने खड़े किये बाग-बगीचे खड़े किये। इतना ऐश्वर्य इन तथाकथित बाबाओं, फकीरों, मुल्ला-मौलवियों, पादरियों व गुरूओं आदि ने खड़ा कर लिया कि उसे देखकर अच्छे-अच्छे बिजनैसमैन या उद्योगपति या धन्नासेठ भी स्वयं को लज्जित अनुभव करने लगे। लोगों का ध्यान वास्तविक तपस्वियों और मनस्वियों की ओर से हठ गया और उन्होंने इन ढोंगी लोगों को ही इनके कहे अनुसार भगवान मानना तक आरंभ कर दिया। क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत